tag:blogger.com,1999:blog-86025186141962916282024-03-12T20:34:36.305-07:00सदगुरू श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँसmukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.comBlogger178125tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-372468828675926202012-04-06T06:01:00.001-07:002018-07-12T07:03:48.675-07:00आपके अपने अपने ईश्वर हैं
ध्यान कुछ ऐसा है । जिसका कि उस तरह से अभ्यास नहीं किया जा सकता । जिस तरह आप वायलिन या पियानो बजाने का अभ्यास करते हैं । आप अभ्यास करते हैं । अर्थात आप पूर्णता के किसी खास स्तर पर पहुंचना चाहते हैं । पर ध्यान में कोई स्तर नहीं है । कुछ पाना नहीं है । इसलिए ध्यान कोई चेतन या जान बूझ कर किया जाने वाला कर्म नहीं है । ध्यान वह है । जो पूरी तरह से बिना किसी दिशा निर्देशन के है । अगर मैं चाहूँ । तो mukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-89296058062900926602012-04-06T05:59:00.001-07:002018-07-12T07:04:24.249-07:00और इसकी भी कि प्रेम क्या है ?
मौन या निशब्दता अपने आप आती है । जब आप जानते हैं कि - अवलोकन कैसे किया जाता है । मन की शांति सहज ही अपने आप आती है । यह स्वाभाविक रूप से आती है । सुगमता पूर्वक । बिना किसी कोशिश या प्रयास के । यदि आप जानते हैं कि - अवलोकन कैसे किया जाता है ? देखा कैसे जाता है ?
जब आप किसी बादल को देखते हैं । तो उसकी तरफ शब्द रहित और इसलिए बिना किसी विचार के देखें । उसकी तरफ बिना किसी अवलोकन कर्ता के अलगाव के mukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-12787855832991255992012-04-06T05:56:00.001-07:002018-07-12T07:04:58.504-07:00प्रश्न है कि जीवन में आपका ध्येय क्या हो ?
आप इसलिए है । क्योंकि आपके माता पिता ने आपको जन्म दिया है । और आप भारत के ही नहीं । विश्व की सम्पूर्ण मानवता के । शताब्दियों के विकास का परिणाम हैं । आप किसी असाधारण अनूठेपन से नहीं जनमें हैं । बल्कि आपके साथ पंरपरा की पूरी पृष्ठ भूमि है । आप हिन्दू या मुस्लिम हैं । आप पर्यावरण । वातावरण । खान पान । सामाजिक । और सांस्कृतिक परिवेशों । और आर्थिक दबावों से उपजे हैं । आप अनेकों शताब्दियों का । mukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-48184505171758834032012-04-06T05:54:00.001-07:002012-04-06T18:45:44.208-07:00क्या मौत के बाद कुछ बचता है ?मुझे नहीं लगता कि - कोई सरल मार्ग है । क्योंकि ईश्वर को पाना । अत्यंत कठिन । अत्यधिक श्रम साध्य बात है । जिसे हम ईश्वर कहते हैं ? क्या मन ही ने उसका निर्माण नहीं किया है ? आप जानते ही हैं कि - मन क्या होता है ? मन समय का परिणाम है । और यह कुछ भी । किसी भी । भ्रांति को निर्मित कर सकता है । धारणाओं को बुनने । तथा रंगीनियों । और कल्पनाओं में अपना प्रक्षेपण करने की शक्ति इसके पास है । यह निरन्तर संचयmukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-40044202306772173712012-02-15T20:26:00.000-08:002012-02-15T20:39:36.111-08:00संसार रूपी वृक्ष पर चढ़े लोग नरक रूपी सागर में गिरते हैंअचिन्त्याव्यक्तरूपाय निर्गुणाय गुणात्मने । समस्त जगदाधारमूर्तये बृह्मणे नमः ।
जो बृह्म अचिन्त्य । अव्यक्त । तीनों गुणों से रहित ( फिर भी देखने वालों के अज्ञान की उपाधि से ) त्रिगुणात्मक । और समस्त जगत का । अधिष्ठान रूप है । ऐसे बृह्म को नमस्कार हो । 1
सूत सूत महाप्राज्ञ निगमागमपारग । गुरुस्वरूपमस्माकं ब्रूहि सर्वमलापहम ।
ऋषि बोले - हे महा ज्ञानी ! हे वेद वेदांगों के निष्णात ! सूत जी ! सर्व पापों mukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-82359829484653654432012-02-15T20:21:00.000-08:002018-07-12T07:02:51.394-07:00इस प्रकार उपदेश देने वाला बृह्म राक्षस होता है
