74 प्रश्न - महाराज जी ! कभी कभी भजन ध्यान का अभ्यास करते समय सिर और आंखों में दर्द होने लगता है । इसका क्या उपाय करें ?
उत्तर - ऐसे समय में यह अच्छा है कि धीरे धीरे अभ्यास को बढाना चाहिये । ऐसा करने से यदि दर्द सिर में या आंखों में होने लगे । तो कुछ देर के लिये अभ्यास बन्द करके आराम कर ले । घूम टहल ले । कुछ देर के विश्राम के बाद अभ्यास करे । विश्राम कर लेने के बाद पुन: अभ्यास आरम्भ कर देना चाहिये । विश्राम कर लेने पर दर्द शान्त हो जायेगा । यानी दर्द ठीक हो जायेगा । जब अभ्यासी अपनी सुरत को ऊपर की ओर चढाता है । या खींचता है । तो उसमें आंख की पुतली ऊपर की ओर खिंचती है । और उसमें जोर लगता है । इसी से आंख में तथा सिर में दर्द होता है । जो अनावश्यक है । जब तक आदत न पड जाय । तब तक जबरदस्ती नहीं करना चाहिये । जितना जितना सहन होता जावे । उतना ही जोर लगाना चाहिये । उससे अधिक जोर लगाने से रक्त का दबाव ऊपर की तरफ़ आवश्यकता से अधिक होने लगता है । और नाडियों में खून अधिक भर जाने के कारण दर्द होने लगता है । यह एक अनावश्यक कार्य है । भजन । सुमिरन । ध्यान । सुख आसन पर बैठकर आराम पूर्वक सहजता सरलता के साथ आराम और आसानी के साथ करना चाहिये । सहज योग में सहजता के साथ साधना करना चाहिये । जबरदस्ती करनें में हठ योग कहलाने लगता है ।
साधक का भजन । सुमिरन । ध्यान के करने में जितना मन लगेगा । उतना ही आनन्द आएगा । आनन्द मिलने
पर ही उत्साह बढता जाता है । और उसके साथ साथ अभ्यास का समय तथा ध्यान में आनन्द बढता जाता है । कभी कभी तो ऐसा हो जाता है कि भजन, ध्यान में बैठकर समय का पता नहीं लगता कि कितना समय बीत गया । ऐसी दशा में यह आवश्यक है कि भजन, अभ्यास में बैठते समय यह इरादा करके बैठे कि एक घंटा, दो घण्टा या जितनी देर बैठने की मन में इच्छा हो । इरादा करके बैठे कि इतनी देर भजन, सुमिरन व ध्यान के साधना करूंगा । ऐसा करने से सुरत निश्चित समय पर नीचे उतर आवेगी । और आप जितना सोच कर बैठे हैं कि इतना अभ्यास करूंगा । वह भी पूरा हो जायेगा ।
जिसे सन्त सदगुरू के श्री चरणों का भरोसा है । और अपने श्री सदगुरू देव महाराज के श्री चरण कमलों में जिसका चित्त जुडा हुआ है । श्री सदगुरू सदा उनके साथ हैं । और सदा उसके रक्षक तथा उसके सहाई हैं । श्री सदगुरू देव जी महाराज का भजन, ध्यान ही जीव का सच्चा संगी साथी है । यही इस लोक में भी तथा परलोक में भी रक्षक है । यही भजन, ध्यान ही सर्व सुखों की खान है । यदि श्री सदगुरू का भजन, ध्यान नियमित नियमानुसार चलता रहा हो । उस जीव का सदा कल्याण है ।
सतगुरू सम हितू कोई नहीं । देखा सब संसार । प्रणत पाल गुरूदेव जी । पल पल करैं संभार ।
सन्त महापुरूषों का कहना है कि संसारी भोग विलास ह्रदय के अन्दर ठौर न पाने पावें । अगर उन्होंने दिल में घर कर लिया । तो अन्दर ह्रदय में श्री सदगुरू भगवान का दर्शन होने में बाधा होगी ।
दिल है तेरा एक । इसमें ऐ हाजी । उलफ़तें दो दो । समा सकतीं नहीं ।
माया और भक्ति दोनों का एक साथ रहना सम्भव नहीं है । यह दिल मालिक का मन्दिर है । श्री सदगुरू देव जी महाराज की उपासना का स्थान है । मायावी विषय विकारों के लिये इसे मुसाफ़िर खाना नहीं बनाना चाहिये । इसे विषय वासना का घर बनाकर नहीं रखना चाहिये । यह एक देवालय है । यह पूजा का सर्वश्रेष्ठ यानी पवित्र मन्दिर है । इसे साफ़ सुथरा एवं शुद्ध तथा पवित्र बनाये रखना चाहिये । अत: सांसारिक सुख ऐश्वर्यों में मन को नहीं फ़ंसाना चाहिये । सन्तों महापुरूषों का कहना है कि श्री सदगुरू देव जी महाराज के उपदेशानुसार भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान करते हुए सदा धार्मिक रीति से चलते हुए जीवन व्यतीत करना ही साधकों, गुरूमुखों का परम धर्म है । भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । ध्यान । दर्शन । नियमित नियमानुसार सदा सदा करते रहना चाहिये । यही साधक के जीवन की पूंजी है । जिस पर आचरण कर लोक तथा परलोक में सुख की प्राप्ति होती है ।
प्रत्येक साधक व अभ्यासी की मनोदशा अलग अलग होती है । पर यह तीन बातों पर निर्भर है - 1 उसके पिछले तथा वर्तमान जन्मों के कर्मों का प्रभाव । 2 परमार्थ की प्राप्ति की कितनी तडप है । तथा कितनी विरह वेदना उसके मन में पैदा हो चुकी है । 3 सन्त सदगुरू के श्री चरण कमलों में साधक को भजन । सुमिरन । ध्यान में रस मिलता है । तथा उसका मन भजन । सुमिरन । ध्यान में लगता है । अर्थात प्रत्येक अभ्यासी को चाहिये कि बराबर अपनी हालत पर दृष्टि रखता रहे । यानी इस बात की परख करता रहे कि उसकी क्या स्थिति है । जब किसी बात में कमी दिखे । तो सच्चे मन से सुधार करने का प्रयत्न करे । श्री सदगुरू देव जी महाराज की दया के बिना विवेक की उत्तपत्ति नहीं होती । और सदगुरू की कृपा के बिना सहज में ही सत संगति की प्राप्ति नहीं होती । सदगुरू की दया व उनकी संगति आनन्द व कल्याण का मूल है । श्री सदगुरू की संगति की प्राप्ति ही सभी सुखों का फ़ल है । और सभी साधक फ़ूल है । श्री सदगुरू की संगति पाकर दुष्ट भी उसी तरह सुधर जाते हैं । जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावन बन जाता है । अर्थात सोने में परिवर्तित हो जाता है । फ़िर भी प्रभु से क्षमा प्रर्थना करता रहे । दया और कृपा की याचना करता रहे । तथा भविष्य के लिये पूर्णरूप से सतर्क रहे कि जो त्रुटि अब तक हो गई है । दुबारा न हो जाय । इसको पूरी तरह से याद रखो । फ़िर भी सच्चे मन से प्रयत्न करने से प्रभु की कृपा का सहारा मिल जाता है । और भजन । सुमिरन । ध्यान की साधना में मन का ठहराव अधिक होने लगता है । तथा निर्मल रस व आनन्द मिलने लगता है । इसी प्रकार धीरे धीरे अन्दर की सफ़ाई होती रहती है । और साधक को स्वयं अपने आध्यात्मिक उन्नति का आभास होने लगता है ।
बहुधा ऐसा होता है कि किसी किसी अभ्यासी को भजन, ध्यान करते समय अन्दर में गुरू के स्वरूप के दर्शन कभी होते हैं । कभी नहीं होते हैं । तो न होने की दशा में निराश नहीं होना चाहिये । और यह सोच कर हताश नहीं होना चाहिये कि मेरे अभ्यास में बहुत बडी कमी है । साधक को चाहिये कि जिस आन्तरिक केन्द्र पर श्री सदगुरू ने उसे अभ्यास करने को बताया है । उसी स्थान पर सुरत या मन को जमाकर सहसदल कमल पर ठहरने लगेंगे । और भजन, सुमिरन, ध्यान में मन लगने लगेगा । यदि मन नहीं ठहरता । तो इसका एकमात्र कारण यही है कि भजन, सुमिरन, ध्यान नियमित नियमानुसार नहीं हो रहा है । और अन्दर में या बाहर में सदगुरू के प्रति प्रेम में कमी पड रही है । यदि श्री सदगुरू के प्रति प्यार होगा । तो अवश्य ही उस प्यार की डोर के द्वारा या सहारे मन व सुरत की धार ऊपर की ओर चढेगी । और जब ऊपर चढेगी । तो भजन, सुमिरन, ध्यान का आनन्द अवश्य प्राप्त होगा । इसमें कोई संशय नहीं है । इसलिये साधक के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि प्रेम तथा श्रद्धा के साथ अभ्यास करता रहे । यदि प्रेम में कोई कसर है । और चाव भी कम है । तो ख्याली तौर पर साधक को चाहिये कि श्री सदगुरू देव जी महाराज के श्री चरणों में माथा रखकर दीन भाव से, आर्तभाव से प्रेम की भीख मांगे । इसी प्रकार बारबार दीन भाव से प्रार्थना करने से अवश्य ही प्रेम व दया की बख्शीश होती है । प्रेम की प्राप्ति होने पर उस प्रेम रूपी पौधे को
श्रद्धा के जल से निरन्तर सींचता रहे । बार बार या जब जब याद आ जाय । तब तब ख्याली तौर पर श्री सदगुरू भगवान के श्री चरणों में सिर झुकाकर बारम्बार दण्डवत प्रणाम करते रहना चाहिये । इस प्रकार करते करते भजन, सुमिरन, ध्यान के करने में रस मिलने लग जायेगा । और सदगुरू का दर्शन अन्दर में होता रहेगा । इस प्रकार के दर्शन को सन्त सदगुरू की असली दया और कृपा का सूचक समझना चाहिये । जब कभी इस प्रकार के दर्शन मिल जाते हैं । तो साधक की प्रीति और प्रतीति बढ जाती है ।
साधक को चाहिये कि सत्यराज्य के प्रत्येक चक्र पर या मण्डल पर अपने श्री सदगुरू द्वारा बताया हुआ भजन, सुमिरन, ध्यान का अभ्यास बढाता जाय । किसी किसी सन्त ने तो ऐसा कहा है कि एक चक्र पर या मण्डल पर कम से कम दो वर्ष अभ्यास करें । किन्तु यह कोई आवश्यक नहीं है । यह तो साधना पर व प्रेम व निष्ठा पर निर्भर करता है । उसके पुरूषार्थ पर निर्भर करता है । प्रत्येक साधक की अलग अलग स्थिति होती है । उसी के अनुसार उसकी सुरत की चाल होती है । और फ़िर इस सिलसिले में सदगुरू कृपा पर बहुत कुछ निर्भर करता है । प्रत्येक साधक की अलग अलग स्थिति होती है । उसी के अनुसार उसकी सुरत की चाल होती है । और फ़िर इस सिलसिले में सदगुरू कृपा पर बहुत कुछ निर्भर करता है । जितना जिसका सदगुरू के प्रति समर्पण होगा ।
जितना कोई अपने आपको श्री सदगुरू में लय कर चुका होगा । जितना जिसका गुरू के प्रति और गुरू समाज के प्रति आचरण उज्जवल हो चुका होगा । उसी के अनुसार उसकी प्रगति होगी । दशम 10 द्वार या सतलोक तक । या अलख । अगम लोक तथा अनामी पद तक अपनी सुरत को पहुंचाकर वहां ठहर जायं । इसमें एक जन्म भी लग सकता है । और कई जन्म भी । पर बिना श्री सदगुरू देव जी महाराज की असीम कृपा व दया के यह किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है ।
श्री सदगुरू देव जी महाराज की दया रूपी शरण संगति में साधक को धर्म । अर्थ । काम । मोक्ष चारों फ़ल प्राप्त होते हैं । तथा उनकी संगति से साधक के मन के सारे विकार दूर हो जाते हैं । जिस प्रकार पारस के स्पर्श से लोहा सुन्दर कंचन बन जाता है । उसी प्रकार श्री सदगुरू देव जी महाराज की पावन संगति से साधक का मन भी उज्जवल एवं निर्मल बन जाता है । यह पूर्ण सत्य है । श्री सदगुरू की ही शरण संगति में तो साधक के मलिन मन की पूरी तरह साफ़ सफ़ाई होती है ।
गुरू नाम सुमिरण किये । तन मन निर्मल होय । तिस सौभागी जीव का । पला न पकडे कोय ।
रूहानी शब्द - आपको हर पल याद करूं । हिरदय में ए सदगुरू । सदा आप ही का ध्यान धरूं ।
भूलीं न इक पल भी । सुमिरन भजन सदा करूं । हो आपका ही दर्शन ।
यही कामना है मेरी । मेरे रोम रोम सदगुरू । छवि प्यारी बसी हो आपकी ।
जग की न चाह रहे । बस आप ही आप सदगुरू । हिरदय में बसें मेरे ।
युग युग तू ही तू । बनूं दास आपका । आपकी सेवा पूजा ही । सदगुरू हो धर्म मेरा ।
सन्त महापुरूषों का कहना है कि साधक के लिये सदगुरू की भक्ति करना ही मुख्य आधार है । श्री सदगुरू देव जी महाराज के कमलवत श्री चरणों को पकड लें । और अपने आपको उनको पूरी तरह से समर्पण कर दें । यदि साधक अपने को पूरी तरह से श्री सदगुरू देव में विलीन कर दे । अपना आपा भाव खत्म हो जाय । तो श्री सदगुरू देव जी महाराज की भक्ति आसानी से प्राप्त हो जाती है ।
सदगुरू शिष की आतमा । शिष सतगुरू की देह । लखा जो चाहे अलख को । इनहीं में लख लेय ।
यह बहुत कठिन कार्य है । कोई विरला साधक, जिज्ञासु ही यहां तक पहुंच सकता है । पर जिसके पूर्व जन्म के संस्कार अच्छे हों । केवल थोडी कसर रह गई हो । उस साधक को उत्साह के साथ सोचना तथा करना भी चाहिये कि मेरे पूर्व जन्म के संस्कार अच्छे रहे हैं । और अच्छे हैं भी । तथा आगे भी मालिक की दया से अच्छे रहेंगे । शेष सभी अपनी अपनी योग्यता तथा संस्कार के अनुसार पाते हैं ।
रास्ता चलता जाय । निराश नहीं होना चाहिये । यदि रास्ते पर बराबर चलता रहे । तो एक न एक दिन मंजिल पर पहुंच ही जायेगा । किन्तु मनुष्य जन्म अनमोल है । यह जन्म बार बार नहीं मिलता । इसे अमूल्य मानकर इसी जन्म में अपने लक्ष्य तक पहुंचाने का प्रयास करना चाहिये ।
इसलिये हर समय श्री सदगुरू देव जी महाराज के भजन, सुमिरन, ध्यान और सेवा पूजा को तरजीह देने चाहिये । ताकि भक्ति की ताकत पैदा हो । क्योंकि इसी एक बात के अन्दर बन्धन और मोक्ष का भेद छिपा हुआ है । जिस
सेवक के दिल में मालिक के प्रति श्रद्धा और प्रेम दोनों बने रहते हैं । उसका एक न एक दिन अवश्य उद्धार होगा । क्योंकि मालिक का प्रेम तथ नाम का भजन और भक्ति संसार के मोह पाश को तोडेगा । मालिक की भक्ति की शक्ति जिसमें उत्पन्न हो गयी । उसी भक्त पर मालिक की खास दया समझनी चाहिये । क्योंकि श्री सदगुरू देव जी महाराज के श्री चरणों की भक्ति ऐसी है । जो मालिक और भक्त के बीच जितने पर्दे हैं । उन सबको साफ़ करके जीव को मोक्ष की प्राप्ति करा देती है ।
दासनदास ने भी गहा । सदगुरू चरण तुम्हार । अवगुण हार चरणन पडा । कर दो अब उद्धार ।
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- ये शिष्य जिज्ञासा से सम्बन्धित प्रश्नोत्तरी श्री राजू मल्होत्रा द्वारा भेजी गयी है । आपका बहुत बहुत आभार ।
उत्तर - ऐसे समय में यह अच्छा है कि धीरे धीरे अभ्यास को बढाना चाहिये । ऐसा करने से यदि दर्द सिर में या आंखों में होने लगे । तो कुछ देर के लिये अभ्यास बन्द करके आराम कर ले । घूम टहल ले । कुछ देर के विश्राम के बाद अभ्यास करे । विश्राम कर लेने के बाद पुन: अभ्यास आरम्भ कर देना चाहिये । विश्राम कर लेने पर दर्द शान्त हो जायेगा । यानी दर्द ठीक हो जायेगा । जब अभ्यासी अपनी सुरत को ऊपर की ओर चढाता है । या खींचता है । तो उसमें आंख की पुतली ऊपर की ओर खिंचती है । और उसमें जोर लगता है । इसी से आंख में तथा सिर में दर्द होता है । जो अनावश्यक है । जब तक आदत न पड जाय । तब तक जबरदस्ती नहीं करना चाहिये । जितना जितना सहन होता जावे । उतना ही जोर लगाना चाहिये । उससे अधिक जोर लगाने से रक्त का दबाव ऊपर की तरफ़ आवश्यकता से अधिक होने लगता है । और नाडियों में खून अधिक भर जाने के कारण दर्द होने लगता है । यह एक अनावश्यक कार्य है । भजन । सुमिरन । ध्यान । सुख आसन पर बैठकर आराम पूर्वक सहजता सरलता के साथ आराम और आसानी के साथ करना चाहिये । सहज योग में सहजता के साथ साधना करना चाहिये । जबरदस्ती करनें में हठ योग कहलाने लगता है ।
साधक का भजन । सुमिरन । ध्यान के करने में जितना मन लगेगा । उतना ही आनन्द आएगा । आनन्द मिलने
पर ही उत्साह बढता जाता है । और उसके साथ साथ अभ्यास का समय तथा ध्यान में आनन्द बढता जाता है । कभी कभी तो ऐसा हो जाता है कि भजन, ध्यान में बैठकर समय का पता नहीं लगता कि कितना समय बीत गया । ऐसी दशा में यह आवश्यक है कि भजन, अभ्यास में बैठते समय यह इरादा करके बैठे कि एक घंटा, दो घण्टा या जितनी देर बैठने की मन में इच्छा हो । इरादा करके बैठे कि इतनी देर भजन, सुमिरन व ध्यान के साधना करूंगा । ऐसा करने से सुरत निश्चित समय पर नीचे उतर आवेगी । और आप जितना सोच कर बैठे हैं कि इतना अभ्यास करूंगा । वह भी पूरा हो जायेगा ।
जिसे सन्त सदगुरू के श्री चरणों का भरोसा है । और अपने श्री सदगुरू देव महाराज के श्री चरण कमलों में जिसका चित्त जुडा हुआ है । श्री सदगुरू सदा उनके साथ हैं । और सदा उसके रक्षक तथा उसके सहाई हैं । श्री सदगुरू देव जी महाराज का भजन, ध्यान ही जीव का सच्चा संगी साथी है । यही इस लोक में भी तथा परलोक में भी रक्षक है । यही भजन, ध्यान ही सर्व सुखों की खान है । यदि श्री सदगुरू का भजन, ध्यान नियमित नियमानुसार चलता रहा हो । उस जीव का सदा कल्याण है ।
सतगुरू सम हितू कोई नहीं । देखा सब संसार । प्रणत पाल गुरूदेव जी । पल पल करैं संभार ।
सन्त महापुरूषों का कहना है कि संसारी भोग विलास ह्रदय के अन्दर ठौर न पाने पावें । अगर उन्होंने दिल में घर कर लिया । तो अन्दर ह्रदय में श्री सदगुरू भगवान का दर्शन होने में बाधा होगी ।
दिल है तेरा एक । इसमें ऐ हाजी । उलफ़तें दो दो । समा सकतीं नहीं ।
माया और भक्ति दोनों का एक साथ रहना सम्भव नहीं है । यह दिल मालिक का मन्दिर है । श्री सदगुरू देव जी महाराज की उपासना का स्थान है । मायावी विषय विकारों के लिये इसे मुसाफ़िर खाना नहीं बनाना चाहिये । इसे विषय वासना का घर बनाकर नहीं रखना चाहिये । यह एक देवालय है । यह पूजा का सर्वश्रेष्ठ यानी पवित्र मन्दिर है । इसे साफ़ सुथरा एवं शुद्ध तथा पवित्र बनाये रखना चाहिये । अत: सांसारिक सुख ऐश्वर्यों में मन को नहीं फ़ंसाना चाहिये । सन्तों महापुरूषों का कहना है कि श्री सदगुरू देव जी महाराज के उपदेशानुसार भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान करते हुए सदा धार्मिक रीति से चलते हुए जीवन व्यतीत करना ही साधकों, गुरूमुखों का परम धर्म है । भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । ध्यान । दर्शन । नियमित नियमानुसार सदा सदा करते रहना चाहिये । यही साधक के जीवन की पूंजी है । जिस पर आचरण कर लोक तथा परलोक में सुख की प्राप्ति होती है ।
प्रत्येक साधक व अभ्यासी की मनोदशा अलग अलग होती है । पर यह तीन बातों पर निर्भर है - 1 उसके पिछले तथा वर्तमान जन्मों के कर्मों का प्रभाव । 2 परमार्थ की प्राप्ति की कितनी तडप है । तथा कितनी विरह वेदना उसके मन में पैदा हो चुकी है । 3 सन्त सदगुरू के श्री चरण कमलों में साधक को भजन । सुमिरन । ध्यान में रस मिलता है । तथा उसका मन भजन । सुमिरन । ध्यान में लगता है । अर्थात प्रत्येक अभ्यासी को चाहिये कि बराबर अपनी हालत पर दृष्टि रखता रहे । यानी इस बात की परख करता रहे कि उसकी क्या स्थिति है । जब किसी बात में कमी दिखे । तो सच्चे मन से सुधार करने का प्रयत्न करे । श्री सदगुरू देव जी महाराज की दया के बिना विवेक की उत्तपत्ति नहीं होती । और सदगुरू की कृपा के बिना सहज में ही सत संगति की प्राप्ति नहीं होती । सदगुरू की दया व उनकी संगति आनन्द व कल्याण का मूल है । श्री सदगुरू की संगति की प्राप्ति ही सभी सुखों का फ़ल है । और सभी साधक फ़ूल है । श्री सदगुरू की संगति पाकर दुष्ट भी उसी तरह सुधर जाते हैं । जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावन बन जाता है । अर्थात सोने में परिवर्तित हो जाता है । फ़िर भी प्रभु से क्षमा प्रर्थना करता रहे । दया और कृपा की याचना करता रहे । तथा भविष्य के लिये पूर्णरूप से सतर्क रहे कि जो त्रुटि अब तक हो गई है । दुबारा न हो जाय । इसको पूरी तरह से याद रखो । फ़िर भी सच्चे मन से प्रयत्न करने से प्रभु की कृपा का सहारा मिल जाता है । और भजन । सुमिरन । ध्यान की साधना में मन का ठहराव अधिक होने लगता है । तथा निर्मल रस व आनन्द मिलने लगता है । इसी प्रकार धीरे धीरे अन्दर की सफ़ाई होती रहती है । और साधक को स्वयं अपने आध्यात्मिक उन्नति का आभास होने लगता है ।
बहुधा ऐसा होता है कि किसी किसी अभ्यासी को भजन, ध्यान करते समय अन्दर में गुरू के स्वरूप के दर्शन कभी होते हैं । कभी नहीं होते हैं । तो न होने की दशा में निराश नहीं होना चाहिये । और यह सोच कर हताश नहीं होना चाहिये कि मेरे अभ्यास में बहुत बडी कमी है । साधक को चाहिये कि जिस आन्तरिक केन्द्र पर श्री सदगुरू ने उसे अभ्यास करने को बताया है । उसी स्थान पर सुरत या मन को जमाकर सहसदल कमल पर ठहरने लगेंगे । और भजन, सुमिरन, ध्यान में मन लगने लगेगा । यदि मन नहीं ठहरता । तो इसका एकमात्र कारण यही है कि भजन, सुमिरन, ध्यान नियमित नियमानुसार नहीं हो रहा है । और अन्दर में या बाहर में सदगुरू के प्रति प्रेम में कमी पड रही है । यदि श्री सदगुरू के प्रति प्यार होगा । तो अवश्य ही उस प्यार की डोर के द्वारा या सहारे मन व सुरत की धार ऊपर की ओर चढेगी । और जब ऊपर चढेगी । तो भजन, सुमिरन, ध्यान का आनन्द अवश्य प्राप्त होगा । इसमें कोई संशय नहीं है । इसलिये साधक के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि प्रेम तथा श्रद्धा के साथ अभ्यास करता रहे । यदि प्रेम में कोई कसर है । और चाव भी कम है । तो ख्याली तौर पर साधक को चाहिये कि श्री सदगुरू देव जी महाराज के श्री चरणों में माथा रखकर दीन भाव से, आर्तभाव से प्रेम की भीख मांगे । इसी प्रकार बारबार दीन भाव से प्रार्थना करने से अवश्य ही प्रेम व दया की बख्शीश होती है । प्रेम की प्राप्ति होने पर उस प्रेम रूपी पौधे को
श्रद्धा के जल से निरन्तर सींचता रहे । बार बार या जब जब याद आ जाय । तब तब ख्याली तौर पर श्री सदगुरू भगवान के श्री चरणों में सिर झुकाकर बारम्बार दण्डवत प्रणाम करते रहना चाहिये । इस प्रकार करते करते भजन, सुमिरन, ध्यान के करने में रस मिलने लग जायेगा । और सदगुरू का दर्शन अन्दर में होता रहेगा । इस प्रकार के दर्शन को सन्त सदगुरू की असली दया और कृपा का सूचक समझना चाहिये । जब कभी इस प्रकार के दर्शन मिल जाते हैं । तो साधक की प्रीति और प्रतीति बढ जाती है ।
साधक को चाहिये कि सत्यराज्य के प्रत्येक चक्र पर या मण्डल पर अपने श्री सदगुरू द्वारा बताया हुआ भजन, सुमिरन, ध्यान का अभ्यास बढाता जाय । किसी किसी सन्त ने तो ऐसा कहा है कि एक चक्र पर या मण्डल पर कम से कम दो वर्ष अभ्यास करें । किन्तु यह कोई आवश्यक नहीं है । यह तो साधना पर व प्रेम व निष्ठा पर निर्भर करता है । उसके पुरूषार्थ पर निर्भर करता है । प्रत्येक साधक की अलग अलग स्थिति होती है । उसी के अनुसार उसकी सुरत की चाल होती है । और फ़िर इस सिलसिले में सदगुरू कृपा पर बहुत कुछ निर्भर करता है । प्रत्येक साधक की अलग अलग स्थिति होती है । उसी के अनुसार उसकी सुरत की चाल होती है । और फ़िर इस सिलसिले में सदगुरू कृपा पर बहुत कुछ निर्भर करता है । जितना जिसका सदगुरू के प्रति समर्पण होगा ।
जितना कोई अपने आपको श्री सदगुरू में लय कर चुका होगा । जितना जिसका गुरू के प्रति और गुरू समाज के प्रति आचरण उज्जवल हो चुका होगा । उसी के अनुसार उसकी प्रगति होगी । दशम 10 द्वार या सतलोक तक । या अलख । अगम लोक तथा अनामी पद तक अपनी सुरत को पहुंचाकर वहां ठहर जायं । इसमें एक जन्म भी लग सकता है । और कई जन्म भी । पर बिना श्री सदगुरू देव जी महाराज की असीम कृपा व दया के यह किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है ।
श्री सदगुरू देव जी महाराज की दया रूपी शरण संगति में साधक को धर्म । अर्थ । काम । मोक्ष चारों फ़ल प्राप्त होते हैं । तथा उनकी संगति से साधक के मन के सारे विकार दूर हो जाते हैं । जिस प्रकार पारस के स्पर्श से लोहा सुन्दर कंचन बन जाता है । उसी प्रकार श्री सदगुरू देव जी महाराज की पावन संगति से साधक का मन भी उज्जवल एवं निर्मल बन जाता है । यह पूर्ण सत्य है । श्री सदगुरू की ही शरण संगति में तो साधक के मलिन मन की पूरी तरह साफ़ सफ़ाई होती है ।
गुरू नाम सुमिरण किये । तन मन निर्मल होय । तिस सौभागी जीव का । पला न पकडे कोय ।
रूहानी शब्द - आपको हर पल याद करूं । हिरदय में ए सदगुरू । सदा आप ही का ध्यान धरूं ।
भूलीं न इक पल भी । सुमिरन भजन सदा करूं । हो आपका ही दर्शन ।
यही कामना है मेरी । मेरे रोम रोम सदगुरू । छवि प्यारी बसी हो आपकी ।
जग की न चाह रहे । बस आप ही आप सदगुरू । हिरदय में बसें मेरे ।
युग युग तू ही तू । बनूं दास आपका । आपकी सेवा पूजा ही । सदगुरू हो धर्म मेरा ।
सन्त महापुरूषों का कहना है कि साधक के लिये सदगुरू की भक्ति करना ही मुख्य आधार है । श्री सदगुरू देव जी महाराज के कमलवत श्री चरणों को पकड लें । और अपने आपको उनको पूरी तरह से समर्पण कर दें । यदि साधक अपने को पूरी तरह से श्री सदगुरू देव में विलीन कर दे । अपना आपा भाव खत्म हो जाय । तो श्री सदगुरू देव जी महाराज की भक्ति आसानी से प्राप्त हो जाती है ।
सदगुरू शिष की आतमा । शिष सतगुरू की देह । लखा जो चाहे अलख को । इनहीं में लख लेय ।
यह बहुत कठिन कार्य है । कोई विरला साधक, जिज्ञासु ही यहां तक पहुंच सकता है । पर जिसके पूर्व जन्म के संस्कार अच्छे हों । केवल थोडी कसर रह गई हो । उस साधक को उत्साह के साथ सोचना तथा करना भी चाहिये कि मेरे पूर्व जन्म के संस्कार अच्छे रहे हैं । और अच्छे हैं भी । तथा आगे भी मालिक की दया से अच्छे रहेंगे । शेष सभी अपनी अपनी योग्यता तथा संस्कार के अनुसार पाते हैं ।
रास्ता चलता जाय । निराश नहीं होना चाहिये । यदि रास्ते पर बराबर चलता रहे । तो एक न एक दिन मंजिल पर पहुंच ही जायेगा । किन्तु मनुष्य जन्म अनमोल है । यह जन्म बार बार नहीं मिलता । इसे अमूल्य मानकर इसी जन्म में अपने लक्ष्य तक पहुंचाने का प्रयास करना चाहिये ।
इसलिये हर समय श्री सदगुरू देव जी महाराज के भजन, सुमिरन, ध्यान और सेवा पूजा को तरजीह देने चाहिये । ताकि भक्ति की ताकत पैदा हो । क्योंकि इसी एक बात के अन्दर बन्धन और मोक्ष का भेद छिपा हुआ है । जिस
सेवक के दिल में मालिक के प्रति श्रद्धा और प्रेम दोनों बने रहते हैं । उसका एक न एक दिन अवश्य उद्धार होगा । क्योंकि मालिक का प्रेम तथ नाम का भजन और भक्ति संसार के मोह पाश को तोडेगा । मालिक की भक्ति की शक्ति जिसमें उत्पन्न हो गयी । उसी भक्त पर मालिक की खास दया समझनी चाहिये । क्योंकि श्री सदगुरू देव जी महाराज के श्री चरणों की भक्ति ऐसी है । जो मालिक और भक्त के बीच जितने पर्दे हैं । उन सबको साफ़ करके जीव को मोक्ष की प्राप्ति करा देती है ।
दासनदास ने भी गहा । सदगुरू चरण तुम्हार । अवगुण हार चरणन पडा । कर दो अब उद्धार ।
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- ये शिष्य जिज्ञासा से सम्बन्धित प्रश्नोत्तरी श्री राजू मल्होत्रा द्वारा भेजी गयी है । आपका बहुत बहुत आभार ।
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