हमारे कई साधकों पाठकों मित्रों ने एक ऐसी सहज सरल स्तुति की माँग की । जिससे दीक्षा वाले लोग जिनका ध्यान कठिनाई से लगता है । आसानी से ध्यान लगा सकें ।
तथा जिन लोगों की दीक्षा अभी नहीं हुयी है । वे भी कुछ तो सत्य का बोध कर सके । धर्म में प्रचलित कई चालीसाओं आदि की तरह ये बेहद प्रभावी स्तुति है । आप इसको जीवन में अपना कर देखें । और तुरन्त इसका लाभ महसूस करें । ये स्तुति भाव परमात्मा को ध्यान रखकर करें ।
सत्यनाम सुमिरो मन माँही । जहँवा रजनी वासर नाहीं ।
आदि अंत नहीं धरन अकाशा । पावक पवन न नीर निवासा ।
चन्द सूर तहँवा नहि कोई । प्रात सांझ तहवां नहि दोई ।
कर्म धर्म पुन्य नही पापा । तहवां जपियो अजपा जापा ।
झलमलाट चहुँ दिस उजियारा । वरषे जहाँ अगर की धारा ।
तँह सतगुरु को आसन होई । कोटि माहिं जन पहुँचे कोई ।
दसों दिशा झिलमिल तहाँ छाजा । बाजे तहाँ सु अनहद बाजा ।
तहवां हँसा ध्यान लगावे । बहुरि न जोनी संकट आवे ।
जहवां को सुख वरनि न जाई । सतगुरु मिले तो देय लखाई ।
ज्यों गूँगा को सपना देखो । ऐसो जीवित जन्म को लेखो ।
छन इक ध्यान विदेह समाई । ताकी महिमा वरणि न जायी ।
काया नाम सबै गोहरावे । नाम विदेह विरला कोई पावे ।
जो युग चार रहे कोई कासी । सार शब्द बिन यमपुर वासी ।
नीमसार बद्री पर धामा । गया द्वारका प्राग अस्नाना ।
अङसठ तीरथ भू परकरमा । सार शब्द बिन मिटे न भरमा ।
कँह लग कहों नाम परभाऊ । जो सुमरे जम त्रास नसाऊ ।
सार नाम सतगुरु सों पावे । नाम डोर गहि लोक सिधावे ।
धर्मराय ताको सिर नावे । जो हँसा निःतत्व समाबे ।
सार शब्द विदेह स्वरूपा । निःअक्षर वह रूप अनूपा ।
तत्व प्रकृति भाव सब देहा । सार शब्द निःतत्व विदेहा ।
कहन सुनन को शब्द चौधारा । सार शब्द सों जीव उबारा ।
पुरुष सो नाम सार परवाना । सुमिरन पुरुष सार सहिदाना ।
बिनु रसना के जाप समाई । तासों काल रहे मुरझाई ।
सूच्छम सहज पँथ है पूरा । ता पर चढो रहे जन सूरा ।
नहिं वह शब्द न सुमरन जापा । पूरन वस्तु काल दिखदापा ।
हँस भार तुम्हरे सिर दीन्हा । तुमको कहो शब्द को चीन्हा ।
पदम अनंत पंखुरी जाने । अजपा जाप डोर सो ताने ।
सूच्छम द्वार तहाँ जब दरसे । अगम अगोचर सतपद परसे ।
अंतर शून्य मंह होय परकासा । तहवां आदि पुरुष का वासा ।
ताहि चीन्ह हँसा तंह जायी । आदि सुरति तहं लै पहुँचायी ।
आदि सुरति पुरुष को आही । जीव सोहंगम बोलिये ताही ।
धर्मदास तुम संत सुजाना । परखो सार शब्द निरवाना ।
अजपा जाप हो सहज धुनि । परखि गुरु गम लागिये ।
मन पवन थिर कर शब्द निरखै । करम मनमथ त्यागिये ।
होत धुनि रसना बिना । करमाल बिनु निखारिये ।
शब्द सार विदेह निरखत। अमरलोक सिधारिये ।
शोभा अगम अपार । कोटि भानु शशि रोम इक ।