बृह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं । द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम ।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतम । भावतीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि ।
जो बृह्मानंद । स्वरूप हैं । परम सुख । देने वाले हैं । जो केवल । ज्ञान स्वरूप हैं । ( सुख । दुख । शीत । उष्ण आदि ) द्वन्द्वों से । रहित हैं । आकाश के समान । सूक्ष्म । और । सर्व व्यापक हैं । तत्वमसि आदि । महा वाक्यों के । लक्ष्यार्थmukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-59028315332244226632012-02-15T20:18:00.000-08:002012-02-15T21:10:18.576-08:00बृह्म निष्ठ महात्मा तीनों लोकों मे समान भाव से गति करते हैंअथ काम्यजपस्थानं कथयामि वरानने । सागरान्ते सरित्तीरे तीर्थे हरिहरालये ।
शक्तिदेवालये गोष्ठे सर्वदेवालये शुभे । वटस्य धात्र्या मूले व मठे वृन्दावने तथा ।
पवित्रे निर्मले देशे नित्यानुष्ठानोऽपि वा । निर्वेदनेन मौनेन जपमेतत् समारभेत ।
हे सुमुखी ! अब सकामियों के लिए । जप करने के । स्थानों का । वर्णन करता हूँ । सागर । या नदी के तट पर । तीर्थ में । शिवालय में । विष्णु के । या देवी के । मंदिर में । mukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-60383739829293798392012-02-10T05:22:00.000-08:002012-02-10T16:34:10.895-08:00हे मूर्ख मन ! तू अहं अहं क्यों करता है ?वशिष्ठ बोले - हे राम ! पूर्व में जैसे उद्दालक भूतों के समूह को । विचार करके परम पद को प्राप्त हुआ है । सो तुम सुनो । हे राम ! जगत रूपी जीर्ण घर के । वायव्य कोण में एक देश है । जो पर्वत और तमालादि वृक्षों से पूर्ण है । और महा मणियों का स्थान है । उस स्थान में उद्दालक नाम एक बुद्धिमान ब्राह्मण मान करने के योग्य विद्यमान था । परन्तु अर्ध प्रबुद्ध था । क्योंकि परम पद को उसने न पाया था । वह ब्राह्मण mukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-7339491539650403432012-02-10T05:21:00.000-08:002012-02-10T17:05:29.740-08:00यह जगत भी चित्त में स्थित हैराम बोले - हे भगवन ! यह माया संसार चक्र है । उसका बड़ा तीक्ष्ण वेग है । और सब अंगों को छेदने वाला है । जिससे यह चक्र । और इस भृम से छूटूँ । वही उपाय कहिये ।
वशिष्ठ बोले - हे राम ! यह जो माया मय संसार चक्र है । उसका नाभि स्थान चित्त है । जब चित्त वश हो । तब संसार चक्र का वेग रोका जावे । और किसी प्रकार नहीं रोका जाता । हे राम ! इस बात को तुम भली प्रकार जानते हो । हे निष्पाप ! जब चक्र की नाभि रोकी mukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-43004407224828874092012-02-10T04:40:00.000-08:002012-02-10T17:08:23.776-08:00सत शब्द बिना कोई पदार्थ सिद्ध नहीं होताहे साधो ! जिनका नित्य प्रबुद्ध चित्त है । वे जगत के कार्य भी करते हैं । पर आत्म तत्व में स्थित हैं । तो वह सर्वदा समाधि में स्थित हैं । और जो पदम आसन बाँधकर बैठते हैं । और बृह्म अंजली हाथ में रखते हैं । पर चित्त आत्म पद में स्थित नहीं होता । और विश्रान्ति नहीं पाते । तो उनको समाधि कहाँ ? वह समाधि नहीं कहलाती । हे भगवन ! परमार्थ तत्व बोध आशा रूपी सब तृणों के जलाने वाली अग्नि है । ऐसी निराश रूपी जोmukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-85773299586207460322012-02-10T04:39:00.000-08:002012-02-10T17:13:52.848-08:00मूर्ख अपनी कल्पना से दुखी होता हैवसिष्ठ बोले - हे राम ! मूढ़ अज्ञानी पुरुष । अपने संकल्प से । आप ही मोह को प्राप्त होता है । और जो पण्डित है । वह मोह को नहीं प्राप्त होता । जैसे मूर्ख बालक । अपनी परछाईं में । पिशाच कल्पना कर । भय पाता है । वैसे ही मूर्ख । अपनी कल्पना से दुखी होता है ।
तब राम बोले - हे भगवन ! बृह्म वेत्ताओं में श्रेष्ठ ! वह संकल्प क्या है ? और छाया क्या है ? जो असत्य ही । सत्य रूप । पिशाच की तरह दीखती है ?
