अष्टावक्र उवाच - विहाय वैरिणं काममर्थं चानर्थसंकुलम । धर्ममप्येतयोर्हेतुं सर्वत्रादरं कुरु । 10-1
अष्टावक्र बोले - कामना । और अनर्थों के समूह । धन रूपी । शत्रुओं को त्याग दो । इन दोनों के । त्याग रूपी धर्म से । युक्त होकर । सर्वत्र विरक्त ( उदासीन ) हो जाओ । 1
स्वप्नेन्द्रजालवत पश्य दिनानि त्रीणि पंच वा । मित्रक्षेत्रधनागारदारदायादिसंपदः । 10-2
मित्र । जमीन । कोषागार । पत्नी । और अन्य संपत्तियों को । स्वपन की । माया के समान । तीन या पाँच दिनों में । नष्ट होने वाला देखो । 2
यत्र यत्र भवेत्तृष्णा संसारं विद्धि तत्र वै । प्रौढवैराग्यमाश्रित्य वीततृष्णः सुखी भव । 10-3
जहाँ जहाँ । आसक्ति हो । उसको ही । संसार जानो । इस प्रकार । परिपक्व वैराग्य के । आश्रय में । तृष्णा रहित होकर । सुखी हो जाओ । 3
तृष्णामात्रात्मको बन्धस्तन्नाशो मोक्ष उच्यते । भवासंसक्तिमात्रेण प्राप्तितुष्टिर्मुहुर्मुहुः । 10-4
तृष्णा ( कामना ) मात्र ही । स्वयं का । बंधन है । उसके नाश को । मोक्ष कहा जाता है । संसार में । अनासक्ति से ही । निरंतर । आनंद की प्राप्ति होती है । 4
त्वमेकश्चेतनः शुद्धो जडं विश्वमसत्तथा । अविद्यापि न किंचित्सा का बुभुत्सा तथापि ते । 10-5
तुम एक ( अद्वितीय ) चेतन । और शुद्ध हो । तथा यह विश्व । अचेतन । और असत्य है । तुममें । अज्ञान का । लेश मात्र भी । नहीं है । और जानने की । इच्छा भी । नहीं है । 5
राज्यं सुताः कलत्राणि शरीराणि सुखानि च । संसक्तस्यापि नष्टानि तव जन्मनि जन्मनि । 10-6
पूर्व जन्मों में । बहुत बार । तुम्हारे । राज्य । पुत्र । स्त्री । शरीर । और सुखों का । तुम्हारी । आसक्ति होने पर भी । नाश हो चुका है । 6
अलमर्थेन कामेन सुकृतेनापि कर्मणा । एभ्यः संसारकान्तारे न विश्रान्तमभून मनः । 10-7
पर्याप्त धन । इच्छाओं । और । शुभ कर्मों द्वारा भी । इस संसार रूपी माया से । मन को शांति नहीं मिली । 7
कृतं न कति जन्मानि कायेन मनसा गिरा । दुःखमायासदं कर्म तदद्याप्युपरम्यताम । 10-8
कितने जन्मों में । शरीर । मन । और वाणी से । दुःख के कारण । कर्मों को । तुमने नहीं किया ? अब उनसे । उपरत ( विरक्त ) हो जाओ । 8
अष्टावक्र बोले - कामना । और अनर्थों के समूह । धन रूपी । शत्रुओं को त्याग दो । इन दोनों के । त्याग रूपी धर्म से । युक्त होकर । सर्वत्र विरक्त ( उदासीन ) हो जाओ । 1
स्वप्नेन्द्रजालवत पश्य दिनानि त्रीणि पंच वा । मित्रक्षेत्रधनागारदारदायादिसंपदः । 10-2
मित्र । जमीन । कोषागार । पत्नी । और अन्य संपत्तियों को । स्वपन की । माया के समान । तीन या पाँच दिनों में । नष्ट होने वाला देखो । 2
यत्र यत्र भवेत्तृष्णा संसारं विद्धि तत्र वै । प्रौढवैराग्यमाश्रित्य वीततृष्णः सुखी भव । 10-3
जहाँ जहाँ । आसक्ति हो । उसको ही । संसार जानो । इस प्रकार । परिपक्व वैराग्य के । आश्रय में । तृष्णा रहित होकर । सुखी हो जाओ । 3
तृष्णामात्रात्मको बन्धस्तन्नाशो मोक्ष उच्यते । भवासंसक्तिमात्रेण प्राप्तितुष्टिर्मुहुर्मुहुः । 10-4
तृष्णा ( कामना ) मात्र ही । स्वयं का । बंधन है । उसके नाश को । मोक्ष कहा जाता है । संसार में । अनासक्ति से ही । निरंतर । आनंद की प्राप्ति होती है । 4
त्वमेकश्चेतनः शुद्धो जडं विश्वमसत्तथा । अविद्यापि न किंचित्सा का बुभुत्सा तथापि ते । 10-5
तुम एक ( अद्वितीय ) चेतन । और शुद्ध हो । तथा यह विश्व । अचेतन । और असत्य है । तुममें । अज्ञान का । लेश मात्र भी । नहीं है । और जानने की । इच्छा भी । नहीं है । 5
राज्यं सुताः कलत्राणि शरीराणि सुखानि च । संसक्तस्यापि नष्टानि तव जन्मनि जन्मनि । 10-6
पूर्व जन्मों में । बहुत बार । तुम्हारे । राज्य । पुत्र । स्त्री । शरीर । और सुखों का । तुम्हारी । आसक्ति होने पर भी । नाश हो चुका है । 6
अलमर्थेन कामेन सुकृतेनापि कर्मणा । एभ्यः संसारकान्तारे न विश्रान्तमभून मनः । 10-7
पर्याप्त धन । इच्छाओं । और । शुभ कर्मों द्वारा भी । इस संसार रूपी माया से । मन को शांति नहीं मिली । 7
कृतं न कति जन्मानि कायेन मनसा गिरा । दुःखमायासदं कर्म तदद्याप्युपरम्यताम । 10-8
कितने जन्मों में । शरीर । मन । और वाणी से । दुःख के कारण । कर्मों को । तुमने नहीं किया ? अब उनसे । उपरत ( विरक्त ) हो जाओ । 8
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