हे राम ! यह चित्त रूपी महा व्याधि है । उसकी निवृति के अर्थ । मैं तुमको एक श्रेष्ठ औषध कहता हूँ । वह तुम सुनो । जिसमें यत्न भी अपना हो । साध्य भी आप ही हो । और औषध भी आप हो । और सब पुरुषार्थ आप ही से सिद्ध होता है । इस यत्न से चित्त रूपी वैताल को नष्ट करो । हे राम ! जो कुछ पदार्थ तुमको रस संयुक्त दृष्टि आवें । उनको त्याग करो । जब वांछित पदार्थों का त्याग करोगे । तब मन को जीत लोगे । और अचल पद को प्राप्त होगे । जैसे लोहे से लोहा कटता है । वैसे ही मन से मन को काटो । और यत्न करके शुभ गुणों से चित्त रूपी वेताल को दूर करो । देह आदि अवस्तु में । जो बस्तु की भावना है । और वस्तु आत्म तत्व में । जो देह आदि की भावना है । उनको त्याग कर । आत्म तत्व में भावना लगाओ । हे राम ! जैसे चित्त में पदार्थों की चिन्तना होती है । वैसे ही आत्म पद पाने की चिन्तना से । सत्य कर्म की शुद्धता लेकर । चित्त को यत्न करके । चैतन्य संवित की ओर लगाओ । और सब वासना को त्याग कर । एकाग्रता करो । तब परम पद की प्राप्ति होगी । हे राम ! जिन पुरुषों को । अपनी इच्छा त्यागनी कठिन है । वे विषयों के कीट हैं । क्योंकि अशुभ पदार्थ । मूढ़ता से रमणीय भासते हैं । उस अशुभ को अशुभ । और शुभ को शुभ जानना । यही पुरुषार्थ है । हे राम ! शुभ अशुभ दोनों पहलवान हैं । उन दोनों में जो बली होता है । उसकी जय होती है । इससे शीघ्र ही पुरुष प्रयत्न करके । अपने चित्त को जीतो । जब तुम अचित्त होगे । तब यत्न बिना आत्म पद को प्राप्त होगे । जैसे बादलों के अभाव हुए । यत्न बिना । सूर्य भासता है । वैसे ही आत्म पद के आगे चित्त का फुरना ( स्फ़ुरणा ) । जो बादल वत आवरण है । उसका जब
अभाव होगा । तब अयत्न सिद्ध आत्म पद भासेगा । सो चित्त के स्थित करने का मन्त्र भी आप से होता है । जिसको अपने चित्त को वश में करने की भी शक्ति नहीं । उसको धिक्कार है । वह मनुष्यों में गर्दभ है । अपने पुरुषार्थ से मन का वश करना । अपने साथ परम मित्रता करनी है । और अपने मन के वश किये बिना । अपना आप ही शत्रु है । अर्थात मन के उप शम किये बिना घटी यन्त्र की तरह । संसार चक्र में भटकता है । जिन मनुष्यों ने मन को उप शम किया है । उनको परम लाभ हुआ है । हे राम ! मन के मारने का मन्त्र यही है । दृश्य की ओर से चित्त को निवृत करे । और आत्म चेतन संवित में लगावे । आत्म चिन्तना करके । चित्त को मारना । सुख रूप है । हे राम ! इच्छा से मन पुष्ट रहता है । जब भीतर से इच्छा निवृत होती है । तब मन उप शम होता है । और जब मन उप शम होता है । तब गुरु और शास्त्रों के उपदेश । और मन्त्र आदिकों की अपेक्षा नहीं रहती । हे राम ! जब पुरुष असंकल्प रूपी । औषध करके । चित्त रूपी रोग काटे । तब उस पद को प्राप्त हो । जो सर्व और सर्व गत शान्त रूप है । इस देह को निश्चय करके । मूढ़ मन ने कल्पा है । इससे पुरुषार्थ करके । चित्त को अचित्त करो । तब इस बन्धन से छूटोगे । हे राम ! शुद्ध चित्त आकाश में । यत्न करके चित्त को लगाओ । जब चिरकाल पर्यन्त । मन का तीव्र संवेग । आत्मा की ओर होगा । तब चैतन्य । चित्त का भक्षण कर लेगा । और जब चित्त का । चिन्तत्व