वशिष्ठmukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-23237513665312419502012-02-10T04:37:00.000-08:002012-02-10T17:19:38.013-08:00धिक्कार वह मनुष्यों में गर्दभ हैहे राम ! यह चित्त रूपी महा व्याधि है । उसकी निवृति के अर्थ । मैं तुमको एक श्रेष्ठ औषध कहता हूँ । वह तुम सुनो । जिसमें यत्न भी अपना हो । साध्य भी आप ही हो । और औषध भी आप हो । और सब पुरुषार्थ आप ही से सिद्ध होता है । इस यत्न से चित्त रूपी वैताल को नष्ट करो । हे राम ! जो कुछ पदार्थ तुमको रस संयुक्त दृष्टि आवें । उनको त्याग करो । जब वांछित पदार्थों का त्याग करोगे । तब मन को जीत लोगे । और अचल पद को mukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-4864106570552730092012-02-10T04:35:00.000-08:002012-02-10T17:29:02.319-08:00आकार कल्पित करके देव की मिथ्या कल्पनावसिष्ठ जी कहते हैं - जिसका अंतःकरण मुक्ति के लिए लालायित हो । सत कर्म करके शुद्ध हो गया हो । तथा ध्यान से एकाग्र हो गया हो । उसे यह उपदेश सुनने मात्र से आत्म साक्षात्कार हो जायेगा । जिन लोगों को इस ग्रंथ में इस ज्ञान में प्रीति नहीं है । वे अपरिपक्व हैं । उनको चाहिए कि वृत । उपवास । तीर्थाटन । दान । यज्ञ । होम । हवन आदि करें । इन्हें करके जब उनका अंतःकरण परिपक्व होगा । तब उनको इसमें रुचि होगी ।
mukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-46553524094037396922012-02-01T07:19:00.000-08:002012-02-01T07:19:32.840-08:00सोंह निरंजन रंरंकार और शक्ति ओंकारासंतो शब्दई शब्द बखाना । शब्द फ़ांस फ़ंसा सब कोई । शब्द नहीं पहचाना ।
प्रथमहि बृह्म स्व इच्छा ते । पाँचों शब्द उचारा । सोंह निरंजन रंरंकार और शक्ति ओंकारा ।
पाँचों तत्व प्रकृति तीनों गुण उपजाया । लोक दीप चारों खान चौरासी लख बनाया ।
शब्द काल कलंदर कहिये । शब्दइ भर्म भुलाया । पाँच शब्द की आशा में सरवस मूल गंवाया ।
शब्दइ बृह्म प्रकाश मेट के बैठे मूंदे द्वारा । शब्दइ निरगुण शब्दइ सरगुण शब्दइ वेद mukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-9574161512364762792012-02-01T07:15:00.000-08:002012-02-01T07:15:49.298-08:00नानक गुरु की चरणों लागेएक सुआन दुई सुआनी नाल । भलके भौंकही सदा बिआल ।
कुड छुरा मुठ मुरदार । धाणक रूप रहा करतार ।
मैं पति की पदि न करनी की कार । उह बिगङै रूप रहा विकराल ।
तेरा एक नाम तारे संसार । मैं ऐहो आस ऐहो आधार ।
मुख निंदा आख दिन रात । पर घर जोही नीच मनाति ।
काम क्रोध तन बसह चंडाल । धाणक रूप रहा करतार ।
फ़ाही सुरत मलूकी बेस । उह ठगवाङा ठगी देस ।
खरा सिआणा बहुता भार । धाणक रूप रहा करतार ।
मैं कीता न जाताmukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-22337522501705977232012-02-01T07:08:00.000-08:002012-02-01T07:08:41.625-08:00हम सुलतानी नानक तारे दादू को उपदेश दियागरीबदास द्वारा कबीर बन्दगी ।
