बुधवार, जून 30, 2010

सांख्य और योग में समाधि लाभ

आत्मा तथा परमात्मा का अस्तित्व प्रमाण और लक्षण से सिद्ध करने के बाद शोधकर्ताओं ने न केवल आत्मा का या परमात्मा का बल्कि अतीन्द्रिय जङ पदार्थों का भी रहस्य जानने के लिये योग साधना को ही उपयुक्त माना है । और अन्य साधनों से यह प्राप्त नहीं होगा । ऐसा निश्चय किया है । आत्मा और मन का जब योग समाधि द्वारा प्रत्यक्ष संयोग होता है । तब उस संयोग से ही आत्मा का प्रत्यक्ष होता है । इसी प्रकार सूक्ष्म और इन्द्रियों से परे पदार्थों का भी प्रत्यक्ष या देखना होता है । जो योगी समाधि को समाप्त कर चुके हैं । वो विना समाधि अवस्था के ही इनको देखते हैं । आत्मा में प्रविष्ट होने से आत्मा के गुणों को जाना जाता
है । समाधि विशेष के अभ्यास से तत्व ग्यान को जाना जा सकता है । सांख्य के समान दूसरा ग्यान नहीं । योग के समान दूसरा बल नहीं । ऐसा पुरातन प्रमाण कहा गया है । चित्त को नाश करके योग में गति होती है । अतः चित्त को नाश करने की दो निष्ठायें कहीं जाती हैं । ये सांख्य और योग हैं । चित्त वृति के निरोध से योग और सम्यक ग्यान से सांख्य की प्राप्ति होती है । सांख्य और योग अलग अलग नहीं हैं । दोनों का फ़ल एक ही है ।
योग द्वारा अंतर्मुख होने के लिये । यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार । ये पाँच बाह्य उपाय हैं । धारणा ध्यान समाधि । ये तीन आन्तरिक उपाय हैं । सांख्य द्वारा अंतर्मुख होने के लिये पाँच बाह्य उपाय योग के ही होते हैं । योग में धारणा ध्यान समाधि किसी विषय को ध्येय बनाकर करते हैं । इसके विपरीत सांख्य में बिना ध्येय के अन्तर्मुख होते हैं । इसमें चित्त और उसकी वृतियां तीन गुणो वाली हैं । यानी गुण ही गुणों में वरत रहे हैं । इस भाव से आत्मा को चित्त से अलग करके देखते हैं । इस प्रकार वैराग द्वारा इस वइति का निरोध होने पर शुद्ध चैतन्यस्वरूप स्थित को देखते हैं ।
योग में उत्तम अधिकारियों के लिये असम्प्रग्यात समाधि लाभ के विशेष उपाय और ईश्वर प्रणिधान को इस
तरह जानें । यह ॐ की मात्राओं द्वारा उपासना है ।
वाणी से जाप--एक मात्रा वाले अकार ॐ की उपासना । इसमें स्थूल शरीर का अभिमान होता है । स्थूल शरीर से आत्मा की संग्या " विश्व " उपासक होता है । स्थूल शरीर से परमात्मा विराट है । वह उपास्य होता है ।
दूसरा " मानसिक जाप --अकार उकार दो मात्रा वाले ॐ की उपासना है । इसमें सूक्ष्म शरीर का अभिमान है ।सूक्ष्म शरीर से आत्मा की संग्या " तेजस " उपासक कही गयी है । सूक्ष्म जगत से परमात्मा हिरण्यगर्भ
उपास्य है ।
तीसरा " ध्यान ध्वनि जाप " है । अकार उकार मकार तीन मात्रा वाले ॐ की उपासना । इसमें कारण शरीर का अभिमान होता है । कारण शरीर से आत्मा की संग्या " प्राग्य " उपासक है । कारण जगत से परमात्मा " ईश्वर उपास्य है ।
( मेरे ख्याल से शास्त्रकारों से कहीं त्रुटि हुयी है । स्थूल से ईश्वर । सूक्ष्म से हिरण्यगर्भ । और कारण से विराट । ऐसा होना चाहिये । यह मत शास्त्रों के अनुसार है । संभवत टीकाकारों या मुद्रण में गलती से ऐसा हुआ हो । वैसे भी धर्म में " मतभेद " होना स्वाभाविक है । )
जब ये तीन मात्रा वाली ध्वनि सूक्ष्म होते होते निरुद्ध हो जाय । और अमात्र विराम रह जाय । तब यह कारण शरीर कारण जगत से परे शुद्ध परमात्म प्राप्ति रूप अवस्था है । जो प्राणि मात्र का ध्येय है । ( मेरे हिसाब से ऐसा कह सकते है । पर यही अंतिम सत्य नहीं है । और यही परमात्मा है । ये तो एकदम ही गलत है । यह योग की उच्च स्थित है । इससे ऊपर योग में ही तीन शरीर अन्य है । उनको प्राप्त करने के बाद परमात्मा के मार्ग पर दृष्टि जाती है । यह योगियों का मत है । संतो का नहीं ? ) सांख्य में उपरोक्त उपाय " ध्यानं निर्विषयं मनः " द्वारा है । इसके द्वारा जो वृति आये उसको दवाना होता है । अंत में सब वृतिया रुक जाने पर निरोध वृति का भी निरोध करें । यहीं स्वरूप को जानना है । योग का भक्ति का लम्बा मार्ग सुगम है । इसके विपरीत सांख्य के ग्यान का छोटा मार्ग कठिन है । " जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।

