कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! अब मैं तुमसे परमार्थ वर्णन करता हूँ । ग्यान को प्राप्त हुआ । ग्यान के शरणागति हुआ कोई जीव समस्त अग्यान और काल जाल को छोङे । तथा लगन लगाकर सत्यनाम का सुमरन करे । असत्य को छोङकर सत्य की चाल चले । और मन लगाकर परमार्थ मार्ग को अपनाये ।
हे धर्मदास ! एक गाय को परमार्थ गुणों की खान जानो । हे ग्यानी धर्मदास ! गाय की चाल और गुणों को समझो । गाय खेत बाग आदि में घास चरती है । जल पीती है । और अंत में दूध देती है । उसके दूध घी से देवता और मनुष्य दोनों ही तृप्त होते हैं । गाय के बच्चे दूसरों का पालन करने वाले होते हैं । उसका गोबर भी मनुष्य के बहुत काम आता है । परन्तु पाप कर्म करने वाला मनुष्य अपना जन्म यूँ ही गँवाता है ।
बाद में आयु पूरी होने पर गाय का शरीर नष्ट हो जाता है । तब उसे राक्षस के समान मनुष्य उसका शरीर का माँस लेकर खाते हैं । मरने पर भी उसके शरीर का चमढा मनुष्य के लिये बहुत सुख देने वाला होता है । हे भाई ! जन्म से लेकर मृत्यु तक गाय के शरीर में इतने गुण होते हैं ।
इसलिये गाय के समान गुण वाला होने का यह वाणी उपदेश सज्जन पुरुष गृहण करे । तो काल निरंजन जीव की कभी हानि नहीं कर सकता । मनुष्य शरीर पाकर जिसकी बुद्धि ऐसी शुद्ध हो । और उसे सदगुरु मिले । तो वह हमेशा को अमर हो जाये ।
हे धर्मदास ! परमार्थ की वाणी परमार्थ के उपदेश सुनने से कभी हानि नहीं होती । इसलिये सज्जन परमार्थ का सहारा आधार लेकर भवसागर से पार हो । दुर्लभ मनुष्य जीवन के रहते मनुष्य सार शब्द के उपदेश का परिचय और ग्यान प्राप्त करे । फ़िर परमार्थ पद को प्राप्त हो । तो वह सत्यलोक को जाये । अहंकार को मिटा दे । और निष्काम सेवा की भावना ह्रदय में लाये । जो अपने कुल बल धन ग्यान आदि का अहंकार रखता है । वह सदा दुख ही पाता है ।
यह मनुष्य ऐसा चतुर बुद्धिमान बनता है कि सदगुण और शुभ कर्म होने पर कहता है कि मैंने ऐसा किया है । और उसका पूरा श्रेय अपने ऊपर लेता है । और अवगुण द्वारा उल्टा विपरीत परिणाम हो जाने पर कहता है कि भगवान ने ऐसा कर दिया ।
यह नर अस चातुर बुधिमाना । गुण शुभ कर्म कहे हम ठाना ।
ऊँच क्रिया आपन सिर लीन्हा । औगण को बोले हरि कीन्हा ।
तब ऐसा सोचने से उसके शुभ कर्मों का नाश हो जाता है । हे धर्मदास ! सब आशाओं को छोङकर तुम निराश ( उदास विरक्त वैरागी भाव ) भाव जीवन में अपनाओ । और केवल एक सत्यनाम कमाई की ही आशा करो । और अपने किये शुभ कर्म को किसी को बताओ नहीं ।
सभी देवी देवताओं भगवान से ऊँचा सर्वोपरि गुरु पद है । उसमें सदा लगन लगाये रहो । जैसे जल में अभिन्न रूप से मछली घूमती है । वैसे ही सदगुरु के श्रीचरणों में मगन रहे । सदगुर द्वारा दिये शब्द नाम में सदा मन लगाता हुआ उसका सुमरन करे ।
जैसे मछली कभी जल को नहीं भूलती । और उससे दूर होकर तङपने लगती है । ऐसे ही चतुर शिष्य गुरु से उपदेश कर उन्हें भूले नहीं । सत्यपुरुष के सत्यनाम का प्रभाव ऐसा है कि हँस जीव फ़िर से संसार में नहीं आता ।
तुम कछुए के बच्चे की कला गुण समझो । कछवी जल से बाहर आकर रेत मिट्टी में गढ्ढा खोदकर अण्डे देती है । और अण्डो को मिट्टी से ढककर फ़िर पानी में चले जाती है । परन्तु पानी में रहते हुये भी कछवी का ध्यान निरंतर अण्डों की ओर ही लगा रहता है । वह ध्यान से ही अण्डों को सेती है । समय पूरा होने पर अण्डे पुष्ट होते हैं । और उनमें से बच्चे बाहर निकल आते हैं । तब उनकी माँ कछवी उन बच्चों को लेने पानी से बाहर नहीं आती । बच्चे स्वयँ चलकर पानी में चले जाते हैं । और अपने परिवार से मिल जाते हैं ।
हे धर्मदास ! जैसे कछुये के बच्चे अपने स्वभाव से अपने परिवार से जाकर मिल जाते हैं । वैसे ही मेरे हँस जीव अपने निज स्वभाव से अपने घर सत्यलोक की तरफ़ दौङें । उनको सत्यलोक जाते देखकर काल निरंजन के यमदूत बलहीन हो जायेंगे । तथा वे उनके पास नहीं जायेंगे । वे हँस जीव निर्भय निडर होकर गरजते और प्रसन्न होते हुये नाम का सुमरन करते हुये आनन्द पूर्वक अपने घर जाते हैं । और यमदूत निराश होकर झक मारकर रह जाते हैं ।
सत्यलोक आनन्द का धाम अनमोल और अनुपम है । वहाँ जाकर हँस परमसुख भोगते हैं । हँस से हँस मिलकर आपस में क्रीङा करते हैं । और सत्यपुरुष का दर्शन पाते हैं ।
जैसे भंवरा कमल पर बसता है । वैसे ही अपने मन को सदगुरु के श्रीचरणों में बसाओ । तब सदा अचल सत्यलोक मिलता है । अविनाशी शब्द और सुरति का मेल करो । यह बूँद और सागर के मिलने के खेल जैसा है । इसी प्रकार जीव सत्यनाम से मिलकर उसी जैसा सत्यस्वरूप हो जाता है ।
हे धर्मदास ! एक गाय को परमार्थ गुणों की खान जानो । हे ग्यानी धर्मदास ! गाय की चाल और गुणों को समझो । गाय खेत बाग आदि में घास चरती है । जल पीती है । और अंत में दूध देती है । उसके दूध घी से देवता और मनुष्य दोनों ही तृप्त होते हैं । गाय के बच्चे दूसरों का पालन करने वाले होते हैं । उसका गोबर भी मनुष्य के बहुत काम आता है । परन्तु पाप कर्म करने वाला मनुष्य अपना जन्म यूँ ही गँवाता है ।
बाद में आयु पूरी होने पर गाय का शरीर नष्ट हो जाता है । तब उसे राक्षस के समान मनुष्य उसका शरीर का माँस लेकर खाते हैं । मरने पर भी उसके शरीर का चमढा मनुष्य के लिये बहुत सुख देने वाला होता है । हे भाई ! जन्म से लेकर मृत्यु तक गाय के शरीर में इतने गुण होते हैं ।
इसलिये गाय के समान गुण वाला होने का यह वाणी उपदेश सज्जन पुरुष गृहण करे । तो काल निरंजन जीव की कभी हानि नहीं कर सकता । मनुष्य शरीर पाकर जिसकी बुद्धि ऐसी शुद्ध हो । और उसे सदगुरु मिले । तो वह हमेशा को अमर हो जाये ।
हे धर्मदास ! परमार्थ की वाणी परमार्थ के उपदेश सुनने से कभी हानि नहीं होती । इसलिये सज्जन परमार्थ का सहारा आधार लेकर भवसागर से पार हो । दुर्लभ मनुष्य जीवन के रहते मनुष्य सार शब्द के उपदेश का परिचय और ग्यान प्राप्त करे । फ़िर परमार्थ पद को प्राप्त हो । तो वह सत्यलोक को जाये । अहंकार को मिटा दे । और निष्काम सेवा की भावना ह्रदय में लाये । जो अपने कुल बल धन ग्यान आदि का अहंकार रखता है । वह सदा दुख ही पाता है ।