अजब नगर में ले गया । हमकू सतगुरु आन । झिलके बिम्ब अगाध गति सूते चादर तान ।
अनन्त कोटि बृह्माण्ड का एक रति नहीं भार । सतगुरु पुरुष कबीर है कुल का सृजनहार ।
गैबी ख्याल विशाल सतगुरु अचल दिगम्बर थीर है । भक्ति हेतु काया धर आये अविगत सन्त कबीर है ।
हरदम खोज हनोज हाजिर त्रिवेणी के तीर है । दास गरीब तवीव सतगुरु बन्दी छोङ कबीर है ।
हम सुलतानी नानक तारे दादू को उपदेश mukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-27084047089803862352012-01-29T05:50:00.000-08:002012-01-29T05:50:51.548-08:00कबीर और कालपुरुष बातचीत - काल का जालसुनो धर्मराया । हम संखों हंसा पद परसाया ।
जिन लीन्हा हमरा प्रवाना । सो हंसा हम किए अमाना ।
द्वादस पंथ करूं मैं साजा । नाम तुम्हारा ले करूं अवाजा ।
द्वादस यम संसार पठहो । नाम तुम्हारे पंथ चलैहो ।
प्रथम दूत मम प्रगटे जाई । पीछे अंश तुम्हारा आई ।
यही विधि जीव न को भरमाऊं । पुरुष नाम जीवन समझाऊं ।
द्वादस पंथ नाम जो लैहे । सो हमरे मुख आन समै है ।
कहा तुम्हारा जीव नहीं माने । हमरी ओर होय बाद बखानै ।
mukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-86196910463569525242012-01-29T05:46:00.000-08:002012-01-29T05:46:49.892-08:00युधिष्ठर का अश्वमेघ यज्ञव्यंजन छत्तीसों परोसिया । जहाँ द्रौपदी रानी । बिन आदर सत्कार के । कहे शंख ना वानी ।
पाँच गिरासी वाल्मीक । पाँचे बार बोले । आगे शंख पंचायन । कपाट ना खोले ।
बोले कृष्ण महावली । त्रिभुवन के राजा । वालमीक प्रसाद से । कान कान क्यों ना बाजा ।
द्रौपदी सेती कृष्ण देव । जब ऐसे भाखा । वाल्मीक के चरनों की । तेरे ना अभिलाषा ।
प्रेम पंचायन भूख है । अन्न जग का खाजा । ऊँच नीच द्रौपदी कहा । शंख कान कान यों नहीं mukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-41332053813245555442012-01-29T05:15:00.000-08:002012-01-29T05:15:15.789-08:00कबीर द्वारा गोरखनाथ की क्लास लेनायोगी गोरखनाथ प्रतापी । तासो तेज पृथ्वी कांपी । काशी नगर में सो पग परहीं । रामानन्द से चर्चा करहीं ।
चर्चा में गोरख जय पावै । कंठी तोरै तिलक छुड़ावै । सत्य कबीर शिष्य जो भयऊ । यह वृतांत सो सुनि लयऊ ।
गोरख के डर के मारे । वैरागी नहीं भेष सवारे । तब कबीर आज्ञा अनुसारा । वैष्णव सकल स्वरूप संवारा ।
सो सुधि गोरख जो पायौ । काशी नगर शीघ्र चल आयौ । रामानन्द को खबर पठाई । चर्चा करो मेरे संग आई ।
रामानन्द mukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-25376724129130280632012-01-26T20:28:00.000-08:002012-01-26T20:59:39.640-08:00माया और भक्ति दोनों का एक साथ रहना सम्भव नहीं है74 प्रश्न - महाराज जी ! कभी कभी भजन ध्यान का अभ्यास करते समय सिर और आंखों में दर्द होने लगता है । इसका क्या उपाय करें ?