निवृत्त हो जावेगा । तब केवल चेतन मात्र ही शेष रहेगा । जब जगत की भावना से तुम मुक्त होगे । तब तुम्हारी बुद्धि परमार्थ तत्व में लगेगी । अर्थात बोध रूप हो जावेगी । इससे इस चित्त को चित्त से ग्रास कर लो । जब तुम परम पुरुषार्थ करके । चित्त को अचित्त करोगे । तब महा अद्वैत पद को प्राप्त होगे । हे राम ! मन के जीतने में । तुमको और कुछ यत्न नहीं । केवल एक संवेदन का प्रवाह उलटना है । दृश्य की ओर से । निवृत्त करके ।
आत्मा की ओर लगाओ । इसी से चित्त अचित्त हो जावेगा । चित्त के क्षोभ से रहित होना । परम कल्याण है । इससे क्षोभ से रहित हो जाओ । जिसने मन को जीता है । उसको त्रिलोकी का जीतना । तृण समान है । हे राम ! ऐसे शूरमा हैं । जो कि शस्त्रों के प्रहार सहते हैं । अग्नि में जलना भी सहते हैं । और शत्रु को मारते हैं । तब स्वाभाविक । फुरने के सहने में । क्या कृपणता है ? हे राम ! जिनको चित्त के उलटाने की सामर्थ्य नहीं । वे नरों में अधम हैं । जिनको यह अनुभव होता है कि - मैं जन्मा हूँ । मैं मरूँगा । और मैं जीव हूँ । उनको वह असत्य रूप प्रमाद चपलता से भासता है । जैसे कोई किसी स्थान में बैठा हो । और मन के फुरने से । और देश में कार्य करने लगे । तो वह भृम रूप है । वैसे ही यह अपने आपको । जन्म मरण भृम से मानता है । हे राम ! मनुष्य मन रूपी शरीर से । इस लोक और परलोक में । मोक्ष होने तक चित्त में भटकता है । यदि चित्त स्थिर है । तो तुमको मृत्यु का भय कैसे होता है ? तुम्हारा स्वरूप । नित्य । शुद्ध बुद्ध । और सर्व विकार से रहित है । यह लोक आदि भृम मन के फुरने ( स्फ़ुरणा ) से उपजा है । मन से जगत का कुछ रूप नहीं । पुत्र । भाई । नौकर आदि । जो स्नेह के स्थान हैं । और उनके कलेश से । अपने आपको कलेशित मानते हैं । वह भी चित्त से मानते हैं । जब चित्त अचित्त हो जायेगा । तब सर्व बन्धनों से मुक्त हो । हे राम ! मैंने अधः ( नीचे ) ऊर्ध्व ( ऊँचे ) सब स्थान देखे हैं । सब शास्त्र भी देखे हैं । और उनको एकान्त में बैठकर । बार बार विचारा भी है । शान्त होने का । और कोई उपाय नहीं । चित्त का उप शम करना ही उपाय है । जब तक चित्त । दृश्य को देखता है । तब तक । शान्ति प्राप्त नहीं होती । और जब चित्त । उप शम होता है । तब उस पद में । विश्राम होता है । जो नित्य । शुद्ध । सर्वात्मा । और सबके हृदय में ।
चेतन आकाश । परम शान्त रूप है । हे राम ! हृदय आकाश में । जो चेतन चक्र है । अर्थात । जो बृह्म आकार वृत्ति है । उसकी ओर । जब मन का तीव्र संवेग हो । तब सब ही दुखों का अभाव हो जावे । मन का मनन भाव । उसी बृह्म आकार वृत्ति रूपी चक्र से नष्ट होता है । हे राम ! संसार के भोग । जो मन से रमणीय भासते हैं । वे जब रमणीय न भासें । तब जानिये कि - मन के अंग कटे । जो कुछ । अहं ( मैं ) और त्वं ( तू ) । आदि शब्द अर्थ भासते हैं । वे सब मनो मात्र हैं । जब दृढ़ विचार करके । इनकी अभावना हो । तब मन की वासना नष्ट हो । जैसे हँसिये से खेती कट जाती है । वैसे ही वासना नष्ट होने से । परम तत्व शुद्ध भासता है । जैसे घटा के अभाव हुये । शरद काल का आकाश । निर्मल भासता है । वैसे ही वासना से रहित मन । शुद्ध भासेगा । हे राम ! मन ही जीव का परम शत्रु है । और इच्छा संकल्प करके पुष्ट हो जाता है । जब कोई इच्छा न उपजे । तब आप ही निवृत्त हो जावेगा । जैसे अग्नि में काठ ( लकङी ) डालिये । तो बढ़ जाती है । और यदि न डालिये । तो आप ही नष्ट हो जाती है । हे राम ! इस मन में । जो संकल्प कल्पना उठती है । उसका त्याग करो । तब तुम्हारा मन । स्वतः नष्ट होगा । जहाँ शस्त्र चलते हैं । और अग्नि लगती है । वहाँ शूरमा निर्भय होकर जा पड़ते हैं । और शत्रु को मारते हैं । प्राण जाने का भय नहीं रखते । तो तुमको संकल्प त्यागने में । क्या भय होता है ? हे राम ! चित्त के फैलाने से । अनर्थ होता है । और चित्त के अस्फुरण ( स्फ़ुरण का अर्थ - वासना रूपी वायु से विचार बुलबुले उठना ) होने से । कल्याण होता है । यह बात बालक भी जानता है । जैसे पिता बालक को अनुग्रह करके कहता है । वैसे ही मैं भी तुमको समझाता हूँ कि - मन रूपी शत्रु ने भय दिया है । और संकल्प कल्पना से जितनी आपदायें हैं । वे
मन से उपजती हैं । जैसे सूर्य की किरणों से । मृग तृष्णा का जल दीखता है । वैसे ही सब आपदा । मन से दीखती हैं । जिसका मन स्थिर हुआ है । उसको कोई क्षोभ नहीं होता । हे राम ! प्रलय काल का पवन चले । सात 7 समुद्र मर्यादा त्याग कर । इकट्ठे हो जावें । और द्वादश 12 सूर्य इकट्ठे होकर तपें । तो भी मन से रहित । पुरुष को । कोई विघ्न नहीं होता । वह सदा शान्त रूप है । हे राम ! मन रूपी बीज है । उससे संसार वृक्ष उपजा है । सात 7 लोक उसके पत्र हैं । और - शुभ । अशुभ । सुख । दुख । उसके फल हैं । वह मन । संकल्प से रहित । नष्ट हो जाता है । संकल्प के बढ़ने से । अनर्थ का कारण होता है । इससे संकल्प से रहित । उस चक्रवर्ती राज पद में । आरूढ़ हुआ । परम पद को प्राप्त होगा । जिस पद में स्थित होने से । चक्रवर्ती राज । तृण वत भासता है । हे राम ! मन के क्षीण होने से जीव । उत्तम । परम आनन्द पद को । प्राप्त होता है । हे राम ! सन्तोष से जब मन वश होता है । तब नित्य । उदय रूप । निरीह । परम पावन । निर्मल । सम । अनन्त और सर्व विकार । विकल्प से रहित । जो आत्म पद शेष रहता है । वह तुमको प्राप्त होगा ।
अभाव होगा । तब अयत्न सिद्ध आत्म पद भासेगा । सो चित्त के स्थित करने का मन्त्र भी आप से होता है । जिसको अपने चित्त को वश में करने की भी शक्ति नहीं । उसको धिक्कार है । वह मनुष्यों में गर्दभ है । अपने पुरुषार्थ से मन का वश करना । अपने साथ परम मित्रता करनी है । और अपने मन के वश किये बिना । अपना आप ही शत्रु है । अर्थात मन के उप शम किये बिना घटी यन्त्र की तरह । संसार चक्र में भटकता है । जिन मनुष्यों ने मन को उप शम किया है । उनको परम लाभ हुआ है । हे राम ! मन के मारने का मन्त्र यही है । दृश्य की ओर से चित्त को निवृत करे । और आत्म चेतन संवित में लगावे । आत्म चिन्तना करके । चित्त को मारना । सुख रूप है । हे राम ! इच्छा से मन पुष्ट रहता है । जब भीतर से इच्छा निवृत होती है । तब मन उप शम होता है । और जब मन उप शम होता है । तब गुरु और शास्त्रों के उपदेश । और मन्त्र आदिकों की अपेक्षा नहीं रहती । हे राम ! जब