
गुरुवार, दिसंबर 23, 2010
पानी । जो वास्तव में अमृत था ?

बुधवार, सितंबर 22, 2010
जीवन के पार का रहस्य अंधेरे की काली चादर के पीछे है ।

जरूरी है । और वो प्रकृति ही हो सकती है । सभी रहस्य प्रकृति के अन्दर ही तो हैं । तब ये आवाजें क्यों हो रही हैं ? ये किसको पुकार रहीं हैं । ये खुद हमें बताती हैं । बस इनसे पूछना होता है । पूछने के लिये संवाद जरूरी है । पहले सबको सुनो । फ़िर कुछ को सुनो । फ़िर एक को चुनो । ये साधारण बात नहीं । बडी गहन बात है । खास कोई एक होता है । दो होते हैं । बहुत नहीं होते । वो खास तुमसे बात करने का इच्छुक है । पर यदि तुम खुद खास हो जाओ । हां । सच है । खास होना पडता है । खास कोई होता नहीं । बल्कि होना पडता है । खास होने के लिये खास की तरफ़ जाना होता है । तो.. ये सारा संगीत एक रहस्य बताता है । मगर । एक रुकावट हो जाती है । डर की रुकावट । तुम ऐसे माहौल के अभ्यस्त नहीं हो । डर लगता है । डर तुम्हें संगीत नहीं सुनने देता । कोई बात नहीं । अपने घर के पास ही सुनो । ऐसे शुरू करो । तुम्हें यहां भी अजीव सा अहसास होगा । पर याद रखो । डर को दूर करने के लिये डर के पास जाना जरूरी है । जव तुम डर के पास रहने लगते हो । तो डर तुम्हारा पडोसी हो जाता है ।
गुरुवार, सितंबर 16, 2010
जानों । जानने से लाभ होता है । मानो मत ।


मेरी समझ से internet को हम सूचनाओं का खजाना तो कह सकते हैं । पर ग्यान का खजाना नहीं कह सकते । हो सकता है । इस point पर मैं गलत होऊं । पर मैंने जितने भी समय internet को use किया है । और इच्छित चीजों को search किया है । तो उनके result से मुझे निराशा ही हाथ लगी है । ये तुलना मैं library से कर रहा हूं । library में कुछ देर के प्रयास के बाद कोई ऐसी अनमोल और पुरानी पुस्तक हाथ लग ही जाती थी । जो अगले आठ दिनों तक न सिर्फ़ ग्यान में भारी इजाफ़ा करती । बल्कि मानसिक खुराक का काम भी देती थी । ये घटना लगभग दस साल पहले की है । जब प्राचीन रहस्यों और प्राचीन ग्यान पर एक शोधकर्ता विद्धान की पुस्तक मुझे मिली । मैंने इस पुस्तक को खरीदने हेतु बहुत पता किया । पर वह बाजार आदि में उपलब्ध नहीं थी । और संक्षेप में वह पुस्तक मुझे नहीं मिल पायी । तब मैंने उसके महत्वपूर्ण अंशो को एक डायरी में लिख लिया । लेकिन बाद के साधनाकाल में बहुत कुछ ऐसा घटित हुआ कि वो डायरी ही कहीं खो गयी । खैर । उस डायरी की याद मुझे एक तोतलाते बालक को देखकर याद आयी । उस diary में चार या पांच अक्षरों का एक ऐसा शब्द था । जिससे हकलाना और तुतलाना ठीक हो जाता था । ये बात एक दिन मुझे महाराज जी के सामने याद आ गयी । मैंने कहा । महाराज जी वह कौन सा शब्द हो सकता है ? आत्मग्यान के साधक को जैसा उत्तर मिल सकता था । वैसा ही मुझे महाराज जी से मिला । थोपे हुये ग्यान को ग्रहण मत करो । तुम्हारी आत्मा के पास हर उत्तर है । और जीवन का वास्तविक लक्ष्य हमेशा याद रखो । ये शरीर तुम्हें बारबार मिलने वाला नहीं है ? सीधी सी बात थी । महाराज जी उस दिन अलग तरह के मूड में थे । इंसान के दिमाग में एक खासियत होती है कि एक बार कोई बात आ जाय । तो सहज निकलती नहीं है । शायद महाराज जी ने यह बात जान ली थी । इसके लगभग दो तीन महीने बाद की बात है । महाराज जी के पास उनका एक शिष्य मिलने आया । जिसके साथ दस साल का बालक था । वह क शब्द को त बोलता था । और भी शब्दों में तुतलाने का अधिक समावेश था । वह शिष्य बालक को यूं ही ले आया था । उसके साथ क्या होने वाला है । ये शायद उसको भी पता नहीं था ? पापा दे तौन एं ? पापा ये कौन हैं ? उसने एक आदमी की तरफ़ इशारा करके पूछा । महाराज जी ने कहा । क बोलो । ता बोलई ना पात । ज बोलो । दा । उसने बोला । मैंने महाराज जी की तरफ़ देखा । उनके चेहरे पर वही शान्ति थी । उनका किसी की तरफ़ कोई ध्यान नहीं था । फ़िर वे उस बालक को बताने लगे । देखो क यहां से निकलता है ? यहां से जोर देकर बोलो । बालक ने वैसा ही किया । कुछ अस्पष्ट खरखराहट उसके कंठ से निकली । इसके बाद लगभग पचास बार के प्रयास में वह तुरन्त क बोलने लगा । अब ज इस तरह से बोलो । यहां जोर देना हैं ..। पांच छह दिन में ही बालक बिना किसी दवा के
एकदम साफ़ उच्चारण करने लगा । उसका पिता इसको चमत्कार बताते हुये महाराज जी के पैरों में गिर गया । महाराज जी ने कहा । ये कोई चमत्कार नहीं है । इसका स्वर यन्त्र अवरुद्ध था । क च प द ग ह आदि अक्षर कंठ तालु नाभि आदि स्थानों से आते हैं । उन स्थानों पर जोर देकर बोलने से उच्चारण सही होने लगता है । और यन्त्र बखूबी कार्य करने लगता है । जाहिर था । महाराज जी ने मेरी शंका का समाधान निराले अंदाज में किया था । बहुत साधारण तरीका । प्रक्टीकल । और एक जीव का भला ।
यही महाराज जी अपने प्रवचन में हमेशा कहते है कि जानों । जानने से लाभ होता है । मानो मत । मानने से कोई लाभ नहीं होता । उलटे तरह तरह के विचारों से आदमी धर्म को लेकर भृमित हो जाता है । सनातन धर्म के बारे में अनेक धारणायें मानने का ही परिणाम है ।
सोमवार, सितंबर 06, 2010
महाराज जी के प्रवचन का अंश..


जब प्रलय़ होती है । तब प्रथ्वी जल में । जल वायु में । वायु अग्नि में । अग्नि आकाश में । आकाश महतत्व में लय हो जाता है । इसके बाद गूंज रह जाती है । इस तरह प्रलय हो जाती है । इसी गूंज को शब्द कहते हैं । क्योंकि यह ध्वनि जैसा है । इसलिये इसे गूंज कहते हैं । आदि सृष्टि में । जब सबसे पहले परमात्मा द्वारा
प्रथम बार सृष्टि का निर्माण हुआ । इसी गूंज में । हुं । उत्पन्न हुआ । हुं । यानी अहम भाव । या अहम भाव
की स्फ़ुरणा । तब मूल माया उत्पन्न हुयी । इसके बाद दो प्रकृतियां उत्पन्न हुयीं । परा और अपरा । तब इच्छा उत्पन्न हुयी । इच्छा से चाह उत्पन्न हुयी । चाह से वासना पैदा हुयी । और तब उसने सोचा कि कुछ करना चाहिये । तब पांच महाभूत यानी पांच महाशक्तियां उत्पन्न हुयी । फ़िर ये पांच महाभूत आपस में मिश्रित हो गये । और पांच तत्वों की रचना हुयी । प्रथ्वी । जल । वायु । अग्नि । आकाश । उस समय ये सार तत्व या चेतन या परमात्मा पूर्ण था । उसने संकल्प किया कि मैं एक से अनेक हो जाऊं । तब इसके पहले संकल्प से अन्डज की रचना हुयी । दूसरे संकल्प से जलचर यानी कच्छ मच्छ आदि की रचना हुयी । उस समय ये पहली बार घबराया । तब फ़िर से संकल्प किया । और तब वनचर शेर तेंदुआ आदि की रचना हुयी । फ़िर इसके चौथे संकल्प से मनुष्य़ की रचना हुयी । जो आदि मानव हुआ । वायु में प्रथ्वी का भार होता है । अग्नि का तेज होता है । जल की शीतलता होती है । आकाश की मधुरता होती है । उदाहरण जल में से धुंआ निकलता है । वह अग्नि तत्व का होता है । आग पर कपडा रखने से वह भीग ( पसीज ) जाता है । प्रथ्वी में ज्वालामुखी फ़ूटते हैं । ये अग्नि तत्व के उदाहरण हैं । आकाश तत्व में पांचों तत्व सूक्ष्म रूप से मिले हुये हैं । इच्छा खत्म हुयी तो चाह खत्म हो गयी । चाह खत्म हो गयी तो वासना खत्म हो गयी । और ये जैसा का तैसा हो गया । यही वास्तविक मुक्ति है । श्री महाराज जी के प्रवचन से ..।
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लेखकीय - इधर व्यस्तता अधिक है । ब्लाग्स का कार्य न के बराबर हो रहा है । सतसंग में सुने गये दुर्लभ
रहस्य को आपके लिये संक्षेप में प्रकाशित कर रहा हूं ।
महाराज जी के प्रवचन से गूढ दोहे