समाधि के विषय में ..।

आईये धारणा ध्यान समाधि के बारे में बात करते हैं ।
पहली " धारणा " है । ध्यान अवस्था में जब इन्द्रियाँ अन्तर्मुख हो जाती है । तब ध्य्र्य विषय । नाभि ह्रदयकमल । नाक का अग्र भाग । भृकुटि । ब्रह्मरन्ध्र आदि अध्यात्मिक देशरूप या विषय या चन्द्रध्रुव आदि बाहर देशरूप विषय इसी को ध्येय कहते हैं । ध्येय यानी ध्यान का विषय । इसमें स्थिर होना होता है । इसी एक ध्येय विषय में वृति को बाँधने को धारणा कहा गया है ।
दूसरा " ध्यान " है । ध्यान में चित्त जिस विषय में लगता है । वह विषय लगातार दिखाई दे । अन्य कुछ बीच में न आये और स्थिरता होने लगे । उसको ध्यान कहते हैं ।
तीसरा " समाधि " है । जिस विषय में धारणा करते हुये ध्यान के द्वारा वृति स्थिर होकर जब उसमें ध्येय केवल अर्थमात्र से नजर आता है । और ध्यान का स्वरूप शून्य जैसा हो जाता है ।उसे समाधि कहा गया है ।
जब किसी विषय में चित्त को ठहराते है । तब चित्त की वह विषयाकारवृति तीनों आकारों के इकठ्ठी होने से त्रिपुटी होती है । समाधि का अनुभव इस तरह होता है कि ये पता नहीं लगता कि मैं ध्यान कर रहा हूँ ।
लेकिन जब धारणा ध्यान समाधि एक ही विषय में करनी हो तो उसको " सयंम " कहते हैं । अभ्यास के बल से सयंम का परिपक्व हो जाना सयंम की जीत है । सयंम को स्थूल सूक्ष्म आलम्बन के भेद से रहती हुयी चित्तवृतियों में लगाना चाहिये । पहले स्थूल को जीतें फ़िर सूक्ष्म को । इस तरह कृमशः नीचे की भूमियों को जीतें । तदुपरान्त ऊपर की भूमि में सयंम करें । नीचे की भूमियों को जीते विना ऊपर की भूमियों में सयंम करने वाला विवेक ग्यान रूपी फ़ल नहीं पाता । यदि ईश्वर के अनुग्रह से योगी का चित्त पहले ही उत्तरभूमि में लगने योग्य है । तो फ़िर नीचे लगाने की आवश्यकता नहीं होती । चित्त किस योग्यता का है । इसका ग्यान योगी को योग द्वारा स्वयं हो जाता है ।
आईये शब्द के बारे में जानें । शब्द तीन प्रकार का है । पहला वर्णात्मक है । क ख ग आदि जो वाणी रूपी इन्द्रिय से उत्पन्न होता है । दूसरा धुनात्मक या नादात्मक है । यह प्रयत्न द्वारा प्रेरित उदान वायु का परिणाम विशेष है । यही शब्दों की धारा को उत्पन्न करता हुआ श्रोता के कान तक जाता है ।
तीसरा स्फ़ोट होता है । यह अर्थव बोधक केवल बुद्धि से ग्रहीत होता है । निरवयव नित्य और निष्कर्म है । वर्ण शीघ्र उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते हैं । इनका मेल नहीं होता । क्योंकि गौ = ग के समय औ नहीं है । पचति में इकार स्फ़ोट व्यंजक है । वैसे स्फ़ोट का बङा शास्त्रार्थ है । शब्द अर्थ ग्यान का परस्वर अध्यास भिन्नों में अभिन्न बुद्धि से होता है । आरोप को अर्थात में अन्य में अन्य बुद्धि करने को अध्यास कहते है ।
शब्दों का अर्थ और ग्यान के साथ संकेतरूप । इसका यह अर्थ है । यह अध्यास है । पर वास्तव में शब्द अर्थ और प्रत्यय तीनों भिन्न हैं । जब उनके भेद में योगी चित्त को एकाग्र करता है । तब उनका प्रत्यक्ष कर पशु पक्षियों की बोली जान लेता है । ये क्या बोल रहे हैं । योगियों में विचित्र शक्ति होती है । इसीलिये धारणा ध्यान समाधि की बेहद महिमा है । साधारण लोगों को जो शब्द अर्थ और ग्यान का भेद प्रतीत होता है । वह समाधि जन्य नहीं है । इससे वे नहीं जान सकते ।
संस्कार का साक्षात करने से पूर्व जन्मों का ग्यान होता है । संस्कार दो प्रकार के होते हैं । एक स्मृति बीज रूप में रहते हैं । जो स्मृति और कलेशों का कारण हैं । दूसरे विपाक के कारण वासना रूप में रहते हैं । जो जन्म आयु भोग और सुख दुख का कारण हैं । ये धर्म और अधर्म रूप हैं । ये सब संस्कार इस जन्म और पिछले जन्म में किये हुये कर्मों के कारण रिकार्ड की तरह चित्त में चित्रित रहते हैं । इसमें सयंम करने से जिस देश काल और निमित्त में वे संस्कार बने हैं । उनका ग्यान हो जाता है । दूसरों के संस्कार साक्षात करने से दूसरों का तथा आगे के संस्कार साक्षात करने से आगे का ग्यान हो जाता है ।
" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
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सोमवार, जून 28, 2010

विधा दो प्रकार की होती है ।

विधा दो प्रकार की होती है ।
1--अपरा--कहना , सुनना , देखना , लिखना , पढना , आदि भौतिक तत्वो के मध्य सब कुछ आदि ।
2-- परा-- न वाणी के माध्यम से कही जाती है । न इन्द्रियों द्वारा देखी कही सुनी जाती है । और भौतिक से संगत नहीं करती । इसे " सहज योग " राज योग " राज विधा " ब्रह्म विधा " या गुहियम भेद भी कहा गया है । जो पराविधा का अभ्यास करता है । वह ग्यान तथा विग्यान दोनों को पाकर । विग्यान के परे जाकर परमात्मा का स्वरूप अनुभव करता है । जो अंतकरणः के सबसे भीतरी स्थान के समस्त ग्यान का आदिकरण है । अपने शरीर को मानना ही परिवर्तन है । यानी जन्म मरण है । कर्तापन के अभिमान से ही यह अच्छा बुरा भोगता है ।सुष्मणा से कन्ठ पर चूल्हे की आकृति की " हुता " नामक नाङी स्थित है । इस नाङी से जीव संगत करता है । और संस्कारों को उसी नाङी में जमा करता है । उन्ही संस्कारों का प्रतिफ़ल पाता है । और अंत समय अपने साथ ले जाता है । कन्ठ देश से ऊपर जिहवा का तन्तु है । उसको जानने से तन्तु भूख प्यास की चेष्टा बन्द कर देता है । जीव अंत समय में संसार की जिन वस्तुओं का ध्यान करता है । उन्ही के आकार का । उसी के अनुसार शरीर धारणकर भोग भोगने पङते हैं ।
अब आईये वाणी के बारे में जानें ?
वाणी चार प्रकार की होती है । 1--बैखरी--तेज चिल्लाकर बोलना । 2--मध्यमा--साधारण बातचीत । 3--पश्यन्ति--ऊँ आँ ओ..एई..आ..अह..आदि । 4--परा--जीभ को तालू से लगाकर स्वांस को नाभि तक पूरा जाने दें । तथा फ़िर बाहर पूरी तरह से निकालें । फ़िर उसके अन्दर ध्यान से सुनने पर एक " ध्वनात्मक शब्द " सुनाई देता है । वह परावाणी है । इसी वाणी में वह अक्षर निहित है ।
सन्यास चार प्रकार का होता है । 1--मीन--मछली जैसे पानी की धारा विचार करती हुयी चङती चली जाती है ।
2--मरकट-- जिस प्रकार बन्दर एक डाली से दूसरी डाली पर कूदने में संजम कर वापस लौट आता है ।
3--विहंगम--पक्षी आकाश में उङता चला जाता है । और आगे का ग्यान न होने पर वापस लौट आता है ।
4--शून्य--साधक इन्द्रियों के परे जाकर प्राण में अक्षर में मिल जाता है । यह अक्षर शून्य से सता रखता है ।
यह योगी अत्यन्त श्रेष्ठ योगी है । वह शक्तियों को प्राप्त कर चारों पदार्थों को पाता है ।
विशेष--योगी भ्रंग की ध्वनि का अभ्यास नित्य करे तो संस्कार से रहित हो जाता है । यह ध्वनि साधक जिह्वा को तालू से लगाकर नाभि स्वांस को बहुत धीमी गति से देर तक निकाले । तथा देर तक धीरे धीरे स्वांस को कुम्भक करे । और अपने ध्यान को कंठ पर दृणता से जमाये । तो वहाँ भ्रंग ध्वनि पैदा हो जायेगी । तब कंठ की " हुता " नाङी में रखे सब संस्कार जलकर भस्म हो जायेंगे । जो स्वांस ऊपर को जाता है । वह " संस्कार " शब्द का उच्चारण करता हुआ नाभि पर ठहरता है । नाभि से बाहर आने वाला स्वांस " हंकार " शब्द