उत्तर - ऐसे समय में यह अच्छा है कि धीरे धीरे अभ्यास को बढाना चाहिये । ऐसा करने से यदि दर्द सिर में या आंखों में होने लगे । तो कुछ देर के लिये अभ्यास बन्द करके आराम कर ले । घूम टहल ले । कुछ देर के विश्राम के बाद अभ्यास करे । विश्राम कर लेने के बाद पुन: अभ्यास आरम्भ कर देना चाहियेmukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-2006013420904203962012-01-19T02:18:00.000-08:002012-01-19T04:23:24.414-08:002-4 श्लोक कण्ठस्थ करने मात्र से क्या कोई साधु हो जाता है ?61 प्रश्न - श्री स्वामी जी महाराज ! आहार आदि कैसे बनाना चाहिये ?
उत्तर - भोजन शुद्ध विचारधारा से बनाना चाहिये । भोजन बनाने वाले पर काफ़ी कुछ निर्भर करता है । भोजन बनाने वाले को नित्य कर्म करके स्नान, ध्यान करके साफ़ सुथरे वस्त्र धारण कर साफ़ सफ़ाई से भोजन बनाना चाहिये । कहावत है - जैसा खाए अन्न । वैसा होवे मन । भोजन बडी शान्ति से मौन रहकर खुश दिल होकर बनाना चाहिये । भोजन बनाते समय बोलना नहीं mukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-33742991512730606752012-01-12T03:54:00.000-08:002012-01-12T03:54:41.862-08:00कबीर गुरू की भक्ति बिन बांधा जमपुर जाय
ऊजल पहने कापड़ा । पान सुपारी खाय । कबीर गुरू की भक्ति बिन । बांधा जमपुर जाय ।
कुल करनी के कारने । ढिग ही रहिगो राम । कुल काकी लाजि है । जब जमकी धूमधाम ।
कुल करनी के कारने । हंसा गया बिगोय । तब कुल काको लाजि है । चाकिर पांव का होय ।मैं मेरी तू जानि करे । मेरी मूल बिनास । मेरी पग का पैखड़ा । मेरी गल की फांस । ज्यों कोरी रेजा बुने । नीरा आवे छोर । ऐसा लेखा मीच काmukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-70951511224893598302012-01-12T03:40:00.000-08:002012-01-12T03:40:58.087-08:00एक गुरु के नाम बिन जम मारेंगे रोज ।ऊँचा महल चुनाइया । सुबरन कली ढुलाय । वे मन्दिर खाले पड़े । रहे मसाना जाय ।
ऊँचा मन्दिर मेड़िया । चला कली ढुलाय । एकहि गुरु के नाम बिन । जदि तदि परलय जाय ।
ऊँचा दीसे धौहरा । भागे चीती पोल । एक गुरु के नाम बिन । जम मारेंगे रोज । पाव पलक तो दूर है । मो पे कहा न जाय । ना जानो क्या होयगा । पाव के चौथे भाय । मौत बिसारी बाहिरा ।  mukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-84614294862702545012012-01-02T05:56:00.000-08:002018-07-15T05:17:21.798-07:00गुरूभक्ति योग
गुरूभक्ति
योग की भावना - जिस प्रकार शीघ्र ईश्वर दर्शन के लिये कलियुग में साधना
के रूप में कीर्तन साधना है । ठीक उसी प्रकार इस संशय, नास्तिकता,
अभिमान, और अहंकार के युग में योग की एक सनातन
पद्धति यहाँ प्रस्तुत है, जिसको कहते हैं - गुरूभक्ति योग।
यह योग अद्भुत
है, इसकी शक्ति असीम है। इसका प्रभाव अमोघ है इसकी महत्ता
अवर्णनीय है। इस युग के लिये उपयोगी इस विशेष योग पद्धति के द्वारा आप इस हाङ mukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8602518614196291628.post-4973777332626747542012-01-02T05:25:00.000-08:002018-07-15T05:15:41.447-07:00गुरू मोक्ष का द्वार हैं
सुरति की
अन्तर्यात्रा की मंजिलें - जिज्ञासुओं की सुरति को साधना और अभ्यास में जिन
आन्तरिक मंजिलों में से होकर गुजरना पङता है। उनका विशद वर्णन स्वामी जी महाराज
सुचारू रूप से किया करते थे। भजन, सुमिरन, सेवा, पूजा, दर्शन, ध्यान की प्रक्रिया अर्थात अजपा जप और सहज समाधि यानी ध्यान के विषय में
साधक के साधना मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का समाधान भी आप ऐसे सरल भाव व सरल
तरीके से करते थे कि शिष्य mukta mandlahttp://www.blogger.com/profile/15157348406429932150noreply@blogger.com0