बहुतक मुन्डा भये । कमन्डल लये ।
लम्बे केश । सन्त के वेश । दृव्य हर लेत । मन्त्र दे कानन भरमावे ।
ऐसे गुरु मत करे । फ़न्द मत परे । मन्त्र सिखलावें ।
तेरो रुक जाय कन्ठ । मन्त्र काम नहि आवे । ऐसे गुरु करि भृंग । सदा रहे संग । लोक तोहि चौथा दरसावें ।
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जहां लगि मुख वाणी कहे । तंह लगि काल का ग्रास । वाणी परे जो शब्द है । सो सतगुरु के पास ।
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कोटि नाम संसार में । उनसे मुक्ति न होय । आदि नाम जो गुप्त है । बूझे बिरला कोय ।
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कृत रत नाम जपे तेरी जिह्वा । सत्य नाम सतलोक में लियो महेशी जानि ।
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इन्ड पिन्ड ब्रह्मान्ड से न्यारा । कहो कैसे लख पायेगा । गुरु जौहरी जो भेद बतावे । तब इसको लख पायेगा ।
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घाट घाट चले सो मानवा । औघट चले सो साधु । घाट औघट दोनों तजे । ताको मतो अगाध ।
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अलख लखूं । अलखे लखूं । लखूं निरंजन तोय । हूं सबको लखूं । हूं को लखे न कोय ।
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तोमें राम । मोमें राम । खम्ब में राम । खडग में राम । सब में राम ही राम । श्री महाराज जी के प्रवचन से ..।
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लेखकीय - इधर व्यस्तता अधिक है । ब्लाग्स का कार्य न के बराबर हो रहा है । सतसंग में सुने गये दुर्लभ
रहस्य को आपके लिये संक्षेप में प्रकाशित कर रहा हूं ।
गुरुवार, सितंबर 02, 2010
गुरु मंडल के बारें में जानकारी ।






जीव माया की मोह निद्रा में है ।




कई दिनों बाद पूज्य श्री महाराज जी के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ । अबकी बार श्री महाराज जी से एकान्त में गम्भीर वार्ता का काफ़ी समय मिला । और काफ़ी अलौकिक रहस्यों के बारे में जाना । पहले काफ़ी चिल्ला ( डांट ) खायी । क्योंकि आत्म ग्यान में बडे से बडे रहस्य को मौखिक तौर पर जानना तुच्छ समझा जाता है । मुंहजबानी जानने के बजाय साधना से उसे practical स्तर पर जानने का अधिक महत्व होता है । तब मैंने निवेदन किया । महाराज जी सामान्य जन के लिये मौखिक ग्यान प्रेरणा का कार्य करता है । इस पर पहले तो चिल्ला पडी । कि जीव ( आम आदमी ) कहीं भक्ति करना चाहता है ? वह तो धन वासना के पीछे भागता हुआ निरन्तर काल के गाल में जाता हुआ खुश हो रहा है ? तब मैंने निवेदन किया । महाराज जी जीव माया की मोह निद्रा में है । साधु संतों का कार्य ही है । जीव को इस मोह निद्रा से जगाना । हे गुरुदेव । मुझ तुच्छ को आपने ही अहसास कराया । मोह का क्षय हो जाना ही वास्तविक मोक्ष है । न सिर्फ़ बताया । बल्कि मोह का क्षय कैसे होता है । ये सिखाया भी । निर्मल आत्मा का । निज स्वरूप का दर्शन कैसे होता है । इसका सप्रमाणिक रास्ता दिखाया । जिस पर चलते हुये अनेक साधक वास्तविक भक्ति का स्वरूप जान गये । और ग्रहस्थ में रहते हुये भली प्रकार वह भक्ति कर रहे हैं । जो पूर्व में अग्यानतावश समझी जाता था कि हिमालय पर बैठकर ही की जा सकती है ? खैर । अबकी बार जो भी जाना । उसे लगभग सात आठ लेखों में अपने ब्लाग्स में प्रकाशित कर रहा हूं । जो धार्मिक । ऐतहासिक । और ज्योतिष आदि का शोध करने के साथ साथ भक्तों के भी बेहद काम आयेगा । इसी के साथ अमेरिका के मेरे मित्र त्रयम्बक उपाध्याय ने जो मुझे गुरुजी के नये नये फ़ोटो खींचने का शौक लगा दिया । वह भी मैं गुरु जी के भक्तों शिष्यों के लिये प्रकाशित कर रहा हूं ।
रविवार, अगस्त 22, 2010
ग्वारी विलेज जहां आश्रम की शुरूआत हो चुकी है