पुरुष असंकल्प रूपी । औषध करके । चित्त रूपी रोग काटे । तब उस पद को प्राप्त हो । जो सर्व और सर्व गत शान्त रूप है । इस देह को निश्चय करके । मूढ़ मन ने कल्पा है । इससे पुरुषार्थ करके । चित्त को अचित्त करो । तब इस बन्धन से छूटोगे । हे राम ! शुद्ध चित्त आकाश में । यत्न करके चित्त को लगाओ । जब चिरकाल पर्यन्त । मन का तीव्र संवेग । आत्मा की ओर होगा । तब चैतन्य । चित्त का भक्षण कर लेगा । और जब चित्त का । चिन्तत्व निवृत्त हो जावेगा । तब केवल चेतन मात्र ही शेष रहेगा । जब जगत की भावना से तुम मुक्त होगे । तब तुम्हारी बुद्धि परमार्थ तत्व में लगेगी । अर्थात बोध रूप हो जावेगी । इससे इस चित्त को चित्त से ग्रास कर लो । जब तुम परम पुरुषार्थ करके । चित्त को अचित्त करोगे । तब महा अद्वैत पद को प्राप्त होगे । हे राम ! मन के जीतने में । तुमको और कुछ यत्न नहीं । केवल एक संवेदन का प्रवाह उलटना है । दृश्य की ओर से । निवृत्त करके ।
आत्मा की ओर लगाओ । इसी से चित्त अचित्त हो जावेगा । चित्त के क्षोभ से रहित होना । परम कल्याण है । इससे क्षोभ से रहित हो जाओ । जिसने मन को जीता है । उसको त्रिलोकी का जीतना । तृण समान है । हे राम ! ऐसे शूरमा हैं । जो कि शस्त्रों के प्रहार सहते हैं । अग्नि में जलना भी सहते हैं । और शत्रु को मारते हैं । तब स्वाभाविक । फुरने के सहने में । क्या कृपणता है ? हे राम ! जिनको चित्त के उलटाने की सामर्थ्य नहीं । वे नरों में अधम हैं । जिनको यह अनुभव होता है कि - मैं जन्मा हूँ । मैं मरूँगा । और मैं जीव हूँ । उनको वह असत्य रूप प्रमाद चपलता से भासता है । जैसे कोई किसी स्थान में बैठा हो । और मन के फुरने से । और देश में कार्य करने लगे । तो वह भृम रूप है । वैसे ही यह अपने आपको । जन्म मरण भृम से मानता है । हे राम ! मनुष्य मन रूपी शरीर से । इस लोक और परलोक में । मोक्ष होने तक चित्त में भटकता है । यदि चित्त स्थिर है । तो तुमको मृत्यु का भय कैसे होता है ? तुम्हारा स्वरूप । नित्य । शुद्ध बुद्ध । और सर्व विकार से रहित है । यह लोक आदि भृम मन के फुरने ( स्फ़ुरणा ) से उपजा है । मन से जगत का कुछ रूप नहीं । पुत्र । भाई । नौकर आदि । जो स्नेह के स्थान हैं । और उनके कलेश से । अपने आपको कलेशित मानते हैं । वह भी चित्त से मानते हैं । जब चित्त अचित्त हो जायेगा । तब सर्व बन्धनों से मुक्त हो । हे राम ! मैंने अधः ( नीचे ) ऊर्ध्व ( ऊँचे ) सब स्थान देखे हैं । सब शास्त्र भी देखे हैं । और उनको एकान्त में बैठकर । बार बार विचारा भी है । शान्त होने का । और कोई उपाय नहीं । चित्त का उप शम करना ही उपाय है । जब तक चित्त । दृश्य को देखता है । तब तक । शान्ति प्राप्त नहीं होती । और जब चित्त । उप शम होता है । तब उस पद में । विश्राम होता है । जो नित्य । शुद्ध । सर्वात्मा । और सबके हृदय में ।