को प्रकट करता हुआ आता है । वह हंसा प्राण का ही शब्द है । बार बार स्वांस के आने जाने में प्राण में " हंसो हंसो " शब्द पलटकर " सोहं सोहं " का शब्द प्रकट होता है । इस का अभ्यास योग के द्वारा करके क्रियात्मक रूप से योगीजन योग में पारंगत हो जाते हैं । आत्मा ( हंस ) शरीर में सात द्वार ऊपर है । मुख , नाक , कान आँख सात द्वार ऊपर हैं । तथा गुदा और लिंग दो द्वार नीचे हैं । ये नौ द्वार हैं । आत्मा हंस रूप में आने जाने वाली स्वांस के द्वारा सारे शरीर में व्यापक स्थित है । " हंसो..सोहंग " प्राणवाक्य हंस शब्द ग्यान और मोक्ष यानी मुक्ति का साधन रूप है । रात दिन 24 घन्टो में स्वांस गति ( गिनती ) 21600 है । यह " हंसो " ही अजपा है । इसी को प्रणव मन्त्र या महामन्त्र भी कहते है । यह तत्व से जीव जपता है ।
बार बार प्राण वायु को शरीर से बाहर निकालने का तथा यथाशक्ति बाहर रोके रहने का आग्रह अभ्यास करने से मन में निर्मलता आ जाती है । तथा शरीर में सभी नाङियां साफ़ होकर मल से रहित हो जाती है । फ़िर शरीर किसी भी प्रकार के रोग " वात पित्त कफ़ " से रहित होकर शक्ति को प्राप्त करता है । इस प्रकार के विषय जीवों को लगे हैं । शब्द यानी ध्वनि का विषय सर्प और मृग आदि को लगा है । वह बीन के वश में हो जाता है । रूप का विषय " पतंगा को लगा है । प्रकाश की लौ पर आकर्षित होकर जलकर मर जाता है । रस " मछली " को स्वाद की खातिर कांटे में फ़ँसकर मर जाती है । गन्ध का विषय " भंवरा " को लगा है । कमल के फ़ूल में बन्द होकर मर जाता है । स्पर्श का विषय " हाथी " को प्रिय है । भूसा भरी हथिनी को देखकर काम स्पर्श के उद्देश्य से उसके समीप जाता है । और कैद कर लिया जाता है । शब्द रूप रस गन्ध स्पर्श ये पाँचों विषय मनुष्य को लगे हैं । इन्ही से बन्धन में है ।
सूक्ष्म तन्मात्राओं में ये पाँच अनुभव होते हैं । शब्द में दिव्य शब्द । रूप में अदभुत रूप । रस में जिह्वा पर
अनुभूति ।गन्ध में विशेष गन्ध । स्पर्श में परमात्म स्पर्श । एक भी तन्मात्रा प्राप्त होने पर परमात्मा का
सानिंध्य पाने लगता है । बीज मन्त्र सात है । " ॐ , ह्यीं , श्रीं , क्लीं , एं , रंग . सोहंग " और अंत में " दोष पराया देख कर चले हसंत हसंत । अपनो याद न आवये जाको आदि न अंत । "
अब एक विशेष बात -- ये कुछ लेख मैंने पाठको के विशेष आग्रह पर लिखे है । इसलिये मैं बता देना चाहता हूँ कि ये " योग और योगियों का ग्यान है । इस से शक्ति प्राप्त होती है । आत्मग्यान या परमात्मा नहीं । उक्त ग्यान को मेरे अनुसार " भक्ति " नहीं कह सकते । दूसरे आप इनमें से कोई क्रिया प्रक्टीकल के तौर पर न करें । ये सामान्य बात नहीं है । इनको विशेष देखरेख में करना होता है ।
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "

मंगलवार, जून 22, 2010

प्रलय में पानी की भूमिका..

मेरी तरह चालीस साल के बूढे ( 40 year old ) बस अपनी जिंदगी को पच्चीस तीस बरस पीछे ले जाँय । आ हा हा..छोटे शहर । कम आवादी । गरीब अमीर सबके पास बङे बङे मकान । मकान के आगे । उससे भी बङा चबूतरा । जितने में बनता है । आज पूरा मकान ? चबूतरे पर खङे एक या दो विशाल नीम आदि के पेङ । न t .v . । न बिजली । दरवाजे पर बिछी चार छह चारपाइयों पर मजे से हँकती हुयी गप्पें । this is my india..i love my india . तभी कुछ लोगों को प्यास महसूस होती है । और घर के पप्पू गप्पू तुरन्त कुँआ से ताजा ठंडा पानी निकालकर पिलाते हैं । निसंदेह बहुत लोगों को यह सब याद होगा । बू ..हू..हू.. जिस तरह मरने से पूर्व मरने वाले को अपना सब किया धरा याद आ जाता है । और उस समय हाथ जोङ जोङकर वह उन लोगों से स्वतः माफ़ी माँगता है ।जिनके साथ कभी उसने भारी ज्यादती की थी । ठीक वैसे ही आज मुझे कुँआ ..तालाब ..पोखर..झील..सब याद आ रहें है । जिनके न होने से आज हम प्रलय के द्वार पर आकर खङे हो गये । प्रलय का काउंटडाउन शुरु हो चुका है । लेकिन प्रलय का कुँआ तालाब या समर्सिबल पम्प से क्या ताल्लुक ? आइये विचार करते हैं । 2014 to 2015 के आसपास होने बाली प्रलय के मुख्य कारणों में से कुँओं तालाब का न होना । और समर या जेट पम्प का बहुत होना भी मुख्य भूमिका निभाने जा रहा है । " ये प्रलय जगह जगह धरती के चटखने और विशाल मात्रा में जहरीली गैसों के रिसाव से होगी । ये गैसे निसंदेह " मानवीय अत्याचार से क्रुद्ध " देवी प्रथ्वी के गर्भ से एक विनाशकारी जलजले के रूप में आयेंगी । अब जरा विचार करें ऐसा होगा क्यों ? प्रथ्वी के आंतरिक हिस्सों में बैलेंस बनाये रखने के लिये । उसके गर्भ में खौलते लावे की तपन शान्त करने के लिये विशाल मात्रा में उस पानी की आवश्यकता होती है । जो विभिन्न गढ्ढों ..तालावों..पोखरों कुओं आदि के माध्यम से संचित होता था । पहले के समय में अधिकतर कच्ची भूमि भी इसमें भारी सहयोग करती थी । आज यदि गिने चुने पार्क जैसी जगहों को छोङ दें । तो हर तरफ़ पक्की जमीन का बोलबाला हैं । फ़ोर वे 8 वे जैसे पूरी दुनिया में फ़ैली सङकें । कंक्रीट के जंगलों की तरह चारों और फ़ैले अनगिनत पक्के भवन । कहने का आशय ये है । कि कच्ची जमीन और मिट्टी आज दुर्लभ होती जा रही है । लगभग पूरी प्रथ्वी में घर घर में लगे समर्सिबल पम्प बेहद तेजी से प्रथ्वी के स्रोतों से बचा खुचा पानी समाप्त करते जा रहें हैं । और इस्तेमाल के बाद ये पानी पक्की नालियों नालों और फ़िर नदी नहरों के माध्यम से समुद्र में चला जाता है । इस तरह प्रथ्वी का एक बङा हिस्सा जाने कब से प्यासा है । और हम उसकी प्यास बुझाने के स्थान पर उसका बचा खुचा पानी भी तेजी से छीन रहे हैं ।इस तरह देखा जाय । तो प्रथ्वी के वही हिस्से प्यासे हैं जहाँ हम रहते हैं । और इन्ही स्थानों पर प्रथ्वी के अंदर पानी की कमी है । इस तरह पूरे विश्व में ऐसे स्थान प्रथ्वी के कहर का शिकार होगें । और भाग्यवश आज भी जिन जगहों पर पुराने समय
जैसी स्थिति है । वे " तथाकथित पिछङे और आपकी नजर में घटिया इलाके " प्रथ्वी की दया , सहानुभूति , और विशेष प्रेम के पात्र होंगे और निसंदेह उसके क्रोध से बचे रहेंगे ।
प्रलय में एक भूमिका हमारी आधुनिक फ़्लश लैट्रीन की भी होगी । वजह प्रथ्वी के बैलेंस में महत्वपूर्ण रोल अदा करने में हमारे द्वारा त्याज्य मल । पशुओं आदि के द्वारा त्याज्य मल का भी बहुत बङा हाथ होता है । पहले ये सभी मल खेतों और कच्ची जमीन में सप्लाई होता था । ये मल और इसमें हो जाने वाले सुङी , गिडार ,गुबरेला , ढोर आदि केंचुआ नुमा कीङे दोनों ही जमीन की मिट्टी को काफ़ी गहरायी तक भुरभुरा बना देते थे । इससे जो बरसात होती थी । उसका काफ़ी पानी जमीन के अन्दर समा जाता था ।(आज वो पानी जमीन कठोर होने से ऊपर ही ऊपर रहकर नालियों आदि के द्वारा बेकार बह जाता है । ) आज हमने खाद के रूप में अपना मल छोङो । पशुओं का मल भी जमीन खेतों आदि को देना बन्द कर दिया । फ़लस्वरूप अधिकांश स्थानों की जमीन की ऊपरी परत कठोर हो चुकी है । और पानी नहीं सोख पाती है । जिस प्रकार सामान्य भाषा में बिजली में ठंडे और गर्म दो तार कहे जाते है । ये दोनों तार सही होने पर बिजली सही काम करती है । इसी प्रकार अनेकानेक विभिन्न स्रोतों से सोखा गया पानी प्रथ्वी को ठंडा और शांत रखने में अपनी भूमिका निभाता है । अब प्रथ्वी के अंदर ज्वालामुखी आदि ज्वलनशील क्रियाएं तो बखूबी हो रही हैं । पर उन्हें बैलेंस करने बाला जल नहीं है । लिहाजा प्रथ्वी की " परत " दिनोंदिन कमजोर होती जायेगी । और अंत में जगह जगह से प्रथ्वी से आग उसी तरह अग्नि फ़ब्बारे के रूप में निकलेगी । मानों प्रथ्वी दीबाली पर " अनार " नाम से मशहूर पठाखा चला रही हो ।
अंत में मैं एक बात अवश्य कहना चाहूँगा । कि हम विनाश की दहलीज पर आकर खङे हो गये हैं । और ये 65 % का विनाश करने वाली प्रलय किसी भी हालत में नहीं टलेगी । चाहे बैग्यानिक इसके लिये कोई उपाय करे या फ़िर सरकार । प्रलय तो अब होकर रहेगी । प्रलय के बारे में और विस्त्रत जानने के लिये मेरे ब्लाग्स में प्रलय 2012..को भी देखें । प्रलय की सिर्फ़ ये ही वजहें नहीं हैं । बल्कि और भी वजहें होंगी । जिसके बारे में आगे फ़िर बात होगी ।

गुरुवार, जून 17, 2010

महाराज जी का संक्षिप्त परिचय

मेरे ब्लाग्स के बहुत से पाठकों ने यह इच्छा जतायी है कि मेरे गुरुदेव कौन है । और मैंने उनका कोई चित्र क्यों नहीं एड किया है । इसलिये मैं अपनी इस कमी को दूर कर रहा हूँ । श्री महाराज जी " अद्वैत ग्यान " के संत है । इनके सम्पर्क में मैं पिछले सात वर्षों से हूँ । इससे पूर्व मैंने अनेकों प्रकार की साधनाएं की । पर मेरी जिग्यासा और शंकाओं का समुचित समाधान नहीं हुआ । पर श्री महाराज जी के सम्पर्क में आते ही मेरा समस्त अग्यान नष्ट हो गया । मैं इस बात के लिये जोर नहीं देता कि आप मेरी बात को ही सत्य मान लें । पर आत्मा या आत्म ग्यान को लेकर यदि आपके भी मन में कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको नहीं मिला है । या मेरी तरह आप भी जीवन के रहस्य और अनगिनत समस्यायों को लेकर परेशान हैं ( जैसे मैं कभी था ) तो " निज अनुभव तोहि कहूँ खगेशा । विनु हरि भजन न मिटे कलेशा । " वो कौन सा हरि का भजन है । जिससे जीवन के सभी कलेश मिट जाते है । " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू व्याधा । " वो कौन सी हरि की शरण है । या आप आत्मा परमात्मा की असली भक्ति या असली ग्यान के बारे में कोई भी प्रश्न रखते हैं । तो महाराज जी से बात कर
सकते हैं । महाराज जी का सेलफ़ोन न . 0 9639892934
विशेष- महाराज का कहीं कोई आश्रम नहीं है । वे अक्सर भ्रमण पर रहते हैं । और किसी किसी समय एक गाँव के बाहर बम्बा के पास कुटिया में रहते हैं ।

सोमवार, जून 07, 2010

मृत्यु पर विजय ??

महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था । महाराज युधिष्ठर ने सत्ता संभाल ली थी । और राज्य के कार्यों में व्यस्त हो गये थे । उन्ही दिनों एक सन्यासी याचक महल के द्वार पर पहुँचा । और महाराज से मिलने की इच्छा व्यक्त की । परन्तु महाराज युधिष्ठर उस दिन कुछ उलझन में
थे । और कुछ अन्य वजहों से अत्यधिक व्यस्त थे । सो उन्होंने संदेशवाहक प्रहरी से कहा । कि आगन्तुक सन्यासी को " कल "आने को बोल दो । और अपने कार्य में लग गये । लेकिन कुछ ही देर में महाराज युधिष्ठर बुरी तरह चौंके । राजमहल के प्रांगण में " विजयशंख " बजने लगा । ढोल नगाङे तुरही आदि वाध विजय का उदघोष करने लगे । युधिष्ठर बेहद उलझन में थे कि आखिर ये " विजयनाद " किस उपलक्ष्य में हो रहा है । जबकि उनकी हालत से बेखबर भीम , अर्जुन , नकुल , सहदेव आदि निरन्तर विजयनाद कर रहे थे । युधिष्ठर ने उन्हें रोककर पूछा कि आखिर ये विजयनाद किस खुशी में हो रहा है ?
तब भीम आदि भाईयों ने बताया कि बङे भैया आपने " मृत्यु पर विजय " प्राप्त कर ली । हम सब भाई इस खुशी में विजयनाद कर रहे हैं । युधिष्ठर बुरी तरह चौंके और कहा , " वत्स भीम ये तुम क्या कह रहे हो । तुमसे किसने कहा कि मैंने दुर्लभ मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली है । "
भीम ने कहा , " बङे भैया ! अभी अभी आपने ही तो कहा । " युधिष्ठर चौंककर बोले , " मैंने..मैंने भला ये कब कहा ? "
भीम बोले । अभी कुछ ही देर पहले तो आपने उस सन्यासी से कहा कि कल आना । इसका मतलब यही तो हुआ कि आप को कल का पता है । अर्थात आप निश्चिंत हैं कि कल तक आप जीवित रह सकते हैं । और महाराज युधिष्ठर कभी झूठ नहीं बोलते । इसलिये इसका सीधा सा अर्थ हुआ कि आपने मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली । क्योंकि इंसान को पल का पता नहीं और आप कल की बात कह रहे हैं । इसलिये इस खुशी में हम विजयनाद कर रहे थे कि आपने मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली है । तब युधिष्ठर को अपने भाईयों की बात का मर्म समझ में आया । कि उनसे कितनी बङी गलती हो गयी है । भला कल किसने देखी है । अगर किसी कारणवश कल से पहले ही मेरी मौत हो जाय । तो मेरी बात झूठी हो जायेगी और सदा सत्य बोलने वाले युधिष्ठर पर झूठ बोलने का कलंक लग जायेगा । उन्होंने तुरन्त वापस निराश जाते हुये सन्यासी को बुलाया और उसकी वांछित सहायता की ।युधिष्ठर ने सही समय पर सही युक्ति द्वारा सन्मार्ग दिखाने के लिये अपने बुद्धिमान भाईयों की भरपूर सराहना की ।

गुरुवार, जून 03, 2010

ये जो अपनी पूजा है..ना..जानते हैं..?

