जनक उवाच - अकिंचनभवं स्वास्थं कौपीनत्वेऽपि दुर्लभम । त्यागादाने विहायास्मादहमासे यथासुखम । 13-1
जनक बोले - अकिंचन ( कुछ अपना न ) होने की सहजता केवल कौपीन पहनने पर भी मुश्किल से प्राप्त होती है । अतः त्याग और संग्रह की प्रवृत्तियों को छोड़कर सभी स्थितियों में । मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ । 1
कुत्रापि खेदः कायस्य जिह्वा कुत्रापि खेद्यते । मनः कुत्रापि तत्त्यक्त्वा पुरुषार्थे स्थितः सुखम । 13-2
शारीरिक दुःख भी कहाँ ( अर्थात नहीं ) हैं । वाणी के दुःख भी कहाँ हैं । वहाँ मन भी कहाँ है । सभी प्रयत्नों को त्याग कर सभी स्थितियों में । मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ । 2
कृतं किमपि नैव स्याद इति संचिन्त्य तत्त्वतः । यदा यत्कर्तुमायाति तत कृत्वासे यथासुखम । 13-3
किये हुए किसी भी कार्य का वस्तुतः कोई अस्तित्व नहीं है । ऐसा तत्त्व पूर्वक विचार करके जब जो भी कर्त्तव्य है । उसको करते हुए सभी स्थितियों में । मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ । 3
कर्मनैष्कर्म्यनिर्बन्धभावा देहस्थयोगिनः । संयोगायोगविरहादहमासे यथासुखम । 13-4
शरीर भाव में स्थित योगियों के लिए कर्म और अकर्म रूपी बंधनकारी भाव होते हैं । पर संयोग और वियोग की प्रवृत्तियों को छोड़कर । सभी स्थितियों में । मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ । 4
अर्थानर्थौ न मे स्थित्या गत्या न शयनेन वा । तिष्ठन गच्छन स्वपन तस्मादहमासे यथासुखम । 13-5
विश्राम । गति । शयन । बैठने । चलने और स्वप्न में वस्तुतः मेरे लाभ और हानि नहीं हैं । अतः सभी स्थितियों में । मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ । 5
स्वपतो नास्ति मे हानिः सिद्धिर्यत्नवतो न वा । नाशोल्लासौ विहायास्मदहमासे यथासुखम । 13-6
सोने में मेरी हानि नहीं है । और उद्योग । अथवा अनुद्योग में । मेरा लाभ नहीं है । अतः हर्ष और शोक की । प्रवृत्तियों को छोड़कर । सभी स्थितियों में । मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ । 6
सुखादिरूपा नियमं भावेष्वालोक्य भूरिशः । शुभाशुभे विहायास्मादहमासे यथासुखम । 13-7
सुख । दुःख आदि स्थितियों के क्रम से आने के नियम पर बार बार विचार करके । शुभ ( अच्छे ) और अशुभ ( बुरे ) की प्रवृत्तियों को छोड़कर । सभी स्थितियों में । मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ । 7
जनक बोले - अकिंचन ( कुछ अपना न ) होने की सहजता केवल कौपीन पहनने पर भी मुश्किल से प्राप्त होती है । अतः त्याग और संग्रह की प्रवृत्तियों को छोड़कर सभी स्थितियों में । मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ । 1
कुत्रापि खेदः कायस्य जिह्वा कुत्रापि खेद्यते । मनः कुत्रापि तत्त्यक्त्वा पुरुषार्थे स्थितः सुखम । 13-2
शारीरिक दुःख भी कहाँ ( अर्थात नहीं ) हैं । वाणी के दुःख भी कहाँ हैं । वहाँ मन भी कहाँ है । सभी प्रयत्नों को त्याग कर सभी स्थितियों में । मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ । 2
कृतं किमपि नैव स्याद इति संचिन्त्य तत्त्वतः । यदा यत्कर्तुमायाति तत कृत्वासे यथासुखम । 13-3
किये हुए किसी भी कार्य का वस्तुतः कोई अस्तित्व नहीं है । ऐसा तत्त्व पूर्वक विचार करके जब जो भी कर्त्तव्य है । उसको करते हुए सभी स्थितियों में । मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ । 3
कर्मनैष्कर्म्यनिर्बन्धभावा देहस्थयोगिनः । संयोगायोगविरहादहमासे यथासुखम । 13-4
शरीर भाव में स्थित योगियों के लिए कर्म और अकर्म रूपी बंधनकारी भाव होते हैं । पर संयोग और वियोग की प्रवृत्तियों को छोड़कर । सभी स्थितियों में । मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ । 4
अर्थानर्थौ न मे स्थित्या गत्या न शयनेन वा । तिष्ठन गच्छन स्वपन तस्मादहमासे यथासुखम । 13-5
विश्राम । गति । शयन । बैठने । चलने और स्वप्न में वस्तुतः मेरे लाभ और हानि नहीं हैं । अतः सभी स्थितियों में । मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ । 5
स्वपतो नास्ति मे हानिः सिद्धिर्यत्नवतो न वा । नाशोल्लासौ विहायास्मदहमासे यथासुखम । 13-6
सोने में मेरी हानि नहीं है । और उद्योग । अथवा अनुद्योग में । मेरा लाभ नहीं है । अतः हर्ष और शोक की । प्रवृत्तियों को छोड़कर । सभी स्थितियों में । मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ । 6
सुखादिरूपा नियमं भावेष्वालोक्य भूरिशः । शुभाशुभे विहायास्मादहमासे यथासुखम । 13-7
सुख । दुःख आदि स्थितियों के क्रम से आने के नियम पर बार बार विचार करके । शुभ ( अच्छे ) और अशुभ ( बुरे ) की प्रवृत्तियों को छोड़कर । सभी स्थितियों में । मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ । 7
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