चेतन आकाश । परम शान्त रूप है । हे राम ! हृदय आकाश में । जो चेतन चक्र है । अर्थात । जो बृह्म आकार वृत्ति है । उसकी ओर । जब मन का तीव्र संवेग हो । तब सब ही दुखों का अभाव हो जावे । मन का मनन भाव । उसी बृह्म आकार वृत्ति रूपी चक्र से नष्ट होता है । हे राम ! संसार के भोग । जो मन से रमणीय भासते हैं । वे जब रमणीय न भासें । तब जानिये कि - मन के अंग कटे । जो कुछ । अहं ( मैं ) और त्वं ( तू ) । आदि शब्द अर्थ भासते हैं । वे सब मनो मात्र हैं । जब दृढ़ विचार करके । इनकी अभावना हो । तब मन की वासना नष्ट हो । जैसे हँसिये से खेती कट जाती है । वैसे ही वासना नष्ट होने से । परम तत्व शुद्ध भासता है । जैसे घटा के अभाव हुये । शरद काल का आकाश । निर्मल भासता है । वैसे ही वासना से रहित मन । शुद्ध भासेगा । हे राम ! मन ही जीव का परम शत्रु है । और इच्छा संकल्प करके पुष्ट हो जाता है । जब कोई इच्छा न उपजे । तब आप ही निवृत्त हो जावेगा । जैसे अग्नि में काठ ( लकङी ) डालिये । तो बढ़ जाती है । और यदि न डालिये । तो आप ही नष्ट हो जाती है । हे राम ! इस मन में । जो संकल्प कल्पना उठती है । उसका त्याग करो । तब तुम्हारा मन । स्वतः नष्ट होगा । जहाँ शस्त्र चलते हैं । और अग्नि लगती है । वहाँ शूरमा निर्भय होकर जा पड़ते हैं । और शत्रु को मारते हैं । प्राण जाने का भय नहीं रखते । तो तुमको संकल्प त्यागने में । क्या भय होता है ? हे राम ! चित्त के फैलाने से । अनर्थ होता है । और चित्त के अस्फुरण ( स्फ़ुरण का अर्थ - वासना रूपी वायु से विचार बुलबुले उठना ) होने से । कल्याण होता है । यह बात बालक भी जानता है । जैसे पिता बालक को अनुग्रह करके कहता है । वैसे ही मैं भी तुमको समझाता हूँ कि - मन रूपी शत्रु ने भय दिया है । और संकल्प कल्पना से जितनी आपदायें हैं । वे
मन से उपजती हैं । जैसे सूर्य की किरणों से । मृग तृष्णा का जल दीखता है । वैसे ही सब आपदा । मन से दीखती हैं । जिसका मन स्थिर हुआ है । उसको कोई क्षोभ नहीं होता । हे राम ! प्रलय काल का पवन चले । सात 7 समुद्र मर्यादा त्याग कर । इकट्ठे हो जावें । और द्वादश 12 सूर्य इकट्ठे होकर तपें । तो भी मन से रहित । पुरुष को । कोई विघ्न नहीं होता । वह सदा शान्त रूप है । हे राम ! मन रूपी बीज है । उससे संसार वृक्ष उपजा है । सात 7 लोक उसके पत्र हैं । और - शुभ । अशुभ । सुख । दुख । उसके फल हैं । वह मन । संकल्प से रहित । नष्ट हो जाता है । संकल्प के बढ़ने से । अनर्थ का कारण होता है । इससे संकल्प से रहित । उस चक्रवर्ती राज पद में । आरूढ़ हुआ । परम पद को प्राप्त होगा । जिस पद में स्थित होने से । चक्रवर्ती राज । तृण वत भासता है । हे राम ! मन के क्षीण होने से जीव । उत्तम । परम आनन्द पद को । प्राप्त होता है । हे राम ! सन्तोष से जब मन वश होता है । तब नित्य । उदय रूप । निरीह । परम पावन । निर्मल । सम । अनन्त और सर्व विकार । विकल्प से रहित । जो आत्म पद शेष रहता है । वह तुमको प्राप्त होगा ।
1 टिप्पणी:
namaskar guru ji parveen kumar haryana se meine aapke blog dekhe hai sorry agar koi galti ho kabir ki vani to ek hai par kabir paniyon mein antar hai aur sant rampal aur sahib bandgi wale bhi naam dete hai par sab kehte hai ki hamra naam kaal se alag hai kirpa karke bathiyen ki asli naam kya hai koi galti ho to maaf karna
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