षोडश रवि छिटकार । एक हँस उजियार तन ।
तथा जिन लोगों की दीक्षा अभी नहीं हुयी है । वे भी कुछ तो सत्य का बोध कर सके । धर्म में प्रचलित कई चालीसाओं आदि की तरह ये बेहद प्रभावी स्तुति है । आप इसको जीवन में अपना कर देखें । और तुरन्त इसका लाभ महसूस करें । ये स्तुति भाव परमात्मा को ध्यान रखकर करें ।
सत्यनाम सुमिरो मन माँही । जहँवा रजनी वासर नाहीं ।
आदि अंत नहीं धरन अकाशा । पावक पवन न नीर निवासा ।
चन्द सूर तहँवा नहि कोई । प्रात सांझ तहवां नहि दोई ।
कर्म धर्म पुन्य नही पापा । तहवां जपियो अजपा जापा ।
झलमलाट चहुँ दिस उजियारा । वरषे जहाँ अगर की धारा ।
तँह सतगुरु को आसन होई । कोटि माहिं जन पहुँचे कोई ।
दसों दिशा झिलमिल तहाँ छाजा । बाजे तहाँ सु अनहद बाजा ।
तहवां हँसा ध्यान लगावे । बहुरि न जोनी संकट आवे ।
जहवां को सुख वरनि न जाई । सतगुरु मिले तो देय लखाई ।
ज्यों गूँगा को सपना देखो । ऐसो जीवित जन्म को लेखो ।
छन इक ध्यान विदेह समाई । ताकी महिमा वरणि न जायी ।
काया नाम सबै गोहरावे । नाम विदेह विरला कोई पावे ।
जो युग चार रहे कोई कासी । सार शब्द बिन यमपुर वासी ।
नीमसार बद्री पर धामा । गया द्वारका प्राग अस्नाना ।
अङसठ तीरथ भू परकरमा । सार शब्द बिन मिटे न भरमा ।
कँह लग कहों नाम परभाऊ । जो सुमरे जम त्रास नसाऊ ।
सार नाम सतगुरु सों पावे । नाम डोर गहि लोक सिधावे ।
धर्मराय ताको सिर नावे । जो हँसा निःतत्व समाबे ।
सार शब्द विदेह स्वरूपा । निःअक्षर वह रूप अनूपा ।
तत्व प्रकृति भाव सब देहा । सार शब्द निःतत्व विदेहा ।
कहन सुनन को शब्द चौधारा । सार शब्द सों जीव उबारा ।
पुरुष सो नाम सार परवाना । सुमिरन पुरुष सार सहिदाना ।
बिनु रसना के जाप समाई । तासों काल रहे मुरझाई ।
सूच्छम सहज पँथ है पूरा । ता पर चढो रहे जन सूरा ।
नहिं वह शब्द न सुमरन जापा । पूरन वस्तु काल दिखदापा ।
हँस भार तुम्हरे सिर दीन्हा । तुमको कहो शब्द को चीन्हा ।
पदम अनंत पंखुरी जाने । अजपा जाप डोर सो ताने ।
सूच्छम द्वार तहाँ जब दरसे । अगम अगोचर सतपद परसे ।
अंतर शून्य मंह होय परकासा । तहवां आदि पुरुष का वासा ।
ताहि चीन्ह हँसा तंह जायी । आदि सुरति तहं लै पहुँचायी ।
आदि सुरति पुरुष को आही । जीव सोहंगम बोलिये ताही ।
धर्मदास तुम संत सुजाना । परखो सार शब्द निरवाना ।
अजपा जाप हो सहज धुनि । परखि गुरु गम लागिये ।
मन पवन थिर कर शब्द निरखै । करम मनमथ त्यागिये ।
होत धुनि रसना बिना । करमाल बिनु निखारिये ।
शब्द सार विदेह निरखत। अमरलोक सिधारिये ।
शोभा अगम अपार । कोटि भानु शशि रोम इक ।
षोडश रवि छिटकार । एक हँस उजियार तन ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें