अष्टावक्र उवाच - तदा बन्धो यदा चित्तं किन्चिद वांछति शोचति । किंचिन मुंचति गृण्हाति किंचिद दृष्यति कुप्यति । 8-1
अष्टावक्र बोले - तब । बंधन है । जब । मन इच्छा करता है । शोक करता है । कुछ त्याग करता है । कुछ गुहण करता है । कभी प्रसन्न होता है । या कभी क्रोधित होता है । 1
तदा मुक्तिर्यदा चित्तं न वांछति न शोचति । न मुंचति न गृण्हाति न हृष्यति न कुप्यति । 8-2
तब । मुक्ति है । जब मन । इच्छा नहीं करता है । शोक नहीं करता है । त्याग नहीं करता है । ग्रहण नहीं करता है । प्रसन्न नहीं होता है । या क्रोधित नहीं होता है । 2
तदा बन्धो यदा चित्तं सक्तं काश्वपि दृष्टिषु । तदा मोक्षो यदा चित्तमसक्तं सर्वदृष्टिषु । 8-3
तब बंधन है । जब मन किसी भी । दृश्यमान वस्तु में । आसक्त है । तब मुक्ति है । जब मन किसी भी । दृश्यमान वस्तु में । आसक्ति रहित है । 3
यदा नाहं तदा मोक्षो यदाहं बन्धनं तदा । मत्वेति हेलया किंचिन्मा गृहाण विमुंच मा । 8-4
जब तक । मैं या मेरा । का भाव है । तब तक बंधन है । जब । मैं या मेरा । का भाव नहीं है । तब मुक्ति है । यह जानकर । न कुछ त्याग करो । और न कुछ गृहण ही करो । 4
अष्टावक्र बोले - तब । बंधन है । जब । मन इच्छा करता है । शोक करता है । कुछ त्याग करता है । कुछ गुहण करता है । कभी प्रसन्न होता है । या कभी क्रोधित होता है । 1
तदा मुक्तिर्यदा चित्तं न वांछति न शोचति । न मुंचति न गृण्हाति न हृष्यति न कुप्यति । 8-2
तब । मुक्ति है । जब मन । इच्छा नहीं करता है । शोक नहीं करता है । त्याग नहीं करता है । ग्रहण नहीं करता है । प्रसन्न नहीं होता है । या क्रोधित नहीं होता है । 2
तदा बन्धो यदा चित्तं सक्तं काश्वपि दृष्टिषु । तदा मोक्षो यदा चित्तमसक्तं सर्वदृष्टिषु । 8-3
तब बंधन है । जब मन किसी भी । दृश्यमान वस्तु में । आसक्त है । तब मुक्ति है । जब मन किसी भी । दृश्यमान वस्तु में । आसक्ति रहित है । 3
यदा नाहं तदा मोक्षो यदाहं बन्धनं तदा । मत्वेति हेलया किंचिन्मा गृहाण विमुंच मा । 8-4
जब तक । मैं या मेरा । का भाव है । तब तक बंधन है । जब । मैं या मेरा । का भाव नहीं है । तब मुक्ति है । यह जानकर । न कुछ त्याग करो । और न कुछ गृहण ही करो । 4
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