महाराज जी के शिष्यों ने आग्रह किया ।महाराज जी कहीं एक छोटी कुटिया या छोटा आश्रम होना चाहिये । जिससे आपसे काफ़ी दूर से मिलने की आस ले के आया श्रद्धालु कुछ राहत महसूस कर सके । तब महाराज जी ने कहा । अभी नहीं । अभी स्थायी रूप से रहने का इरादा नहीं है । मैं राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ महाराज जी का लाडला होने के कारण पीछे पड गया कि महाराज जी सुबह शाम नित्य आपके दर्शन और सतसंग का लाभ हम बच्चों को कबसे प्राप्त होगा ? तब कुछ दिनों पहले महाराज जी ने आगामी क्वार महीने 2010 से स्थायी रूप से रहने की बात कही । लेकिन उन्होंने हम पर कृपा करते हुये एक मोबायल फ़ोन 0 96398 92934 रखना अवश्य स्वीकार कर लिया । इससे इतना फ़ायदा तो हो ही गया कि महाराज जी से किसी भी समय बात कर सकते थे । और उनके दर्शन हेतु उस स्थान पर जा सकते थे । खैर फ़िर भी हमें महाराज जी के एक निश्चित स्थान पर रहने का इंतजार अभी भी था । और आखिरकार महाराज जी ने
ग्वारी गांव में सघन वृक्षों के नीचे एकान्त स्थान में कुटिया बनाने की स्वीकृति दे दी । देखते ही देखते ट्रेक्टर
आदि से जमीन एक सी कराकर एक बीस फ़ुट लम्बी बीस फ़ुट चौडी कुटिया जिसे साधुओं की भाषा मेंबंगला कहते हैं । तैयार हो गयी । और शीघ्र ही उसके चारों तरफ़ फ़ूल आदि पेडों की बाड और गेट आदि बनाने का कार्य शुरू हो गया । उस स्थान पर बिजली और नल की बोरिंग पहले से ही मौजूद थी । आने जाने वालों की सुविधाओं का ध्यान रखते हुये महाराज जी ने आश्रम का स्थान मेन रोड से महज आधा किलोमीटर अन्दर समुचित रास्ते वाला ही चुना । उत्तर प्रदेश के जिला मैंनपुरी और जिला इटावा को आपस में जोडने वाली सडक पर । करहल तहसील और पूर्व मुख्यमन्त्री सपा मुखिया श्री मुलायम सिंह यादव का गांव सैफ़ई । इस आश्रम से लगभग चौदह किलोमीटर के अन्तर पर है । श्री मुलायम सिंह यादव का ग्रहनगर और क्षेत्र होने से मैंनपुरी से इटावा तक का अधिकांश क्षेत्र निर्माण और भव्यता के स्तर पर किसी अति आधुनिक शहर या विदेशी भूमि का अहसास दिलाता है । अति आधुनिक और चिकनी मजबूत सडकों का जाल पूरे क्षेत्र में बिछा हुआ है । सैफ़ई में हवाई अड्डा से लेकर उच्चस्तर के अस्पताल स्टेडियम और अन्य प्रकार की सुविधायें भी मौजूद है । जहां तक मेरी जानकारी है । सैफ़ई का विधुत उत्पादन उसी स्थान पर होता है । और चौबीस घन्टे बिजली रहती है । यह सब कहने का आशय यह है कि ना जानकारी वाले जो लोग मैंनपुरी को पिछडा क्षेत्र मानते हैं । यहां आकर चकाचौंध हो जाते हैं । मैंनपुरी से
इटावा के बीच में लगभग 55 किलोमीटर का अन्तर है । आगरा से मैंनपुरी और इटावा दोनों ही लगभग 125 किलोमीटर की दूरी पर है । मैंनपुरी से ग्वारी विलेज जहां आश्रम की शुरूआत हो चुकी है लगभग 18 किलोमीटर दूर है । इटावा से ग्वारी विलेज 37 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । दिल्ली से मैंनपुरी के लिये सीधी बस सेवा और रेल सेवा उपलव्ध है । कानपुर से भी सीधी बस सेवा उपलब्ध है । दिन रात चौबीस घन्टे के किसी भी समय इस स्थान पर पहुंचने में किसी प्रकार की दिक्कत और किसी प्रकार का भय नहीं है । फ़िलहाल आश्रम में और साधुओं के रहने तथा आने जाने वालों के ठहरने हेतु कुछ कमरों का निर्माण प्रारम्भ होने वाला है । और साथ ही कुछ ही दिनों में एक अलग आश्रम पर विचार चल रहा है ।
जिसका स्थान तय हो चुका है । जो लोग संत मत sant mat की आत्म दर्शन की परमात्मा से मिलाने वाली इस दिव्य साधना DIVY SADHNA का अनुभव करना चाहते हैं । वे महाराज जी सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज...परमहँस के पास इस आश्रम में पहुंचकर ग्यान प्राप्त कर सकते हैं । परन्तु अच्छे परिणाम के लिये उन्हें कम से कम आठ दिन का समय लेकर आना होगा । मेडीटेसन या अन्य ध्यान साधनाओं का पूर्व में अभ्यास कर चुके साधक आठ दिन में दिव्य अनुभूतियों और समाधि का अनुभव आसानी से प्राप्त कर लेते हैं । ऐसा मेरा कई बार का अनुभव है । अंत में अपने सभी सतसंगी भाईयों और प्रेमीजनों को जय गुरुदेव की । जय जय श्री गुरुदेव ।
आत्म दर्शन के आध्यात्मिक विचारों का आदान प्रदान " करने हेतु
मुख्य आश्रम - ग्वारी गांव । करहल । परमानन्द शोध संस्थान आगरा (उ .प्र .) भारत जिला - मैंनपुरी ।
Parmanand Research Institute Agra (u.p ) India ( मैंनपुरी इटावा रोड पर । बुझिया पुल से 6 km )
सम्पर्क- ( 0 ) 98087 42164 ( राजीव ) ( 0 ) 96398 92934 ( गुरुदेव )
blog- satguru-satykikhoj.blogspot.com shrishivanandjimaharaj.blogspot.com
निवेदन- समस्त विश्व समुदाय के भाई बहनों से निवेदन है कि हम विश्व स्तर पर दिव्य साधना DIVY SADHNA का एक "आध्यात्मिक मंच " का गठन करना चाहते हैं । जिसमें विश्व का कोई भी नागरिक अपनी भागीदारी कर सकता है । यह पूर्णतया निशुल्क और गैरलाभ उद्देश्य की "आपस में भाईचारा और आत्म दर्शन के आध्यात्मिक विचारों का आदान प्रदान " करने हेतु प्रारम्भ की गयी एक सीधी और सरल योजना है ।
उद्देश्य- आज के समय में विश्व में अनेकों मत और धर्म प्रचलित है । लेकिन अधिकतर लोग असन्तुष्ट हैं । प्रत्येक को अपने धर्म में अच्छाई और बुराई दोनों ही नजर आती है..लेकिन हमें इससे कोई लेना देना नहीं हैं । एक मनुष्य होने के नाते हमारे कर्तव्य हमारे अपने विचार क्या हैं..ये महत्वपूर्ण हैं । वास्तव में मनुष्य के रूप में हम एक ही है और सबकी आत्मा का एक ही धर्म है "सनातन धर्म "! आज अगर समाज के अंदर से बुराईयों का समूल नाश करना है तो इस विचार से ही , इस भावना से ही हो सकता है कि हम एक ही परमात्मा की संतान है । क्या आप मुझसे सहमत हैं । यदि हाँ तो हम अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिये क्या कर रहें हैं । हमारे ग्यान का अन्य
को क्या लाभ है और क्या लाभ हो सकता है ? इस पर एक "साझामंच " बनाने में हमारी यथासंभव मदद करें ।
यदि आप सहमत हैं तो कृपया निम्न जानकारी भरकर भेंजे और इसके अतिरिक्त आप कोई अन्य उत्तम विचार रखते हों तो कृपया अवश्य बतायें ।
आप का नाम...............................................माता /पिता का नाम..........................................
लिंग-स्त्री /पुरुष....................आयु................धर्म- यदि बताना चाहें............................................
विवाहित /अविवाहित /विधवा / विधुर .................................................................................
शहर /ग्राम...........................जिला.......................राज्य......................देश.......................
स्थायी पता .....................................................................................................................
वर्तमानपता.....................................................................................................................
कार्य /नौकरी / व्यवसाय....................................फ़ोन नम्बर,std कोड सहित.............................
मोबायल नम्बर...............................................
क्या आपने गुरुदीक्षा ली हैं......................यदि हाँ तो किस से....................................................
( अधिक गुरुओं से दीक्षा ली होने पर पाँच गुरुओं तक के नाम बताएं , जो आपको श्रेष्ठ लगे हों .)
1-.........................................................2-....................................................................
3-..........................................................4-...................................................................
5-...........................................................6-..................................................................
( क्षमा करें पर हमें और आपको भी ऐसे कई लोगों से वास्ता पङा होगा जो कई गुरुओं की शरण में जा चुके हैं और ये सच है कि जब तक सच्चे संत सच्चे गुरु न मिल जायं , हमें अपनी तलाश जारी रहनी चाहिये । कार्तिकेय जी ने कई गुरु किये थे , जब हम ग्यान को अक्सर थोङा ही समझते हैं तो अक्सर साधारण बाबा पुजारी आदि को गुरु बना लेते हैं और फ़िर अधिक समझ आने पर ऊँचा या पहुँचा हुआ गुरु बनाते हैं..ये उसी तरह है जब तक बीमारी कट न जाय हम डाक्टर बदलते रहते हैं.इस सम्बन्ध में अधिक जाननें के लिये ब्लाग देखें / फ़ोन करें / व्यक्तिगत मिलें ।
आपके गुरु ने जो मन्त्र दिया , उसमें अक्षरों की संख्या (गिनती ) कितनी थी. (मन्त्र न बताएं ).................
.......................यदि इस प्रश्न का उत्तर न देना चाहें तो कोई बात नहीं .
विशेष-इस प्रश्न का उद्देश्य मात्र इतना ही है कि आप संत मत sant mat के उस "महामन्त्र "को जानते हैं जो सिर्फ़ "ढाई अक्षर "का है और मुक्ति और आत्मकल्याण का इकलौता मन्त्र है और सतगुरु द्वारा दिये जाने पर बहुत जल्द प्रभाव दिखाता है.. सतगुरु कबीर साहेब मीरा ,दादू, पलटू , हनुमानजी ,बुद्ध, शंकरजी ,रामकृष्ण परमहँस ,तुलसीदास ,नानक वाल्मीक आदि ने जिसको जपा है और वर्तमान में भी कई संत जिसका उपदेश कर रहें है आप को उस मन्त्र का ग्यान है या नहीं ??
निम्न प्रश्नों का उत्तर हाँ या ना में ही दे , यदि नही देना चाहते तो भी कोई बात नहीं..हमारा उद्देश्य आपकोवास्तविक ग्यान से परिचय कराना ही है
1-दीक्षा के बाद आपको कोई अलौकिक अनुभव हुआ .हाँ / नहीं .............................
2-कितने दिन में हुआ..हाँ / नहीं.....................................................................
3-आपने सूक्ष्म लोकों या लोक लोकांतरों के भ्रमण का अनुभव किया या नहीं..हाँ / नहीं................
4-आपको प्रकाश दिखता है या नहीं...हाँ / नहीं...................................
5-आप मानते हैं मुक्ति जीते जी ही होती है मरने के बाद नही..हाँ / नही..................
6-आपको चेतन समाधि का अनुभव हुआ ..हाँ / नहीं ...................................
7-आपका ध्यान कितनी देर तक लग जाता है.. 1 घन्टे 2 घन्टे 3 घन्टे........................................
8- अन्य कोई अनुभव, यदि हो-......................................................................................
...................................................................................................................................
9-आपका कोई सुझाव-...................................................................................................
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................................................................................................................................
10-जो बात इस संदेश में आपको पसंद न आयी हो-...............................................................
.................................................................................................................................
विनीत-
समस्त " परमानन्द शोध संस्थान " साधक संघ
विशेष- हमारा उद्देश्य न तो किसी प्रकार का विवाद फ़ैलाना है और न ही किसी व्यक्ति या धर्म को ठेस पहुचाँना है ।
बल्कि हमारा उद्देश्य ऐसे व्यक्तियों और साधकों से परिचय तथा संवाद करना है जो हमारी जैसी आत्म दर्शन की सोच रखते है तथा आत्मकल्याण हेतु सुरती शब्द साधना ,सहज योग या राजयोग साधना कर रहें और अन्य जीवों को चेताने में विश्वास रखते हैं ..फ़िर भी यदि किसी को कोई बात आपत्तिजनक लगती हो तो कृपया हमें Email करें । हम आपकी भावनाओं का सम्मान करते हुये अपनी कमीं अवश्य दूर करेंगे ।
golu224@yahoo.com ...satguru555@yahoo.com ....rajeevkumar23096@yahoo.com
बुरा जो देखन में चलया , बुरा न मिलया कोय ,जो दिल खोजा आपना मुझसे बुरा न कोय ।
कबीर सब ते हम बुरे, हम ते भले सब कोय , जिन ऐसा कर बूझिया मित्र हमारा सोय ।
धन्यवाद
शनिवार, अगस्त 21, 2010
हनुमान जी का जन्म


उधर केसरी वानर अंजनी पर आसक्त था और बाद में अंजनी का भी रुझान भी केसरी की तरफ़ हो गया और दोनों ने विवाह कर लिया इस तरह हनुमान जी के अवतार का कारण बना और अहिल्या का ये शाप कि तू विना किये का भोगेगी भी सच हो गया. वास्तव में अलौकिक घटनायें रहस्मय होती हैं और मानवीय बुद्धि से इनका आंकलन नहीं किया जा सकता है जो सच हमारे सामने आता है उसके पीछे भी कोई सच होता है .
मंगलवार, अगस्त 17, 2010
इस कंकाल का रहस्य क्या है ?