यह मनुष्य ऐसा चतुर बुद्धिमान बनता है कि सदगुण और शुभ कर्म होने पर कहता है कि मैंने ऐसा किया है । और उसका पूरा श्रेय अपने ऊपर लेता है । और अवगुण द्वारा उल्टा विपरीत परिणाम हो जाने पर कहता है कि भगवान ने ऐसा कर दिया ।
यह नर अस चातुर बुधिमाना । गुण शुभ कर्म कहे हम ठाना ।
ऊँच क्रिया आपन सिर लीन्हा । औगण को बोले हरि कीन्हा ।
तब ऐसा सोचने से उसके शुभ कर्मों का नाश हो जाता है । हे धर्मदास ! सब आशाओं को छोङकर तुम निराश ( उदास विरक्त वैरागी भाव ) भाव जीवन में अपनाओ । और केवल एक सत्यनाम कमाई की ही आशा करो । और अपने किये शुभ कर्म को किसी को बताओ नहीं ।
सभी देवी देवताओं भगवान से ऊँचा सर्वोपरि गुरु पद है । उसमें सदा लगन लगाये रहो । जैसे जल में अभिन्न रूप से मछली घूमती है । वैसे ही सदगुरु के श्रीचरणों में मगन रहे । सदगुर द्वारा दिये शब्द नाम में सदा मन लगाता हुआ उसका सुमरन करे ।
जैसे मछली कभी जल को नहीं भूलती । और उससे दूर होकर तङपने लगती है । ऐसे ही चतुर शिष्य गुरु से उपदेश कर उन्हें भूले नहीं । सत्यपुरुष के सत्यनाम का प्रभाव ऐसा है कि हँस जीव फ़िर से संसार में नहीं आता ।
तुम कछुए के बच्चे की कला गुण समझो । कछवी जल से बाहर आकर रेत मिट्टी में गढ्ढा खोदकर अण्डे देती है । और अण्डो को मिट्टी से ढककर फ़िर पानी में चले जाती है । परन्तु पानी में रहते हुये भी कछवी का ध्यान निरंतर अण्डों की ओर ही लगा रहता है । वह ध्यान से ही अण्डों को सेती है । समय पूरा होने पर अण्डे पुष्ट होते हैं । और उनमें से बच्चे बाहर निकल आते हैं । तब उनकी माँ कछवी उन बच्चों को लेने पानी से बाहर नहीं आती । बच्चे स्वयँ चलकर पानी में चले जाते हैं । और अपने परिवार से मिल जाते हैं ।
हे धर्मदास ! जैसे कछुये के बच्चे अपने स्वभाव से अपने परिवार से जाकर मिल जाते हैं । वैसे ही मेरे हँस जीव अपने निज स्वभाव से अपने घर सत्यलोक की तरफ़ दौङें । उनको सत्यलोक जाते देखकर काल निरंजन के यमदूत बलहीन हो जायेंगे । तथा वे उनके पास नहीं जायेंगे । वे हँस जीव निर्भय निडर होकर गरजते और प्रसन्न होते हुये नाम का सुमरन करते हुये आनन्द पूर्वक अपने घर जाते हैं । और यमदूत निराश होकर झक मारकर रह जाते हैं ।
सत्यलोक आनन्द का धाम अनमोल और अनुपम है । वहाँ जाकर हँस परमसुख भोगते हैं । हँस से हँस मिलकर आपस में क्रीङा करते हैं । और सत्यपुरुष का दर्शन पाते हैं ।
जैसे भंवरा कमल पर बसता है । वैसे ही अपने मन को सदगुरु के श्रीचरणों में बसाओ । तब सदा अचल सत्यलोक मिलता है । अविनाशी शब्द और सुरति का मेल करो । यह बूँद और सागर के मिलने के खेल जैसा है । इसी प्रकार जीव सत्यनाम से मिलकर उसी जैसा सत्यस्वरूप हो जाता है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें