61 प्रश्न - श्री स्वामी जी महाराज ! आहार आदि कैसे बनाना चाहिये ?
उत्तर - भोजन शुद्ध विचारधारा से बनाना चाहिये । भोजन बनाने वाले पर काफ़ी कुछ निर्भर करता है । भोजन बनाने वाले को नित्य कर्म करके स्नान, ध्यान करके साफ़ सुथरे वस्त्र धारण कर साफ़ सफ़ाई से भोजन बनाना चाहिये । कहावत है - जैसा खाए अन्न । वैसा होवे मन । भोजन बडी शान्ति से मौन रहकर खुश दिल होकर बनाना चाहिये । भोजन बनाते समय बोलना नहीं चाहिये । क्योंकि वही भोजन आप अपने श्री सदगुरु देव जी महाराज को भोग लगाते हैं । भोजन सदा सात्विक करना कराना चाहिये । मनुष्य का शारीरिक गठन इतना भिन्न है कि सब लोगों के लिये 1 ही नियम नहीं बनाया जा सकता है । मान लीजिये । कोई वस्तु मुझे सहन होती है । परन्तु आपके शरीर को सहन नहीं होती है । मेरा शरीर किसी वस्तु को गृहण कर सकता है । आपका शरीर शायद उसे गृहण न कर सके । इसलिये हम लोगों को अपने शरीर के अनुकूल भोजन का चयन करना चाहिये । हाँ सात्विक भोजन ही खायें खिलायें । साधारण तौर पर यह कहा जा सकता है कि भोजन भारी न हो । ये सावधानी बनाये रखकर । जिसके पेट में जो सहता है । वैसा भोजन किया जा सकता है । भजन में सहायक भोजन करना चाहिये ।
62 प्रश्न - श्री स्वामी जी महाराज ! मंत्र जागृत किस स्थान पर जल्दी होता है ?
उत्तर - आश्रम में । मन्दिर में । पंचवटी में । नदी के किनारे । सागर के किनारे । शुद्ध पवित्र स्थान पर मंत्र जल्दी जाग्रत होता है । जो लोग ठीक ठीक भजन करते हैं । वे सहज ही कुछ दिन के बाद इसे जान सकते हैं । यह समझना कठिन नहीं है । श्री सदगुरू देव जी महाराज के प्रति एकनिष्ठ भाव तथा आचरण की शुद्धता से मन्त्र शीघ्र जाग्रत होता है ।
वाराणसी नगरी संसार से अलग है । महा चैतन्यमय स्थान है । यहीं पर गंगा तट के किनारे बैठकर भजन ध्यान करने वाले को 10 गुना अधिक फ़ल मिलता है । यहां छोटे बडे । धनी गरीब जो भी हैं । सभी को साधन भजन का पूर्ण अधिकार है । श्री सदगुरू देव जी महाराज सबको भक्ति । भजन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान । चिन्तन करने का पूर्ण अवसर देते हैं । श्री सदगुरू देव जी महाराज की वाणी है कि यहां पर रहने वाले सभी भक्त 1 दिन मुक्त हो जायेंगे । श्री सदगुरू स्वामी जी महाराज का दर्शन । पूजा । आरती । भजन । सुमिरन । सेवा । ध्यान । चिन्तन । मनन करने वाले भक्त का मन्त्र जाग्रत तो हो ही जाता है । परन्तु तपो भूमि की अपनी 1 विशेषता है । यहां पर रहकर भजन । सुमिरन । ध्यान । अर्चन । वन्दन । पूजन करने वाले को 10 गुना अधिक लाभ मिलता है । महापुरूषों की वाणी है - गुरूद्वारे में जहां सर कटने वाला हो । वहां खरोंच लगकर रह जाती है ।
तपस्थली का विशेष महत्त्व होता है । शिकार हमेशा जंगल में होता है । देखो । शिकारी हमेशा जंगल में शिकार
खेलने जाता है । शहर या घर में नहीं । ठीक उसी प्रकार भजन, तपस्या के लिये उचित स्थान आश्रम । तपस्थली । गुरूद्वारा है । कोई बिरला ही लाखों करोडों में गृहस्थी में रहकर मुक्ति पा सकता है । मन्त्र जाग्रत कर सकता है ।
63 प्रश्न - श्री सदगुरू स्वामी जी महाराज ! क्या मठ बनाना आवश्यक है ?
उत्तर - मठ का निर्माण आवश्यक है । मठ बनाने का प्रथम उद्देश्य जीव कल्याण है । इसलिये जरूरी है । इस संसार में बहुत सारे असहाय । दीन, दुखी । अबला । विधवा । अपंग है । जिनका संसार बहिष्कार करता है । उनका जीवन यापन सबसे सुन्दर तरीकों से मठों में ही होता है । उन्हें आश्रम ही सम्मानित जीवन देता है । मठ में ऐसे दीन दुखियों को दिशा मिलती है । आत्म प्रेरणा मिलती है । जिन्होंने आश्रम का आश्रय लिया । उन्हें संसार सागर से पार जाने का रास्ता श्री सदगुरू देव जी महाराज ही दिखाते हैं । उनकी समस्त बाधाओं को वे दूर कर देते हैं । गुरू वाक्य में विश्वास रखो । जिसने भी गुरू वाणी पर विश्वास कर उनके वचनों का अक्षरश: पालन किया है । जैसा प्रभु कहें । वैसा करते गया है । उनके मन का सारा मैल धुल जाता है । और धीरे धीरे ज्ञान का प्रकाश आने लगता है । श्री सदगुरू देव जी महाराज के प्रति सच्ची निष्टा । भक्ति भाव । लगन । और पूर्ण विश्वास से ही सब काम बन जाता है । श्री सदगुरू देव जी महाराज को मनुष्य रूप में मत देखो । मत देखना । शिष्य के लिये श्री सदगुरू देव जी महाराज साक्षात परबृह्म भगवान ही है ।
गुरूर्बृह्मा गुरू:विर्ष्णु: गुरूर्देवो महेश्वर: । गुरू: साक्षात परबृह्म तस्मै श्रीगुरवे नम: ।
भगवत बुद्धि से श्री सदगुरू देव जी महाराज का ध्यान । दर्शन । पूजा । सेवा । भजन । आरती करते करते शरीर और मन जब शुद्ध हो जाते हैं । तब गुरू शिष्य को अपने दिव्य स्वरूप का दिव्य दर्शन देकर कृतार्थ कर देते हैं । शुद्ध आधार । शुद्ध मन । और श्री सदगुरू देव जी महाराज के प्रति शुद्ध भाव होने पर ही प्रभु के दर्शन होते हैं । संसार में अनेकों मठ है । जन कल्याण के लिये ही खुले हैं । इनसे जन कल्याण भारी संख्या में हो भी रहा है ।
सतयुग में ध्यान करने से । त्रेता में यज्ञ करने से । द्वापर में पूजा करने से । जो फ़ल प्राप्त होता है । वह फ़ल कलियुग में केवल श्री सदगुरू देव जी महाराज के नाम का जप करने से साधक प्राप्त कर लेता है । परन्तु ऐसा कोई बिरला ही कर पाता है । रात दिन भजन । सुमिरन हो तो क्या बात है । परन्तु होता नहीं । इसलिये मठ बनाने की आवश्यकता है ।
श्री स्वामी जी ने एक दिन कहा था - देखो कलि में सिर्फ़ नाम भजन से ही सब कुछ मिल सकता है । सैकडों करोडों अश्वमेघ यज्ञों से जो पुण्य फ़ल प्राप्त होता है । वह सम्पूर्ण फ़ल सिर्फ़ नाम भजन से ही मिल जाता है । लेकिन नाम भजन रात दिन नहीं हो पाता है । न कोई कर सकता है । रात दिन भजन सुमिरन हो सके । तो क्या पूछना । पर होता नहीं है । इसीलिये सेवा कार्य शुरू किया गया है । सेवा कार्य से खूब शक्ति आती है । और भक्ति मिलती है । निष्काम कर्म करने से
भगवान मिलते हैं । गीता में स्वयं श्रीकृष्ण ने कहा है -
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय: । असक्तो ह्याचरन कर्म परमाप्रोति पूरूष: ।
हिमालय में जाकर तपस्या किया । गेरूआ वस्त्र धारण कर लिया । घूम फ़िर कर । भिक्षा मांग कर भोजन कर लिया । और 2-4 श्लोक कण्ठस्थ करने मात्र से क्या कोई साधु हो जाता है ? साधु होने के लिये आध्यात्मिक प्रगति होनी चाहिये । आध्यात्मिक प्रगति एकमात्र श्री सदगुरू देव जी महाराज के द्वारा ही हो सकती है । श्री सदगुरू देव जी महाराज जीवों से दर्शन । पूजा । सेवा । भजन । सुमिरन । ध्यान । आरती करवा कर उन्हें रूहानी मंजिल तक पहुंचा देते हैं ।
यदि स्कूल नहीं रहेगा । तो कहाँ पर विधार्थी अध्ययन करेंगे ? अब कोई कहे कि क्या विधा अध्ययन जरूरी है । हाँ जरूरी है । जरूरी ही नहीं अनिवार्य है । कारण कि विधालय नहीं रहेगा । शिक्षा कहाँ से ग्रहण करेगा । विधा अध्ययन कैसे करेगा ? इसलिये मठ अनिवार्य हैं । मठ नहीं रहेगा । तो भजन करने वाले साधकों के लिये भजन की शिक्षा । दीक्षा । भजन की विधि कौन बतायेगा ? सेवा भाव कहां से आयेगा । बृह्मविधा कौन बतायेगा ? इसलिये मठ बनाना जरूरी है । जरूरी ही नहीं । अनिवार्य है ।
64 प्रश्न - 1 भक्त ने 1 सन्त की शरण में जाकर प्रार्थना करते हुए पूछा - प्रभु ! सदगुरू नाम में प्रेम हो । और उनमें चित्त कैसे लगे ? इसकी कोई युक्ति बताइये ।
उत्तर - सन्त ने फ़रमाया कि श्री सदगुरू भगवान के नाम का मूल्य एवं महत्त्व जब समझ में आ जाता है । तभी उसमें प्रेम होता है । और तभी भजन, सुमिरन में मन व चित्त लगता है ।
फ़िर भक्त ने कहा - महाराज ! मूल्य और महत्व तो कुछ कुछ समझ में आता है । परन्तु उसमें चित्त नहीं लगता ।
उत्तर - तुमको कुछ समझ में नहीं आया । यदि समझ में आ गया होता । तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि नाम के भजन सुमिरन में मन न लगे । फ़िर भक्त कहता है कि - नहीं महाराज ! ऐसा तो कदापि नहीं है ।
अब सन्त ने प्रश्न किया - अच्छा बताओ । तुम्हारी मासिक आय क्या है ? भक्त ने उत्तर दिया - लगभग 15000 रूपये ।
सन्त ने फ़रमाया कि अब विचार करो । और हिसाब लगाओ । इसका अर्थ है । 500 रूपया प्रतिदिन । अर्थात रात दिन मिलाकर 24 घण्टे में 500 रूपये । तो 1 घण्टे में लगभग 21 रूपये । और 1 मिनट में लगभग 35 पैसे । 1 मिनट में तुम 35 बार तो सदगुरू भगवान के नाम का स्मरण आसानी से कर सकते हो । अर्थात जितनी देर में तुम 1 पैसा कमाते हो । उतनी देर में 1 बार प्रभु के नाम का सुमिरन तो हो सकता है । इतने पर भी तुम पैसे के लिये तो हर पल चेष्टा करते हो । परन्तु नाम के भजन, सुमिरन के लिये नहीं । अब तुम बताओ कि क्या तुमने नाम भजन, सुमिरन का मूल्य एवं महत्त्व पैसे से भी कम नहीं समझा ?
बात भक्त की समझ में आ गई । उस दिन वह सांसारिक काम काज करने के साथ नियम पूर्वक नाम का भजन,
सुमिरन करने लगा ।
65 प्रश्न - भक्त कहता है कि मेरा मन भजन, ध्यान में नहीं लगता है । इसका उपाय बताइये ।
उत्तर - अपने श्री सदगुरू देव महाराज के प्रति पूर्ण श्रद्धा व प्रेम रखने से । उनके उपदेश को सुनने से । दरबार में बैठकर साधना करने से । मन शान्त होता है । और कृमश: भजन । सुमिरन । ध्यान में मन लगने लगता है । अर्थात जो अभ्यास साधक को करने को बताया गया है । यदि उसको दरबार में बैठकर करे । तब तो मन लगने लगता है । उसी अभ्यास को चहल पहल वाली जगह में बैठकर करने से । न मन भजन में लगता है । और न ध्यान ही । मन के अन्दर जमता है । पहले पहल अभ्यास के प्रारम्भ में अभ्यासियों को अभ्यास में रस तथा आनन्द कम होता है ।
66 प्रश्न - एक अभ्यासी ने पूछा - मन में यह इच्छा बार बार उठती है कि आन्तरिक चक्रों का जो हाल सन्तों के द्वारा सुना है । उनमें से पहला चक्र भजन ध्यान करते करते कुछ दिन के ही अभ्यास से खुल जाय । तो गुरू में और उनकी बतलाई हुई साधना में प्रेम और प्रतीत बढे । क्या ऐसा हो सकता है ?
उत्तर - प्रथम तो यह अभ्यास बहुत कठिन है । परन्तु यदि श्री सदगुरू देव महाराज की कृपा हो गई । तो यह चक्र खुल सकता है । खुलने के बाद साधक अन्दर में अपनी जगह बनाकर । कुछ दिन भजन सुमिरन का अभ्यास करेगा । और फ़िर वह चाहेगा कि हमारी साधना यानी भजन ध्यान की क्रिया सुचारू रूप से चले । और भजन, ध्यान में दिन प्रतिदिन प्रगाढता
बढती चली जाय । तथा मालिक के श्री चरणों में प्रीति बढती जाय । इस तरह वह भजन ध्यान में मन निरन्तर लगाये रहता है । इसी प्रकार से यदि श्री सदगुरू की कृपा से अन्दर में श्री सदगुरू देव जी महाराज का दर्शन बराबर मिलता रहा । तो दर्शन को बराबर करते रहना चाहिये । यह साधक के साधना की पहली कडी है । साधकों, शिष्यों को यह मालूम होना चाहिये कि आन्तरिक चक्रों की झलक दिखाई देना । व अन्दर में पहुंचकर भजन सुमिरन ध्यान की प्रक्रिया जारी करना । कोई साधारण बात नहीं है । फ़िर भी अभ्यास के साथ साथ जब तक सदाचार में पूर्णता न आ जाय । तब तक स्थिरता आना बहुत कठिन है । इसलिये श्री सदगुरू देव महाराज के आगे गिर कर त्राहिमाम त्राहिमाम करते हुए उनसे विनती करें कि मुझ पर दया करें । मुझ जैसे दीनहीन पर कृपा कर । भजन । सुमिरन । ध्यान मन में जमाकर इन चक्रों से आगे बढाने की कृपा करें । ऐसी विनती करते रहने से दया जरूर होती है ।
गुरू की मूरत बसी हिये में । आठ पहर संग रहाये । अस गुरू भक्ति करी जिन पूरी । तिन तिन नाम समाये । स्वाती बूंद जस रटत पपीहा । अस धुन नाम समाये । नाम प्रताप सुरत जब जागी । तब सुरत ऊपर चढ धाये ।
जब साधक नाम का सुमिरन, भजन और ध्यान करेगा । तब गुरू की दया वाली प्रीत जागेगी । तभी सुरत ऊपर की ओर प्रगतिशील होगी । भक्तजन को चाहिये कि नाम को श्वासों के द्वारा पकड कर निरन्तर नाम का भजन, सुमिरन करते रहें । जब नाम का भजन, सुमिरन पक्का हो जायेगा । तब ध्यान भी अच्छी तरह से आने लग जायेगा । इसीलिये श्री सदगुरू स्वरूप का
ध्यान करने और साथ ही साथ नाम जपने से दोनों का साथ सध जाता है । कहा गया है - सदगुरू शब्द स्वरूप हैं ।
भजन, सुमिरन और ध्यान करने में जो तरीका अपनाया जाता है । उसी को पूरा नहीं समझना चाहिये । बल्कि और भी ज्यादा से ज्यादा तजुर्बा हासिल करने की कोशिश करनी चाहिये । जैसे सत शास्त्रों को सुनना पढना । यानी पुस्तकीय जानकारी के साथ श्री सदगुरू देव जी महाराज से तरह तरह के तरीके की जानकारी करते रहना चाहिये । जिस प्रकार अभ्यास बढता जायेगा । नया नया तजुर्बा होता जायेगा ।
यदि नियमित रूप से भजन, सुमिरन, ध्यान किया जाय । जो धीरे धीरे ऐसा लगने लगेगा कि सदगुरू का स्वरूप धीरे धीरे नजदीक यानी हमारे अन्दर आता जा रहा है । सबसे आवश्यक बात यह है कि श्री सदगुरू देव जी महाराज के श्री चरणों में प्रीति और प्रतीत के साथ अभ्यास करता रहे । श्री स्वामी जी महाराज समझाते थे कि अभ्यास से अभिप्राय यह है कि - आत्म और मन जिनकी ग्रन्थि इस स्थूल यानी पिण्ड शरीर में बंधी हुई है । वह खुलने लगे । आत्मा मन के फ़न्दे से न्यारी हो । और उसकी चाल बृह्माण्ड की ओर हो । तथा चढाई करके सन्तों के देश दयालदेश तक पहुंचे ।
अभ्यास करते समय यानी भजन, सुमिरन व ध्यान करते समय मन को नाम के सुमिरन में एकाग्र करते करते मालिक यानी श्री सदगुरू देव जी महाराज के ही ध्यान में मन को स्थिर करना चाहिये । यदि कुछ देर बाद ख्याल या सुरति कहीं अन्यत्र चली जाय । तो भी उसको खींचकर श्री सदगुरू
देव के भजन ध्यान में बार बार लगाते रहना चाहिये । ऐसा करने से कृमश: धीरे धीरे मन भजन व ध्यान में लगने लग जायेगा । इसके बाद भी मन न लगे । तो श्री सदगुरू देव महाराज की आरती । वन्दना । गुरू चालीसा थोङा जोर जोर से भाव विभोर होकर गाना चाहिये । ऐसा करने से मन मालिक में लग जायेगा । ऐसा ख्याल रखना चाहिये कि मन हर वक्त श्री सदगुरू भगवान के प्रेम के रंग में रंगा रहे । प्रभु के ख्याल में डूबा रहे । ऐसा अभ्यास करते हुए मालिक के भजन, ध्यान में मन को सदा लगाते रहना चाहिये । सदा मन के बराबर प्रवाह को संसारी मोह माया की ओर से मोडकर मालिक में बराबर लगाते रहना चाहिये । यानी ख्याल को अन्तर्मुखी बनाये रखना चाहिये । ऐसा करते करते साधक अन्दर में ऊपर की ओर चढाई करने लगते हैं । इस प्रकार का प्रयोग करने से अभ्यास में आनन्द भी आता है । और मन भी लगने लग जाता हैं ।
अभ्यास करते समय भजन, ध्यान में अभ्यासी अपने मन और सुरत को सहसदल कमल पर जमावे । और कुछ देर के लिये अपनी सुरत को भजन, ध्यान या मानसिक पूजा में लगाये रखे । ऐसा करने से मन माया की तरफ़ से मुड जायेगा । और ऊपर की ओर जो चढाई है । उसका रस उसको अवश्य मिलने लग जायेगा । इसी तरह अभ्यास करते करते जब मन भजन, ध्यान में लग जायेगा । तो साधक धीरे धीरे भजन, सुमिरन, ध्यान के आनन्द में विभोर होता हुआ । आकर्षण में खिंचा हुआ । उस स्थान तक पहुंच जायेगा । जहां मालिक का स्थान है ।
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- ये शिष्य जिज्ञासा से सम्बन्धित प्रश्नोत्तरी श्री राजू मल्होत्रा द्वारा भेजी गयी है । आपका बहुत बहुत आभार ।
2-4 श्लोक कण्ठस्थ करने मात्र से क्या कोई साधु हो जाता है ?
उत्तर - भोजन शुद्ध विचारधारा से बनाना चाहिये । भोजन बनाने वाले पर काफ़ी कुछ निर्भर करता है । भोजन बनाने वाले को नित्य कर्म करके स्नान, ध्यान करके साफ़ सुथरे वस्त्र धारण कर साफ़ सफ़ाई से भोजन बनाना चाहिये । कहावत है - जैसा खाए अन्न । वैसा होवे मन । भोजन बडी शान्ति से मौन रहकर खुश दिल होकर बनाना चाहिये । भोजन बनाते समय बोलना नहीं चाहिये । क्योंकि वही भोजन आप अपने श्री सदगुरु देव जी महाराज को भोग लगाते हैं । भोजन सदा सात्विक करना कराना चाहिये । मनुष्य का शारीरिक गठन इतना भिन्न है कि सब लोगों के लिये 1 ही नियम नहीं बनाया जा सकता है । मान लीजिये । कोई वस्तु मुझे सहन होती है । परन्तु आपके शरीर को सहन नहीं होती है । मेरा शरीर किसी वस्तु को गृहण कर सकता है । आपका शरीर शायद उसे गृहण न कर सके । इसलिये हम लोगों को अपने शरीर के अनुकूल भोजन का चयन करना चाहिये । हाँ सात्विक भोजन ही खायें खिलायें । साधारण तौर पर यह कहा जा सकता है कि भोजन भारी न हो । ये सावधानी बनाये रखकर । जिसके पेट में जो सहता है । वैसा भोजन किया जा सकता है । भजन में सहायक भोजन करना चाहिये ।
62 प्रश्न - श्री स्वामी जी महाराज ! मंत्र जागृत किस स्थान पर जल्दी होता है ?
उत्तर - आश्रम में । मन्दिर में । पंचवटी में । नदी के किनारे । सागर के किनारे । शुद्ध पवित्र स्थान पर मंत्र जल्दी जाग्रत होता है । जो लोग ठीक ठीक भजन करते हैं । वे सहज ही कुछ दिन के बाद इसे जान सकते हैं । यह समझना कठिन नहीं है । श्री सदगुरू देव जी महाराज के प्रति एकनिष्ठ भाव तथा आचरण की शुद्धता से मन्त्र शीघ्र जाग्रत होता है ।
वाराणसी नगरी संसार से अलग है । महा चैतन्यमय स्थान है । यहीं पर गंगा तट के किनारे बैठकर भजन ध्यान करने वाले को 10 गुना अधिक फ़ल मिलता है । यहां छोटे बडे । धनी गरीब जो भी हैं । सभी को साधन भजन का पूर्ण अधिकार है । श्री सदगुरू देव जी महाराज सबको भक्ति । भजन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान । चिन्तन करने का पूर्ण अवसर देते हैं । श्री सदगुरू देव जी महाराज की वाणी है कि यहां पर रहने वाले सभी भक्त 1 दिन मुक्त हो जायेंगे । श्री सदगुरू स्वामी जी महाराज का दर्शन । पूजा । आरती । भजन । सुमिरन । सेवा । ध्यान । चिन्तन । मनन करने वाले भक्त का मन्त्र जाग्रत तो हो ही जाता है । परन्तु तपो भूमि की अपनी 1 विशेषता है । यहां पर रहकर भजन । सुमिरन । ध्यान । अर्चन । वन्दन । पूजन करने वाले को 10 गुना अधिक लाभ मिलता है । महापुरूषों की वाणी है - गुरूद्वारे में जहां सर कटने वाला हो । वहां खरोंच लगकर रह जाती है ।
तपस्थली का विशेष महत्त्व होता है । शिकार हमेशा जंगल में होता है । देखो । शिकारी हमेशा जंगल में शिकार
खेलने जाता है । शहर या घर में नहीं । ठीक उसी प्रकार भजन, तपस्या के लिये उचित स्थान आश्रम । तपस्थली । गुरूद्वारा है । कोई बिरला ही लाखों करोडों में गृहस्थी में रहकर मुक्ति पा सकता है । मन्त्र जाग्रत कर सकता है ।
63 प्रश्न - श्री सदगुरू स्वामी जी महाराज ! क्या मठ बनाना आवश्यक है ?
उत्तर - मठ का निर्माण आवश्यक है । मठ बनाने का प्रथम उद्देश्य जीव कल्याण है । इसलिये जरूरी है । इस संसार में बहुत सारे असहाय । दीन, दुखी । अबला । विधवा । अपंग है । जिनका संसार बहिष्कार करता है । उनका जीवन यापन सबसे सुन्दर तरीकों से मठों में ही होता है । उन्हें आश्रम ही सम्मानित जीवन देता है । मठ में ऐसे दीन दुखियों को दिशा मिलती है । आत्म प्रेरणा मिलती है । जिन्होंने आश्रम का आश्रय लिया । उन्हें संसार सागर से पार जाने का रास्ता श्री सदगुरू देव जी महाराज ही दिखाते हैं । उनकी समस्त बाधाओं को वे दूर कर देते हैं । गुरू वाक्य में विश्वास रखो । जिसने भी गुरू वाणी पर विश्वास कर उनके वचनों का अक्षरश: पालन किया है । जैसा प्रभु कहें । वैसा करते गया है । उनके मन का सारा मैल धुल जाता है । और धीरे धीरे ज्ञान का प्रकाश आने लगता है । श्री सदगुरू देव जी महाराज के प्रति सच्ची निष्टा । भक्ति भाव । लगन । और पूर्ण विश्वास से ही सब काम बन जाता है । श्री सदगुरू देव जी महाराज को मनुष्य रूप में मत देखो । मत देखना । शिष्य के लिये श्री सदगुरू देव जी महाराज साक्षात परबृह्म भगवान ही है ।
गुरूर्बृह्मा गुरू:विर्ष्णु: गुरूर्देवो महेश्वर: । गुरू: साक्षात परबृह्म तस्मै श्रीगुरवे नम: ।
भगवत बुद्धि से श्री सदगुरू देव जी महाराज का ध्यान । दर्शन । पूजा । सेवा । भजन । आरती करते करते शरीर और मन जब शुद्ध हो जाते हैं । तब गुरू शिष्य को अपने दिव्य स्वरूप का दिव्य दर्शन देकर कृतार्थ कर देते हैं । शुद्ध आधार । शुद्ध मन । और श्री सदगुरू देव जी महाराज के प्रति शुद्ध भाव होने पर ही प्रभु के दर्शन होते हैं । संसार में अनेकों मठ है । जन कल्याण के लिये ही खुले हैं । इनसे जन कल्याण भारी संख्या में हो भी रहा है ।
सतयुग में ध्यान करने से । त्रेता में यज्ञ करने से । द्वापर में पूजा करने से । जो फ़ल प्राप्त होता है । वह फ़ल कलियुग में केवल श्री सदगुरू देव जी महाराज के नाम का जप करने से साधक प्राप्त कर लेता है । परन्तु ऐसा कोई बिरला ही कर पाता है । रात दिन भजन । सुमिरन हो तो क्या बात है । परन्तु होता नहीं । इसलिये मठ बनाने की आवश्यकता है ।
श्री स्वामी जी ने एक दिन कहा था - देखो कलि में सिर्फ़ नाम भजन से ही सब कुछ मिल सकता है । सैकडों करोडों अश्वमेघ यज्ञों से जो पुण्य फ़ल प्राप्त होता है । वह सम्पूर्ण फ़ल सिर्फ़ नाम भजन से ही मिल जाता है । लेकिन नाम भजन रात दिन नहीं हो पाता है । न कोई कर सकता है । रात दिन भजन सुमिरन हो सके । तो क्या पूछना । पर होता नहीं है । इसीलिये सेवा कार्य शुरू किया गया है । सेवा कार्य से खूब शक्ति आती है । और भक्ति मिलती है । निष्काम कर्म करने से
भगवान मिलते हैं । गीता में स्वयं श्रीकृष्ण ने कहा है -
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय: । असक्तो ह्याचरन कर्म परमाप्रोति पूरूष: ।
हिमालय में जाकर तपस्या किया । गेरूआ वस्त्र धारण कर लिया । घूम फ़िर कर । भिक्षा मांग कर भोजन कर लिया । और 2-4 श्लोक कण्ठस्थ करने मात्र से क्या कोई साधु हो जाता है ? साधु होने के लिये आध्यात्मिक प्रगति होनी चाहिये । आध्यात्मिक प्रगति एकमात्र श्री सदगुरू देव जी महाराज के द्वारा ही हो सकती है । श्री सदगुरू देव जी महाराज जीवों से दर्शन । पूजा । सेवा । भजन । सुमिरन । ध्यान । आरती करवा कर उन्हें रूहानी मंजिल तक पहुंचा देते हैं ।
यदि स्कूल नहीं रहेगा । तो कहाँ पर विधार्थी अध्ययन करेंगे ? अब कोई कहे कि क्या विधा अध्ययन जरूरी है । हाँ जरूरी है । जरूरी ही नहीं अनिवार्य है । कारण कि विधालय नहीं रहेगा । शिक्षा कहाँ से ग्रहण करेगा । विधा अध्ययन कैसे करेगा ? इसलिये मठ अनिवार्य हैं । मठ नहीं रहेगा । तो भजन करने वाले साधकों के लिये भजन की शिक्षा । दीक्षा । भजन की विधि कौन बतायेगा ? सेवा भाव कहां से आयेगा । बृह्मविधा कौन बतायेगा ? इसलिये मठ बनाना जरूरी है । जरूरी ही नहीं । अनिवार्य है ।
64 प्रश्न - 1 भक्त ने 1 सन्त की शरण में जाकर प्रार्थना करते हुए पूछा - प्रभु ! सदगुरू नाम में प्रेम हो । और उनमें चित्त कैसे लगे ? इसकी कोई युक्ति बताइये ।
उत्तर - सन्त ने फ़रमाया कि श्री सदगुरू भगवान के नाम का मूल्य एवं महत्त्व जब समझ में आ जाता है । तभी उसमें प्रेम होता है । और तभी भजन, सुमिरन में मन व चित्त लगता है ।
फ़िर भक्त ने कहा - महाराज ! मूल्य और महत्व तो कुछ कुछ समझ में आता है । परन्तु उसमें चित्त नहीं लगता ।
उत्तर - तुमको कुछ समझ में नहीं आया । यदि समझ में आ गया होता । तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि नाम के भजन सुमिरन में मन न लगे । फ़िर भक्त कहता है कि - नहीं महाराज ! ऐसा तो कदापि नहीं है ।
अब सन्त ने प्रश्न किया - अच्छा बताओ । तुम्हारी मासिक आय क्या है ? भक्त ने उत्तर दिया - लगभग 15000 रूपये ।
सन्त ने फ़रमाया कि अब विचार करो । और हिसाब लगाओ । इसका अर्थ है । 500 रूपया प्रतिदिन । अर्थात रात दिन मिलाकर 24 घण्टे में 500 रूपये । तो 1 घण्टे में लगभग 21 रूपये । और 1 मिनट में लगभग 35 पैसे । 1 मिनट में तुम 35 बार तो सदगुरू भगवान के नाम का स्मरण आसानी से कर सकते हो । अर्थात जितनी देर में तुम 1 पैसा कमाते हो । उतनी देर में 1 बार प्रभु के नाम का सुमिरन तो हो सकता है । इतने पर भी तुम पैसे के लिये तो हर पल चेष्टा करते हो । परन्तु नाम के भजन, सुमिरन के लिये नहीं । अब तुम बताओ कि क्या तुमने नाम भजन, सुमिरन का मूल्य एवं महत्त्व पैसे से भी कम नहीं समझा ?
बात भक्त की समझ में आ गई । उस दिन वह सांसारिक काम काज करने के साथ नियम पूर्वक नाम का भजन,
सुमिरन करने लगा ।
65 प्रश्न - भक्त कहता है कि मेरा मन भजन, ध्यान में नहीं लगता है । इसका उपाय बताइये ।
उत्तर - अपने श्री सदगुरू देव महाराज के प्रति पूर्ण श्रद्धा व प्रेम रखने से । उनके उपदेश को सुनने से । दरबार में बैठकर साधना करने से । मन शान्त होता है । और कृमश: भजन । सुमिरन । ध्यान में मन लगने लगता है । अर्थात जो अभ्यास साधक को करने को बताया गया है । यदि उसको दरबार में बैठकर करे । तब तो मन लगने लगता है । उसी अभ्यास को चहल पहल वाली जगह में बैठकर करने से । न मन भजन में लगता है । और न ध्यान ही । मन के अन्दर जमता है । पहले पहल अभ्यास के प्रारम्भ में अभ्यासियों को अभ्यास में रस तथा आनन्द कम होता है ।
66 प्रश्न - एक अभ्यासी ने पूछा - मन में यह इच्छा बार बार उठती है कि आन्तरिक चक्रों का जो हाल सन्तों के द्वारा सुना है । उनमें से पहला चक्र भजन ध्यान करते करते कुछ दिन के ही अभ्यास से खुल जाय । तो गुरू में और उनकी बतलाई हुई साधना में प्रेम और प्रतीत बढे । क्या ऐसा हो सकता है ?
उत्तर - प्रथम तो यह अभ्यास बहुत कठिन है । परन्तु यदि श्री सदगुरू देव महाराज की कृपा हो गई । तो यह चक्र खुल सकता है । खुलने के बाद साधक अन्दर में अपनी जगह बनाकर । कुछ दिन भजन सुमिरन का अभ्यास करेगा । और फ़िर वह चाहेगा कि हमारी साधना यानी भजन ध्यान की क्रिया सुचारू रूप से चले । और भजन, ध्यान में दिन प्रतिदिन प्रगाढता
बढती चली जाय । तथा मालिक के श्री चरणों में प्रीति बढती जाय । इस तरह वह भजन ध्यान में मन निरन्तर लगाये रहता है । इसी प्रकार से यदि श्री सदगुरू की कृपा से अन्दर में श्री सदगुरू देव जी महाराज का दर्शन बराबर मिलता रहा । तो दर्शन को बराबर करते रहना चाहिये । यह साधक के साधना की पहली कडी है । साधकों, शिष्यों को यह मालूम होना चाहिये कि आन्तरिक चक्रों की झलक दिखाई देना । व अन्दर में पहुंचकर भजन सुमिरन ध्यान की प्रक्रिया जारी करना । कोई साधारण बात नहीं है । फ़िर भी अभ्यास के साथ साथ जब तक सदाचार में पूर्णता न आ जाय । तब तक स्थिरता आना बहुत कठिन है । इसलिये श्री सदगुरू देव महाराज के आगे गिर कर त्राहिमाम त्राहिमाम करते हुए उनसे विनती करें कि मुझ पर दया करें । मुझ जैसे दीनहीन पर कृपा कर । भजन । सुमिरन । ध्यान मन में जमाकर इन चक्रों से आगे बढाने की कृपा करें । ऐसी विनती करते रहने से दया जरूर होती है ।
गुरू की मूरत बसी हिये में । आठ पहर संग रहाये । अस गुरू भक्ति करी जिन पूरी । तिन तिन नाम समाये । स्वाती बूंद जस रटत पपीहा । अस धुन नाम समाये । नाम प्रताप सुरत जब जागी । तब सुरत ऊपर चढ धाये ।
जब साधक नाम का सुमिरन, भजन और ध्यान करेगा । तब गुरू की दया वाली प्रीत जागेगी । तभी सुरत ऊपर की ओर प्रगतिशील होगी । भक्तजन को चाहिये कि नाम को श्वासों के द्वारा पकड कर निरन्तर नाम का भजन, सुमिरन करते रहें । जब नाम का भजन, सुमिरन पक्का हो जायेगा । तब ध्यान भी अच्छी तरह से आने लग जायेगा । इसीलिये श्री सदगुरू स्वरूप का
ध्यान करने और साथ ही साथ नाम जपने से दोनों का साथ सध जाता है । कहा गया है - सदगुरू शब्द स्वरूप हैं ।
भजन, सुमिरन और ध्यान करने में जो तरीका अपनाया जाता है । उसी को पूरा नहीं समझना चाहिये । बल्कि और भी ज्यादा से ज्यादा तजुर्बा हासिल करने की कोशिश करनी चाहिये । जैसे सत शास्त्रों को सुनना पढना । यानी पुस्तकीय जानकारी के साथ श्री सदगुरू देव जी महाराज से तरह तरह के तरीके की जानकारी करते रहना चाहिये । जिस प्रकार अभ्यास बढता जायेगा । नया नया तजुर्बा होता जायेगा ।
यदि नियमित रूप से भजन, सुमिरन, ध्यान किया जाय । जो धीरे धीरे ऐसा लगने लगेगा कि सदगुरू का स्वरूप धीरे धीरे नजदीक यानी हमारे अन्दर आता जा रहा है । सबसे आवश्यक बात यह है कि श्री सदगुरू देव जी महाराज के श्री चरणों में प्रीति और प्रतीत के साथ अभ्यास करता रहे । श्री स्वामी जी महाराज समझाते थे कि अभ्यास से अभिप्राय यह है कि - आत्म और मन जिनकी ग्रन्थि इस स्थूल यानी पिण्ड शरीर में बंधी हुई है । वह खुलने लगे । आत्मा मन के फ़न्दे से न्यारी हो । और उसकी चाल बृह्माण्ड की ओर हो । तथा चढाई करके सन्तों के देश दयालदेश तक पहुंचे ।
अभ्यास करते समय यानी भजन, सुमिरन व ध्यान करते समय मन को नाम के सुमिरन में एकाग्र करते करते मालिक यानी श्री सदगुरू देव जी महाराज के ही ध्यान में मन को स्थिर करना चाहिये । यदि कुछ देर बाद ख्याल या सुरति कहीं अन्यत्र चली जाय । तो भी उसको खींचकर श्री सदगुरू
देव के भजन ध्यान में बार बार लगाते रहना चाहिये । ऐसा करने से कृमश: धीरे धीरे मन भजन व ध्यान में लगने लग जायेगा । इसके बाद भी मन न लगे । तो श्री सदगुरू देव महाराज की आरती । वन्दना । गुरू चालीसा थोङा जोर जोर से भाव विभोर होकर गाना चाहिये । ऐसा करने से मन मालिक में लग जायेगा । ऐसा ख्याल रखना चाहिये कि मन हर वक्त श्री सदगुरू भगवान के प्रेम के रंग में रंगा रहे । प्रभु के ख्याल में डूबा रहे । ऐसा अभ्यास करते हुए मालिक के भजन, ध्यान में मन को सदा लगाते रहना चाहिये । सदा मन के बराबर प्रवाह को संसारी मोह माया की ओर से मोडकर मालिक में बराबर लगाते रहना चाहिये । यानी ख्याल को अन्तर्मुखी बनाये रखना चाहिये । ऐसा करते करते साधक अन्दर में ऊपर की ओर चढाई करने लगते हैं । इस प्रकार का प्रयोग करने से अभ्यास में आनन्द भी आता है । और मन भी लगने लग जाता हैं ।
अभ्यास करते समय भजन, ध्यान में अभ्यासी अपने मन और सुरत को सहसदल कमल पर जमावे । और कुछ देर के लिये अपनी सुरत को भजन, ध्यान या मानसिक पूजा में लगाये रखे । ऐसा करने से मन माया की तरफ़ से मुड जायेगा । और ऊपर की ओर जो चढाई है । उसका रस उसको अवश्य मिलने लग जायेगा । इसी तरह अभ्यास करते करते जब मन भजन, ध्यान में लग जायेगा । तो साधक धीरे धीरे भजन, सुमिरन, ध्यान के आनन्द में विभोर होता हुआ । आकर्षण में खिंचा हुआ । उस स्थान तक पहुंच जायेगा । जहां मालिक का स्थान है ।
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- ये शिष्य जिज्ञासा से सम्बन्धित प्रश्नोत्तरी श्री राजू मल्होत्रा द्वारा भेजी गयी है । आपका बहुत बहुत आभार ।
2-4 श्लोक कण्ठस्थ करने मात्र से क्या कोई साधु हो जाता है ?
2 टिप्पणियां:
कृपया कर हरी ॐ तत सत का विवरण सहित अर्थ बताने की कृपया हम पर करें क्युकी पूरे गूगल पर कहीं पर भी उपलब्ध नहीं है हिंदी में
हरी ॐ तत सत का विवरण सहित अर्थ मेरे सत्यकीखोज आत्मज्ञान नामक ब्लाग पर - हरि ॐ तत सत का रहस्य.. शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है ।
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