यह बात गौर करके देखें कि जिस समय अनुलोम विलोम क्रिया और ध्यान एकाग्रता से मन विचारशून्य हो जाता है । उस समय ये आकृति दिखाई देनी बन्द हो जाती है । त्राटक के अच्छे अभ्यासियों को भी ये दिखाई नहीं देगी । तो अब आप कई बार ये प्रयोग करके देखना । ये आपकी मानसिक स्थित का एकदम सही पता बताती है । इसको बार बार देखने से योग की अच्छी स्थिति बनती है । और बहुत से फ़ालतू विचार नष्ट हो जाते हैं । इसको बार बार देखने से कई रोग भी ठीक हो जाते हैं । और मन बडी तेजी से साफ़ होकर नियन्त्रण में होने लगता है । न मानों तो करके देखना । अगर पहले आपने कभी नहीं किया । तो शुरूआत में कालापन अधिक दिखाई देगा । और इसको प्रतिदिन देखते रहने पर उसमें सफ़ेदी की मात्रा बडती जायेगी । और तब आप एक अजीव सी फ़ुर्ती और उत्साह अनुभव करेंगे । ज्यों ज्यों आप इसको देखते जायेंगे । इसके कई रहस्य खुलते जायेंगे । हालांकि अलौकिक ग्यान के रहस्य में यह कोई बडी तोप नहीं है । पर जो कुछ नहीं जानते । उनके लिये बहुत है । दूसरे ये तीन काम खास करती है । चिडचिडापन और अवसाद हटाना । दूसरा कुम्भ स्नान की तरह आपके मन से पाप धोना या मन को शुद्ध करना ।तीसरा सभी बीमारियां या वासनायें मन के विकार के कारण हीं होती हैं । इसलिये ये क्रिया आश्चर्यजनक रूप से फ़ायदा करती है ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
मन को देखना ...?


वास्तविक एकादशी इसी को कहते है । वास्तविक दशरथ होना इसी को कहते हैं । राम राम सब कोय कहे । दशरथ कहे न कोय । एक बार दशरथ कहो । फ़ेर मरन न होय । एकादशी यानी पांच कर्म और पांच ग्यानइन्द्रियों को एक करके प्रभु में लगा देना । दशरथ । मन राजा जो इन्द्रियों के रथ पर सवार होकर दसों दिशाओं में दौडता रहता है । उसे समेटकर एकाग्र और निश्चल अवस्था से प्रभु में लगा देना । एक बार दशरथ कहना होता है । संत मन होने पर इसमें जीव वासना रूपी कालिख मिट जाती है । और ये दिव्यता युक्त हो जाता है । परमहंस जो संत से ऊंची स्थिति है । इसमें मन खत्म हो जाता है । हंसा परमहंस जब हुय जावे । पारब्रह्म परमात्मा साफ़ साफ़ दिखलावे । इसके बाद की जो ऊंची स्थिति है । वह गोपनीय है । पारब्रह्म ही ईश्वर से ऊंची स्थिति है । हिरण्यगर्भ । ईश्वर और विराट ये तीन मुख्य स्थितियां होती हैं । जो समस्त ऐश्वर्य से युक्त हो उसको ईश्वर कहतें हैं ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
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मंगलवार, अगस्त 10, 2010
आओ मेरी नैया में । मैं ले चलूं भव से पार ।

इस नैया में जो चढ जायेगा ।
जन्म जन्म के पापों से मुक्ति को मिल जायेगा ।कटे चौरासी बंधन । पडे न समय की मार । राम नाम की नैया लेकर । सदगुरु करे पुकार ।पाप गठरिया शीश धरी कैसे आऊं में ।अपने ही अवगुण से खुद शरमाऊं में । नैया तेरी सांची गुरुवर । मेरे पाप हजार । राम नाम की नैया लेकर । सदगुरु करे पुकार । जीवन अपना सौंप दे मेरे हाथों में ।
स्वांस स्वांस को पोत ले मेरी यादों में ।
पाप पुन्य का बनकर । मैं आया ठेकेदार ।
राम नाम की नैया लेकर । सदगुरु करे पुकार ।करके दया सतगुरु ने चदरिया रंग डाली ।
जन्म जन्म की मैली चादर धो डाली ।
दाग भरी थी मेरी चदरिया । कर दी लाल ही लाल ।राम नाम की नैया लेकर । सदगुरु करे पुकार । बडे भाग से सदगुरु जी का ग्यान मिला । मुझ दुख हारी को जीने का आधार मिला । जलने लगी थी । बीच भंवर । आगे खेवनहार । राम नाम की नैया लेकर । सदगुरु करे पुकार । आओ मेरी नैया में । मैं ले चलूं भव से पार ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
घर बार छोडकर मैं । फ़िरता बेचारा हूं ।

मैं शरण पडा तेरी चरणों में जगह देना ।
तुम सुख के सागर हो । निर्बल के सहारे हो ।
नैनों में समाये हो । मुझे प्राण से प्यारे हो ।
नित माला जपूं तेरी । नहीं दिल से भुला देना ।
गुरुदेव दया करके मुझको अपना लेना ।
मैं शरण पडा तेरी चरणों में जगह देना ।
पापी हूं या कपटी हूं । जैसा भी हूं तेरा हूं ।
घर बार छोडकर मैं । फ़िरता बेचारा हूं ।
मैं दुख का मारा हूं । मेरे दुखडे मिटा देना ।
गुरुदेव दया करके मुझको अपना लेना ।
मैं शरण पडा तेरी चरणों में जगह देना ।
मैं तेरा सेवक हूं चरणों का चेला हूं ।
नहीं नाथ भुलाना मुझे । इस जग में अकेला हूं ।
तेरे दर का भिखारी हूं । मेरे दोष मिटा देना ।
गुरुदेव दया करके मुझको अपना लेना ।
मैं शरण पडा तेरी चरणों में जगह देना ।
करुणानिधि नाम तेरा । करुणा दिखलाओ ।
तुम सोये हुये भाग्यों को । हे नाथ जगाओ ।
मेरी नाव भंवर डोले । इसे पार लगा देना ।
गुरुदेव दया करके मुझको अपना लेना ।
मैं शरण पडा तेरी चरणों में जगह देना ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
चाहे दुश्मन हों हजार । मुझे डर किसका है ।

मुझे मिला सतगुरु का प्यार मुझे डर किसका है ।
दिन रात आनन्द मनाय रही । मैं गीत प्रभु के गाय रही ।
चाहे कुछ भी कहे संसार मुझे डर किसका है ।
मुझे मिला सतगुरु का प्यार मुझे डर किसका है ।
कष्टों में उमर बितायी थी । दुष्टों ने बहुत सतायी थी ।
मैं अब न सहूंगी मार मुझे डर किसका है ।
मुझे मिला सतगुरु का प्यार मुझे डर किसका है ।
मुझे भक्ति बहुत ही प्यारी है । मेरे रक्षक सतगुरु प्यारे हैं ।
चाहे दुश्मन हों हजार । मुझे डर किसका है ।
मुझे मिला सतगुरु का प्यार मुझे डर किसका है ।
एक प्रभु की प्रेम दीवानी हूं । जिन रमझ गुरु की जानी हूं ।
गुरु कर दो बेडा पार । अब डर किसका है ।
मुझे मिला सतगुरु का प्यार मुझे डर किसका है ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "
" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
हरि ओम बोलो । हरि ओम बोलो ।

जब से गुरु का नाम लिया है । गिरतों को गुरु ने थाम लिया है । सतगुरु ही मेरा सहारा है । मुझे भव से पार उतारा है । हरि ओम बोलो ।
ये गुरु जो तारनहार हुये । ये कलयुग के अवतार हुये । सारा जग माने सदगुरु को ।सदगुरु को । मेरे सदगुरु को ।
हरि ओम बोलो । हरि ओम बोलो ।
जो प्रेम गुरु से करते हैं । वो भव सागर से तरते हैं । हो उसका बेडा पार सदा । जो गुरु से करते प्यार सदा ।
हरि ओम बोलो । हरि ओम बोलो ।
आंगन में बहारें फ़ूलों की । पावन चरणों की धूलों की । यहां स्वर्गीय हवायें चलती हैं । जो नित नित पावन करती हैं ।
हरि ओम बोलो । हरि ओम बोलो ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
आते तेरे द्वार सतगुरु । एक तुम्ही आधार सतगुरु ।

जब तक मिलो न तुम जीवन में । शांति कहां मिल सकती मन में ।
खोज फ़िरा संसार सतगुरु । एक तुम्ही आधार सतगुरु ।
कैसा भी हो तैरनहारा । मिले न जब तक शरण तुम्हारा ।
हो न सका उस पार सतगुरु । एक तुम्ही आधार सतगुरु ।
हे प्रभु तुम्ही विविध रूपों में । हमें बचाते भवकूपों में ।
ऐसे परम उदार सतगुरु । एक तुम्ही आधार सतगुरु ।
हम आये हैं द्वार तुम्हारे । दुख उद्धार करो दुख हारे ।
सुन लो दास पुकार सतगुरु । एक तुम्ही आधार सतगुरु ।
छा जाता जग में अंधियारा । तब पाने प्रकाश की धारा । आते तेरे द्वार सतगुरु । एक तुम्ही आधार सतगुरु ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
तू है अकाल तुझको । नही काल का डर है ।

ये ग्यान का मंदिर । मेरे गुरुदेव का घर है ।
तू है अकाल तुझको । नही काल का डर है ।
तू है अकाल तुझको । नही काल का डर है ।
आवागमन चक्र जो दुनियां में चल रहा ।
हर जीव जन्म मृत्यु की ज्वाला में जल रहा ।
इस जीव का इस चक्र में । चलता हुनर है ।
ये ग्यान का मंदिर । मेरे गुरुदेव का घर है ।
अब दुख से निकलने का कोई रास्ता नहीं ।
सतगुरु के सिवा अन्य कहीं आस्था नहीं ।
पड जाय वो जिस पर । दाता की नजर है ।
ये ग्यान का मंदिर । मेरे गुरुदेव का घर है ।
श्रद्धा ही से तो । वो तेरा राम मिलेगा ।
अंतस में ही अखण्ड परमधाम मिलेगा ।
इस द्वार में माया का नहीं कोई असर है ।
ये ग्यान का मंदिर । मेरे गुरुदेव का घर है ।
जीवन में महामुक्ति का परिणाम पा लिया ।
परिपूर्ण परमानन्दमय विश्राम पा लिया ।
तू है जीवात्म ब्रह्म । जो व्यापक अमर है ।ये ग्यान का मंदिर । मेरे गुरुदेव का घर है ।तू है अकाल तुझको । नही काल का डर है ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
सोमवार, अगस्त 09, 2010
मैं मैं चिल्लाते हुये मनुष्य़ को कालरूपी भेडिया मार डालता है ।

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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
तो परलोक में जाकर क्या करेगा ?

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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
संसार में कोई सुखी नहीं है ।

अंश है । जो अनादि अविध्या से वैसे ही आच्छादित हैं । जैसे अग्नि में विस्फ़ुल्लिंग होते हैं । अनादि कर्मों के प्रभाव से प्राप्त शरीर आदि अनेकों उपाधियों में होने के कारण भिन्न भिन्न हो गये हैं । सुख दुख देने वाले पुन्य और पाप संग्रह का इस शरीर पर नियन्त्रण है । अपने कर्म के अनुसार ही जीव को जाति देह ( योनि ) आयु तथा भोग की प्राप्ति होती है । सूक्ष्म या लिंग शरीर के बने रहने तक ये जन्म मरण का । आवागमन का चक्र चलता ही रहता है । स्थावर ( पेड पौधे । पहाड आदि ) कृमि कीट । पशु पक्षी । मनुष्य । धार्मिक देवता और मुमुक्ष । यथाक्रम चार प्रकार के शरीरों को धारणकर हजारों बार उनका परित्याग करते हैं । यदि पुन्य कर्म के प्रभाव से उनमें से किसी को मानव योनि मिल जाय तो उसे ग्यानमार्ग अपनाकर मोक्ष प्राप्त करना चाहिये । समस्त चौरासी लाख योनियों में स्थित जीवात्माओं को इसी एक मात्र मानव योनि में तत्वग्यान का लाभ होकर मोक्ष मिल सकता है । इस मृत्युलोक में हजारों नहीं बल्कि करोडों बार जन्म लेने पर जीव को कभी कभी ही पूर्व संचित पुन्य के प्रभाव से मानव योनि प्राप्त होती है । यह मानव योनि मोक्ष की सीडी है । इस देवताओं को भी दुर्लभ योनि को प्राप्त कर जो प्राणी स्वयं अपना उद्धार नहीं करता । उससे बडकर पापी कोई नहीं हो सकता । अन्य योनियों की अपेक्षा सुन्दर इन्द्रियों वाले इस जन्म का लाभ लेकर जो मनुष्य आत्मा का हित नहीं सोचता । वह आत्मघाती के समान है । कोई भी पुरुषार्थ शरीर के बिना सम्भव नहीं है । इसलिये शरीर रूपी धन की जतन से रक्षा करते हुये पुन्य कर्म और ग्यान लाभ करना चाहिये । आत्मा ही सबका पात्र है । इसलिये उसकी रक्षा में मनुष्य हमेशा तत्पर रहे । जो व्यक्ति आजीवन आत्मा के प्रति सचेष्ट रहता है । वह जीवित ही । इसी जन्म में अपना कल्याण होते देखता है । मनुष्य को ग्राम क्षेत्र धन घर शुभ अशुभ कर्म और शरीर बार बार प्राप्त नहीं होते । अतः विद्वान ये जानकर जतन से शरीर की रक्षा करते हैं । कोढ आदि जैसे महा भयंकर रोग हो जाने पर भी मनुष्य इस शरीर को नही छोडना चाहता । नाम जपत ( ढाई अक्षर का महामन्त्र ) कोढी भला । कंचन भली न देह ) इसलिये शरीर की रक्षा धर्म के लिये । धर्म की रक्षा ग्यान के लिये । और ग्यान की रक्षा ध्यान योग के लिये । ध्यान योग की रक्षा तत्काल इसी जीवन में मुक्ति प्राप्त हेतु जतन से करनी चाहिये । यदि आत्मा ही अहितकारी कर्म से अपने को दूर करने में समर्थ नहीं हो सकता । तो अन्य दूसरा कौन हितकारी है ? जो आत्मा को सुख प्रदान करेगा ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
शुक्रवार, अगस्त 06, 2010
राजा प्रियवृत का वंश वर्णन

यानी पूर्व जन्म की याद रखने वाले थे । इन लोगों ने राज्य के प्रति कोई रुचि प्रकट नहीं की । अतः प्रियवृत ने सप्तदीपा प्रथ्वी को अपने अन्य सात पुत्रों में विभक्त कर दिया । पचास करोड योजन में विस्त्रत ( एक योजन में चार कोस या बारह किलोमीटर होते है । ) पूरी प्रथ्वी नदी में तैरती हुयी नाव के समान । चारों और अवस्थित अथाह जल के ऊपर स्थित है । इसमें जम्बू । प्लक्ष । शाल्मल । कुश । क्रौंच । शाक । पुष्कर
ये सात दीप हैं । जो सात समुद्रों से घिरे हुये हैं । इन सात समुद्रों के नाम । लवण । इक्षु । सुरा । घृत । दधि । दुग्ध और जल सागर हैं । ये सभी दीप तथा समुद्र इस क्रम में एक दूसरे से दुगने परिमाण में अवस्थित हैं । जम्बू दीप में मेरु नामक पर्वत है । जो एक लाख योजन में फ़ैला हुआ है । इसकी ऊंचाई चौरासी हजार योजन है । ये प्रथ्वी में सौलह हजार योजन धंसा हुआ है । और शिखर बत्तीस हजार योजन फ़ैला हुआ है । इसका अधोभाग जो प्रथ्वी के ऊपर सन्निहित है । वह भी सोलह हजार योजन के विस्तार में कर्णिका के रूप में अवस्थित है । इसके दक्षिण में हिमालय । हेमकूट । तथा निषध । उत्तर में नील । श्वेत और श्रंगी नामक वर्ष पर्वत हैं । प्लक्ष आदि दीपों के निवासी मरण धर्म से मुक्त हैं । उनमें युग और अवस्था के आधार पर विषमता नहीं होती । जम्बू दीप के राजा आग्नीध के नौ पुत्र हुये । उनके नाम । नाभि । किम्पुरुष । हरिवर्ष । इलावृत । रम्य । हिरण्यमय । कुरु । भद्राश्व । केतुमाल थे । राजा आग्नीध ने उन सब पुत्रों को उनके नाम से प्रसिद्ध भूखण्ड दिया । राजा नाभि और उनकी पत्नी मेरुदेवी से ऋषभ नाम का पुत्र हुआ । उनसे भरत हुये । भरत का पुत्र सुमति हुआ । सुमति के तेजस नाम के पुत्र हुये । तेजस के इन्द्रधुम्न । इन्द्रधुम्न के परमेष्ठी । परमेष्ठी के प्रतीहार । प्रतीहार के प्रतिहर्ता । प्रतिहर्ता के प्रस्तार । प्रस्तार के विभु । विभु के नक्त । नक्त के गय । गय का नर । नर से विराट । विराट से धीमान । धीमान से भौवन । भौवन से त्वष्टा । त्वष्टा के विरजा । विरजा के रज । रज के शतजित । शतजित के विष्वग्ज्योति नामक पुत्र हुआ
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
गुरुवार, जुलाई 15, 2010
हमारी बेङियाँ....?

श्री महाराज जी कहते हैं । इसी तरह संसार में विभिन्न आपदाओं की बाङ आयी हुयी है । जिनमें फ़ँसकर जीव त्राहि त्राहि कर रहा है । ये अग्यान से भ्रमित और माया से मोहित जीव प्रतिक्षण काल के गाल में जा रहा है । संतजन अपनी ग्यानरूपी नौका में बँधी रस्सी पकङाकर इस कठिन दारुण भवसागर से उबारने में उसकी मदद करते हैं । अन्यथा ये दिन प्रतिदिन तेजी से मृत्यु के मुख में जा रहा है । और मनसुख लाला जैसे लोग खुद भी डूबते हैं और दूसरों को भी डुबोते हैं । परहित सरस धर्म नहीं भाई । परपीङा सम नहीं अधिकाई ।
* एक अजीव शहर था । हर शहर की तरह यहाँ पर पर भी अमीर । मध्यम और गरीब लोग रहते थे । अजीव इसलिये था । कि लोगों ने अपनी हैसियत के अनुसार शोभा मानते हुये । अमीर लोगों ने हाथ पैरों में सोने की बेङियाँ । मध्यम लोगों ने चाँदी की बेङियाँ और निम्न या गरीब लोगों ने लोहे की बेङियाँ अपनी मर्जी से ही धारण कर रखी थी । हाँलाकि वे इससे बहुत कष्ट पाते थे पर फ़िर भी अपने मन में आनन्दित महसूस करते थे । एक दिन ऐसा हुआ कि घूमते घूमते एक ग्यानी उनके शहर में आ पहुँचा । उसने देखा कि कितने अजीब लोग हैं । अपने लिये कष्ट का इंतजाम खुद ही कर रखा है । उसने इन्हें सही रास्ता दिखाने की सोची । उसने एक समझदार आदमी को चुना और एकांत में ले जाकर बोला । जिन बेङियों से तुम शोभा और जूठा आनन्द महसूस करते हो । येवास्तव में कष्टदायक है । इनके कटते ही तुम असली आनन्द को जानोगे । वह आदमी क्योंकि विचारशील था । उसने देखा कि ये कहने वाले के शरीर पर एक भी बेङी नही थी । उसने कहा कि ठीक है । पहले तुम मेरे हाथों की बेङी काटो । तब देखता हूँ कि तुम्हारी बात में कितनी सत्यता है । ग्यानी एक पत्थर पर हाथ रखकर उसकी छेनी हथोङे से बेङियाँ काटने लगा । इससे उस आदमी को कुछ चोट भी लगी । और कष्ट भी हुआ । वह क्रोधित होकर बोला । तुम तो कहते थे । कि बेङियाँ कटने से आनन्द होगा । पर मुझे तो भयंकर परेशानी हो रही है । ग्यानी ने कहा । कुछ देर ठहरो । तुम्हारी बेङियाँ काफ़ी पुरानी हो चुकी हैं । और तुम्हारा शरीर भी उसी अनुसार ढल चुका है । इसलिये परेशानी हो रही है । खैर । थोङी तकलीफ़ हुयी । उसके बाद एक हाथ की बेङी कट गयी । ग्यानी ने कहा । कि अब तुम मुक्त रूप से इस हाथ को मेरी तरह घुमा फ़िराकर देखो । उस आदमी ने वैसा ही किया । पर क्योंकि काफ़ी समय बाद बेङी मुक्त हुआ था । शुरु में उसको हाथ को घुमाने में तकलीफ़ महसूस हुयी । मगर थोङी ही देर में आनन्द आने लगा । वह बोला शीघ्रता से तुम मेरी सारी बेङियाँ काट दो । बेङी से मुक्त होने में तो वाकई आनन्द है । अन्य बेङियाँ कटने में भी थोङी परेशानी हुयी । पर उस आदमी को अब अनुभव हो चुका था कि बेङी कटने में परेशानी होती ही है । लेकिन पूरी बेङियाँ कटते ही वह एक नया आनन्द महसूस करने लगा । उसने आनन्दित होकर कहा कि आप बहुत अच्छे हैं । आपने मुझे नया आनन्द और मुक्त अवस्था दी है । कृपया मेरे पूरे घर की बेङियाँ काट दो । ग्यानी ने कहा कि ये तुम्हारी गलतफ़हमी हैं । कोई भी बेङियों से मुक्त नहीं होना चाहता । वे उसी अवस्था में सुख ( मगर झूठा ) मानते हैं । आदमी ने कहा । ऐसा कैसे हो सकता है । मैं उनको जाकर अपना हाल बताऊँगा । इस पर ग्यानी सिर्फ़ मुस्कराया । वह आदमी दौङकर अपने घर पहुँचा और बोला कि मुक्त होने में आनन्द है । हमारे यहाँ एक बेङी काटने वाला आया है । तुम सव शीघ्रता से बेङियाँ कटवा लो । और मेरी तरह आनन्द महसूस करो । इस पर अधिकांश लोगों ने उसे झिङक दिया । मूर्ख है तू । अब तेरे में कोई शोभा नजर नहीं आती । हमें देख हम कितने अच्छे लगते हैं । तू अपने इस ग्यानी के साथ अन्यत्र चला जा । ग्यानी मुक्त आदमी को देखकर मुस्कराया ?
* वास्तव में संसार काम । क्रोध । लोभ । मोह । तेरा । मेरा । अमीर । गरीब । ऊँच । नीच आदि हजारों विकार बेङियों से बँधा हुआ है । सोचो ये बेङियाँ किसने डालीं हैं ? खुद हमने । आवरण पर आवरण चङाते हुये हम अपने ही जाल में फ़ँसते चले जा रहे हैं । और अगर कोई हमें रास्ता दिखाने का प्रयास करता है । तो हम उसका उपहास करते हैं । हेय दृष्टि से देखते हैं । नंगा आने वाला । नंगा जाने वाला । इंसान जाने किस बात पर गर्वित है ? कौन सी ऐसी सम्पदा है । जो तुम्हारे लिये स्थायी है । अगर तुम पूरे विश्व के राजा भी हो जाओ । तो भी उतना ही उपयोग कर सकोगे । जितना कि तुम्हारे लिये तय है । धन । यौवन ।स्त्री । पुत्र । परिवार । हाथी । घोङे कितने ही जतन से संभालो । एक दिन सब मिट्टी में मिल जाना है । पुराने राजाओं के मजबूत किले आज भी खङें हैं । पर कहाँ है । वे राजा ? और कहाँ हैं । उनके वारिस ? आदमी अपनी सात । सत्तर पीङियों का इंतजाम करता है । और अंत में झूठे अहम में नरक में जाता है । पालने वाला भगवान है या आप ? क्या आप अपने परिजनों का भाग्य बदल सकते हैं ? हरगिज नहीं । तो फ़िर झूठी दौलत कमाने के स्थान पर स्थायी आराम देने वाले ग्यान को पकङों । कोई ना काहू सुख दुख कर दाता । निज कर कर्म भोग सब भ्राता । * सदा न रहेगा जमाना किसी का । नही चाहिये दिल दुखाना किसी का । आयेगा बुलाबा तो जाना पङेगा । आखिर में सर को झुकाना पङेगा । वहाँ न चलेगा बहाना किसी का ।नही चाहिये दिल दुखाना किसी का । शौक तुम्हारी रह जायेगी । दौलत तुम्हारी रह जायेगी । नही साथ जाता खजाना किसी का । नही चाहिये दिल दुखाना किसी का । पहले तो अपने आप को संभालो । नहीं है बुराई औरों में निकालो । बुरा है । बुरा जग में बताना किसी को । नही चाहिये दिल दुखाना किसी का । ये तो जहाँ में लगा ही रहेगा । आना किसी का । और जाना किसी का । नही चाहिये दिल दुखाना किसी का । सदा न रहेगा जमाना किसी का ।
सदा न रहेगा जमाना किसी का । नही चाहिये दिल दुखाना किसी का ।
* एक अजीव शहर था । हर शहर की तरह यहाँ पर पर भी अमीर । मध्यम और गरीब लोग रहते थे । अजीव इसलिये था । कि लोगों ने अपनी हैसियत के अनुसार शोभा मानते हुये । अमीर लोगों ने हाथ पैरों में सोने की बेङियाँ । मध्यम लोगों ने चाँदी की बेङियाँ और निम्न या गरीब लोगों ने लोहे की बेङियाँ अपनी मर्जी से ही धारण कर रखी थी । हाँलाकि वे इससे बहुत कष्ट पाते थे पर फ़िर भी अपने मन में आनन्दित महसूस करते थे । एक दिन ऐसा हुआ कि घूमते घूमते एक ग्यानी उनके शहर में आ पहुँचा । उसने देखा कि कितने अजीब लोग हैं । अपने लिये कष्ट का इंतजाम खुद ही कर रखा है । उसने इन्हें सही रास्ता दिखाने की सोची । उसने एक समझदार आदमी को चुना और एकांत में ले जाकर बोला । जिन बेङियों से तुम शोभा और जूठा आनन्द महसूस करते हो । येवास्तव में कष्टदायक है । इनके कटते ही तुम असली आनन्द को जानोगे । वह आदमी क्योंकि विचारशील था । उसने देखा कि ये कहने वाले के शरीर पर एक भी बेङी नही थी । उसने कहा कि ठीक है । पहले तुम मेरे हाथों की बेङी काटो । तब देखता हूँ कि तुम्हारी बात में कितनी सत्यता है । ग्यानी एक पत्थर पर हाथ रखकर उसकी छेनी हथोङे से बेङियाँ काटने लगा । इससे उस आदमी को कुछ चोट भी लगी । और कष्ट भी हुआ । वह क्रोधित होकर बोला । तुम तो कहते थे । कि बेङियाँ कटने से आनन्द होगा । पर मुझे तो भयंकर परेशानी हो रही है । ग्यानी ने कहा । कुछ देर ठहरो । तुम्हारी बेङियाँ काफ़ी पुरानी हो चुकी हैं । और तुम्हारा शरीर भी उसी अनुसार ढल चुका है । इसलिये परेशानी हो रही है । खैर । थोङी तकलीफ़ हुयी । उसके बाद एक हाथ की बेङी कट गयी । ग्यानी ने कहा । कि अब तुम मुक्त रूप से इस हाथ को मेरी तरह घुमा फ़िराकर देखो । उस आदमी ने वैसा ही किया । पर क्योंकि काफ़ी समय बाद बेङी मुक्त हुआ था । शुरु में उसको हाथ को घुमाने में तकलीफ़ महसूस हुयी । मगर थोङी ही देर में आनन्द आने लगा । वह बोला शीघ्रता से तुम मेरी सारी बेङियाँ काट दो । बेङी से मुक्त होने में तो वाकई आनन्द है । अन्य बेङियाँ कटने में भी थोङी परेशानी हुयी । पर उस आदमी को अब अनुभव हो चुका था कि बेङी कटने में परेशानी होती ही है । लेकिन पूरी बेङियाँ कटते ही वह एक नया आनन्द महसूस करने लगा । उसने आनन्दित होकर कहा कि आप बहुत अच्छे हैं । आपने मुझे नया आनन्द और मुक्त अवस्था दी है । कृपया मेरे पूरे घर की बेङियाँ काट दो । ग्यानी ने कहा कि ये तुम्हारी गलतफ़हमी हैं । कोई भी बेङियों से मुक्त नहीं होना चाहता । वे उसी अवस्था में सुख ( मगर झूठा ) मानते हैं । आदमी ने कहा । ऐसा कैसे हो सकता है । मैं उनको जाकर अपना हाल बताऊँगा । इस पर ग्यानी सिर्फ़ मुस्कराया । वह आदमी दौङकर अपने घर पहुँचा और बोला कि मुक्त होने में आनन्द है । हमारे यहाँ एक बेङी काटने वाला आया है । तुम सव शीघ्रता से बेङियाँ कटवा लो । और मेरी तरह आनन्द महसूस करो । इस पर अधिकांश लोगों ने उसे झिङक दिया । मूर्ख है तू । अब तेरे में कोई शोभा नजर नहीं आती । हमें देख हम कितने अच्छे लगते हैं । तू अपने इस ग्यानी के साथ अन्यत्र चला जा । ग्यानी मुक्त आदमी को देखकर मुस्कराया ?
* वास्तव में संसार काम । क्रोध । लोभ । मोह । तेरा । मेरा । अमीर । गरीब । ऊँच । नीच आदि हजारों विकार बेङियों से बँधा हुआ है । सोचो ये बेङियाँ किसने डालीं हैं ? खुद हमने । आवरण पर आवरण चङाते हुये हम अपने ही जाल में फ़ँसते चले जा रहे हैं । और अगर कोई हमें रास्ता दिखाने का प्रयास करता है । तो हम उसका उपहास करते हैं । हेय दृष्टि से देखते हैं । नंगा आने वाला । नंगा जाने वाला । इंसान जाने किस बात पर गर्वित है ? कौन सी ऐसी सम्पदा है । जो तुम्हारे लिये स्थायी है । अगर तुम पूरे विश्व के राजा भी हो जाओ । तो भी उतना ही उपयोग कर सकोगे । जितना कि तुम्हारे लिये तय है । धन । यौवन ।स्त्री । पुत्र । परिवार । हाथी । घोङे कितने ही जतन से संभालो । एक दिन सब मिट्टी में मिल जाना है । पुराने राजाओं के मजबूत किले आज भी खङें हैं । पर कहाँ है । वे राजा ? और कहाँ हैं । उनके वारिस ? आदमी अपनी सात । सत्तर पीङियों का इंतजाम करता है । और अंत में झूठे अहम में नरक में जाता है । पालने वाला भगवान है या आप ? क्या आप अपने परिजनों का भाग्य बदल सकते हैं ? हरगिज नहीं । तो फ़िर झूठी दौलत कमाने के स्थान पर स्थायी आराम देने वाले ग्यान को पकङों । कोई ना काहू सुख दुख कर दाता । निज कर कर्म भोग सब भ्राता । * सदा न रहेगा जमाना किसी का । नही चाहिये दिल दुखाना किसी का । आयेगा बुलाबा तो जाना पङेगा । आखिर में सर को झुकाना पङेगा । वहाँ न चलेगा बहाना किसी का ।नही चाहिये दिल दुखाना किसी का । शौक तुम्हारी रह जायेगी । दौलत तुम्हारी रह जायेगी । नही साथ जाता खजाना किसी का । नही चाहिये दिल दुखाना किसी का । पहले तो अपने आप को संभालो । नहीं है बुराई औरों में निकालो । बुरा है । बुरा जग में बताना किसी को । नही चाहिये दिल दुखाना किसी का । ये तो जहाँ में लगा ही रहेगा । आना किसी का । और जाना किसी का । नही चाहिये दिल दुखाना किसी का । सदा न रहेगा जमाना किसी का ।
सदा न रहेगा जमाना किसी का । नही चाहिये दिल दुखाना किसी का ।
गुरुपूर्णिमा उत्सव पर आप सभी सादर आमन्त्रित हैं ।
से ग्रसित श्रद्धालु भक्तों को ग्यान अमृत का पान कराया जायेगा । यह जीवात्मा सनातन काल से जनम मरण की चक्की में पिसता हुआ धक्के खा रहा है व जघन्य यातनाओं से त्रस्त एवं बैचेन है । जिसे उद्धार करने एवं अमृत पिलाकर सदगुरुदेव यातनाओं से अपनी कृपा से मुक्ति करा देते हैं ।
अतः ऐसे सुअवसर को न भूलें एवं अपनी आत्मा का उद्धार करें । सदगुरुदेव का कहना है । कि मनुष्य यदि पूरी तरह से ग्यान भक्ति के प्रति समर्पण हो । तो आत्मा को परमात्मा को जानने में सदगुरु की कृपा से पन्द्रह मिनट का समय लगता है । इसलिये ऐसे पुनीत अवसर का लाभ उठाकर आत्मा की अमरता प्राप्त करें ।
नोट-- यह आयोजन 25-07-2010 को उवाली ( करहल ) में होगा । जिसमें दो दिन पूर्व से ही दूर दूर से पधारने वाले संत आत्म ग्यान पर सतसंग करेंगे ।
विनीत -
राजीव कुलश्रेष्ठ । आगरा । पंकज अग्रवाल । मैंनपुरी । पंकज कुलश्रेष्ठ । आगरा । अजब सिंह परमार । जगनेर ( आगरा ) । राधारमण गौतम । आगरा । फ़ौरन सिंह । आगरा । रामप्रकाश राठौर । कुसुमाखेङा । भूरे बाबा उर्फ़ पागलानन्द बाबा । करहल । चेतनदास । न . जंगी मैंनपुरी । विजयदास । मैंनपुरी । बालकृष्ण श्रीवास्तव । आगरा । संजय कुलश्रेष्ठ । आगरा । रामसेवक कुलश्रेष्ठ । आगरा । चरन सिंह यादव । उवाली ( मैंनपुरी । उदयवीर सिंह यादव । उवाली ( मैंनपुरी । मुकेश यादव । उवाली । मैंनपुरी । रामवीर सिंह यादव । बुझिया का पुल । करहल । सत्यवीर सिंह यादव । बुझिया का पुल । करहल । कायम सिंह । रमेश चन्द्र । नेत्रपाल सिंह । अशोक कुमार । सरवीर सिंह ।
शनिवार, जुलाई 10, 2010
काल पुरुष..
संतुष्ट नहीं हुआ । और फ़िर से एक पैर पर खङे होकर तपस्या करने लगा । और पूर्ववत ही उसने फ़िर सत्तर युगों तक तपस्या की । तब उसकी तपस्या से सतपुरुष ने उसे तीनों लोक और शून्य का राज्य दे दिया । यानी प्रथ्वी । स्वर्ग । पाताल । और शून्यसत्ता का निर्माण हो गया । ये राज्य सात दीप नवखन्ड में फ़ैला था । यही वो समय या स्थिति थी । जिसको big bang theory कहा जाता है । पर बैग्यानिक जो बात बताते हैं । वह मामूली सही और ज्यादातर गलत है । बिग छोङो । कोई छोटा बेंग भी नहीं हुआ । लेकिन ये प्रथ्वी आदि अस्तित्व में आ गये । और इनमें लगभग उसी तरह बदलाव होने लगा । जैसा कि बैग्यानिक अनुमान लगाते हैं । पर प्रथ्वी किसी भी प्रकार के जन जीवन से एकदम रहित थी । जीव के नाम पर एक छोटा सा कीङा भी नहीं था । वृक्ष भी नहीं थे । अमीबा भी अभी पैदा नहीं हुआ था । और इंसान के बाबा दादा यानी बन्दर या चिम्पेंजी भी नहीं थे । क्योंकि उनके खाने के लिये आम अमरूद के पेङ जो नहीं थे ( हा..हा..हा.) लेकिन इन पर जीवन हो । और उस जीवन के लिये जरूरी
अनुकूलता हो । उसके लिये वायुमंडल आदि में धीरे धीरे वैसे ही परिवर्तन आ रहे थे । जैसा कि बैग्यानिक अनुमान लगाते हैं । काल निरंजन इस सबसे बेफ़िक्र फ़िर तपस्या में जुट गया । और पुनः सत्तर युग तक तपस्या की । दरअसल उसको अपने राज्य के लिये कुछ ऐसी चीजों की आवश्यकता थी । जिससे उसकी इच्छानुसार सृष्टि का निर्माण हो सके । तब सतपुरुष ने उसकी इच्छा जानकर सृष्टि निर्माण के अगले चरण हेतु अपने प्रिय अंश कूर्म को सृष्टि के लिये आवश्यक सामान के साथ भेजा ।
ये सामान कूर्म के उदर में था । कूर्म अति सज्जन स्वभाव के थे । जबकि काल निरंजन तीव्र स्वभाव का था । वह कूर्म को खाली हाथ देखकर चिङ गया । और उन पर प्रहार किया । इस प्रहार से कूर्म का पेट फ़ट गया और उनके उदर से सर्वप्रथम पवन निकले । शीस से तीन गुण सत रज तम निकले । पाँच तत्व । सूर्य चन्द्रमा तारे आदि निकले । यानी तीन लोक और शून्य की सत्ता में सृष्टि की कार्यवाही आगे बङने लगी । वायु सूर्य चन्द्रमा और पाँच तत्व एक्टिव होकर कार्य करने लगे । और प्रथ्वी आदि स्थानों पर जीवन के लिये परिस्थितियाँ तैयार होने लगी । परन्तु प्रथ्वी पर अभी भी किसी प्रकार का जीवन नहीं था । क्योंकि " अमीबा भगवान " का अवतार नहीं हुआ था और पेङ भी अभी नहीं थे । जो बन्दर मामा जी पहुँच जाते । ( हा ..हा..हा.।) खैर । चिन्ता न करें । जब इतना इंतजाम हो गया । तो आगे भी भगवान सुनेगा । देने वाले श्री भगवान । अब इस सूने राज्य से काल निरंजन का भला क्या भला होता । वह बेकरारी से उस चीज के इंतजार में था । जो सृष्टि के लिये परम आवश्यक थी ?
क्या थी ये चीज ?
लिहाजा काल निरंजन फ़िर से तपस्या करने लगा । और युगों तक तपस्या करता रहा । उधर सृष्टि स्वतः सूर्य जल वायु आदि की क्रिया से अनुकूलता की और तेजी से बङ रही थी । क्योंकि प्रदूषण फ़ैलाने वाले अमेरिका और उसके दोस्तों का जन्म नहीं हुआ था । खैर साहब । अबकी बार सतपुरुष ने काल निरंजन की इच्छा जानकर अष्टांगी कन्या यानी आध्या शक्ति को उसके पास जीव बीज " सोहंग " को लेकर भेजा । यही वो चीज थी । जिसका निरंजन को बेकरारी से इंतजार था । लेकिन ये निरंजन अजीव स्वभाव का था । अष्टांगी ने इसको भैया का सम्बोधन
किया । और सतपुरुष की भेंट बताने ही वाली थी । कि ये उसको खा गया । तब उस स्त्री ने जो उस समय एक मात्र " एक " ही थी । उसके उदर के अन्दर से सतपुरुष का ध्यान किया । और सतपुरुष के आदेश से उनका ध्यानकर बाहर निकल आयी । अष्टांगी ने जीव बीज निरंजन को सोंप दिया । काल निरंजन में उस सुन्दर अष्टांगी कन्या को देखकर " काम " जाग गया । और उसने अष्टांगी से रति का प्रस्ताव किया । जिसे थोङी ना नुकुर के बाद अष्टांगी ने मान लिया । वजह दो थी । एक तो वह निरंजन से भयभीत थी । दूसरे वह स्वयं भी रति को इच्छुक हो उठी थी । दोनों वहीं लम्बे समय तक रति करते रहे । जिसके परिणाम स्वरूप । ब्रह्मा । विष्णु । शंकर । का जन्म हुआ । बस उसके कुछ समय बाद ही जब ये ब्रह्मा विष्णु शंकर बहुत छोटे बालक थे । निरंजन अष्टांगी को आगे की सृष्टि आदि
करने के बारे में बताकर । शून्य में जाकर अदृश्य हो गया । और आज तक अदृश्य है । यही निरंजन या ररंकार शक्ति राम कृष्ण के रूप में दो बङे अवतार धारण करती है । और तब इसके सहयोग में अष्टांगी सीता । राधा । के रूप में अवतार लेती है । जब ये तीनों बालक कुछ बङे हो गये तो इन चारों ने मिलकर " सृष्टि बीज " से सृष्टि का निर्माण किया । अष्टांगी ने अपने अंश से कुछ कन्यायें गुपचुप उत्पन्नकर समुद्र में छुपा दीं । जो अष्टांगी के प्लान के अनुसार नाटकीय तरीके से इन तीनों किशोरों को मिल गयीं । जिसे उन्होंने माँ के कहने से पत्नी मान लिया । ये तीन कन्यायें । सावित्री । लक्ष्मी । पार्वती थी । इस तरह सृष्टि की शुरुआत हो गयी । इस सम्बन्ध में और जानने के लिये कुछ अन्य लेख भी पढने होंगे । जो ब्लाग में प्रकाशित हो चुके हैं । " जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
बुधवार, जून 30, 2010
सांख्य और योग में समाधि लाभ

है । समाधि विशेष के अभ्यास से तत्व ग्यान को जाना जा सकता है । सांख्य के समान दूसरा ग्यान नहीं । योग के समान दूसरा बल नहीं । ऐसा पुरातन प्रमाण कहा गया है । चित्त को नाश करके योग में गति होती है । अतः चित्त को नाश करने की दो निष्ठायें कहीं जाती हैं । ये सांख्य और योग हैं । चित्त वृति के निरोध से योग और सम्यक ग्यान से सांख्य की प्राप्ति होती है । सांख्य और योग अलग अलग नहीं हैं । दोनों का फ़ल एक ही है ।
योग द्वारा अंतर्मुख होने के लिये । यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार । ये पाँच बाह्य उपाय हैं । धारणा ध्यान समाधि । ये तीन आन्तरिक उपाय हैं । सांख्य द्वारा अंतर्मुख होने के लिये पाँच बाह्य उपाय योग के ही होते हैं । योग में धारणा ध्यान समाधि किसी विषय को ध्येय बनाकर करते हैं । इसके विपरीत सांख्य में बिना ध्येय के अन्तर्मुख होते हैं । इसमें चित्त और उसकी वृतियां तीन गुणो वाली हैं । यानी गुण ही गुणों में वरत रहे हैं । इस भाव से आत्मा को चित्त से अलग करके देखते हैं । इस प्रकार वैराग द्वारा इस वइति का निरोध होने पर शुद्ध चैतन्यस्वरूप स्थित को देखते हैं ।
योग में उत्तम अधिकारियों के लिये असम्प्रग्यात समाधि लाभ के विशेष उपाय और ईश्वर प्रणिधान को इस
तरह जानें । यह ॐ की मात्राओं द्वारा उपासना है ।
वाणी से जाप--एक मात्रा वाले अकार ॐ की उपासना । इसमें स्थूल शरीर का अभिमान होता है । स्थूल शरीर से आत्मा की संग्या " विश्व " उपासक होता है । स्थूल शरीर से परमात्मा विराट है । वह उपास्य होता है ।
दूसरा " मानसिक जाप --अकार उकार दो मात्रा वाले ॐ की उपासना है । इसमें सूक्ष्म शरीर का अभिमान है ।सूक्ष्म शरीर से आत्मा की संग्या " तेजस " उपासक कही गयी है । सूक्ष्म जगत से परमात्मा हिरण्यगर्भ
उपास्य है ।
तीसरा " ध्यान ध्वनि जाप " है । अकार उकार मकार तीन मात्रा वाले ॐ की उपासना । इसमें कारण शरीर का अभिमान होता है । कारण शरीर से आत्मा की संग्या " प्राग्य " उपासक है । कारण जगत से परमात्मा " ईश्वर उपास्य है ।
( मेरे ख्याल से शास्त्रकारों से कहीं त्रुटि हुयी है । स्थूल से ईश्वर । सूक्ष्म से हिरण्यगर्भ । और कारण से विराट । ऐसा होना चाहिये । यह मत शास्त्रों के अनुसार है । संभवत टीकाकारों या मुद्रण में गलती से ऐसा हुआ हो । वैसे भी धर्म में " मतभेद " होना स्वाभाविक है । )
जब ये तीन मात्रा वाली ध्वनि सूक्ष्म होते होते निरुद्ध हो जाय । और अमात्र विराम रह जाय । तब यह कारण शरीर कारण जगत से परे शुद्ध परमात्म प्राप्ति रूप अवस्था है । जो प्राणि मात्र का ध्येय है । ( मेरे हिसाब से ऐसा कह सकते है । पर यही अंतिम सत्य नहीं है । और यही परमात्मा है । ये तो एकदम ही गलत है । यह योग की उच्च स्थित है । इससे ऊपर योग में ही तीन शरीर अन्य है । उनको प्राप्त करने के बाद परमात्मा के मार्ग पर दृष्टि जाती है । यह योगियों का मत है । संतो का नहीं ? ) सांख्य में उपरोक्त उपाय " ध्यानं निर्विषयं मनः " द्वारा है । इसके द्वारा जो वृति आये उसको दवाना होता है । अंत में सब वृतिया रुक जाने पर निरोध वृति का भी निरोध करें । यहीं स्वरूप को जानना है । योग का भक्ति का लम्बा मार्ग सुगम है । इसके विपरीत सांख्य के ग्यान का छोटा मार्ग कठिन है । " जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
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- mukta mandla
- Agra, uttar pradesh, India
- भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।