पूजा ,आरती , उपासना , आराधना , ज्योति , मुक्ति , कामना , स्तुति ये किन्ही सुन्दर लङकियों के नाम नहीं हैं बल्कि ये वो बात है । जिसका हमारे जीवन से , जव तक हमें ये अनमोल देही प्राप्त है , बङा ही गहरा सम्बन्ध है । आइये देखें कि हम इनके बारे में क्या और कितना जानते हैं । सबसे पहले मैं पूजा की बात करता हूँ । पूजा हिन्दुस्तानी जीवन में स्त्री , पुरुष और बच्चों तक के बीच में अत्यन्त प्रचलित शब्द
है । हम जब छोटे होते हैं और गुङिया या गुड्डू में से कोई क्यों न हो हमारे माता पिता हमें सिखाने लगते हैं कि बेटा भगवान जी की पूजा कर लो । वास्तव में मैं नहीं जानता कि " पूजा " शब्द कब और कैसे हिन्दी भाषा में आया और संस्कारों से जुङा होने के कारण इतना लोकप्रिय हुआ कि इसके बराबर
रेटिंग वाला दूसरा शब्द मेरी निगाह में नहीं है । अब हैरत की बात ये है कि वास्तव में पूजा हिन्दी का शब्द नहीं है । मूल रूप से ये तमिल भाषा का शब्द है । अतः इसका वास्तविक अर्थ क्या ध्वनित करता है । मैं दावे के साथ नहीं कह सकता । मुझे तमिल भाषा और उसके व्याकरण की समझ नहीं हैं । अतः शब्द धातु के अनुसार मैं इसके घटकों को जानने में नाकाम रहा । आप में से यदि कोई तमिल भाषा का ग्यान रखता हो तो इसका अर्थ क्या होता है । कृपया मुझे अवश्य बतायें । ये शब्द हमारे लिये बङा नुकसानदायक है और हमारी स्तुति आदि की तमाम मेहनत और धन व्यर्थ खर्च करता है । कैसे आईये बताते हैं । मैंने आपसे कहा..राम आगरा में पढ रहा है । अब आप कल्पना करें कि आप राम (भगवान न समझ लेना ) को जानते हैं । आगरा जानते हैं । और पढाई का महत्व जानते हैं । यानी मेरे कहते ही आप के सामने पूरा द्रष्य बन गया और आपने बिना किसी अतिरिक्त मेहनत के बात का सार निकाल लिया । और जब सार निकल आया तो आप अपेक्षित लाभ ले सकते हैं । अब दूसरी तरह से देखें..अबकी मैंने आपसे कहा..अगीरा पढी रमिया । अब बताइये । राम आगरा पढ रहा है..की तरह आप इस बात का एकदम स्पष्ट अर्थ निकाल सकते हैं । नहीं निकाल सकते । क्योंकि मैंने मिलते जुलते शब्दों का प्रयोग किया है । इसलिये यहाँ आप को पूर्व प्रभाव से लग रहा होगा कि अर्थ निकल आयेगा । मेरा आशय ये है कि किसी ने कुछ ऐसे शब्द बोले जो अन्य भाषा के थे और आप की समझ में कतई नहीं आये तो राम आगरा पढ रहा है । उदाहरण की तरह आप एकदम उसका अर्थ नहीं समझ पायेंगे और अर्थ नहीं समझ पायेंगे तो लाभ ही नहीं होगा । इसी तरह आप पूजा शब्द पर विचार करें । पूजा क्या हैं और इसका मतलब क्या है ? यह बात आपको आगे के शब्द शोधन से भली प्रकार समझ में आ जायेगी ।
मेरा दूसरा शब्द " आरती " है । आरती क्योंकि हिन्दी शब्द है ( वास्तव में हिन्दी भाषा ..संस्कृत से बनी है और संस्कृत हिन्दी की ही नहीं सभी भाषाओं की जननी है ) और संस्कृत के आर्त ( दुखी , पीङित ) से बना है । इसलिये इसका अर्थ एकदम शीशे की तरह साफ़ है । आरती में जो पद रचना होती हे उसमें किसी देवता या भगवान से अपना दुखङा रोया जाता है । ओम जय जगदीश हरे । भक्त जनों के संकट पल में दूर करे । आप किसी भी आरती को ले लें । ये एक दुखी और संकटग्रस्त आदमी की भगवान के लिये , मदद प्राप्ति हेतु एप्लीकेशन ही होगी । इस तरह आर्त से आरत और आरत से आरती बन गयी । अतः आरती अपने अर्थ को स्पष्ट करती हुयी अपनी क्षमता के अनुसार फ़लदायक है ।अगर मैं इसको धातु स्तर पर व्याख्या करूँगा तो ये बेहद जटिल और क्लिष्ट हो जायेगा । इसलिये आप इतने को ही विचार स्तर पर परखेंगे तो भी बहुत लाभ होगा ।
मेरा तीसरा शब्द " आराधना " है । आराधना ही वास्तव में वो शब्द है जो किसी तरह से अन्धेंरे में चला गया और इस बेहतरीन शब्द का स्थान तमिल शब्द पूजा ने ले लिया । मैंने पहले ही कहा कि पूजा शब्द से क्या ध्वनि निकलती हैं । मैं नहीं जानता..पर पूजा शब्द से जो भाव प्रकट होता है । वह निश्चय ही आराधना का अनुसरण करता है । हैरत की बात ये है कि आराधना जैसे मूल शब्द और सटीक भाव को बताने वाले शब्द का " पूजा " शब्द पर्यायवाची या विकल्प के रूप में नहीं आया । बल्कि ये एक तरह से आराधना के अस्तित्व को ही निगल गया । आराधना का मोटे और सतही तौर पर अर्थ है । लक्ष्य की तरफ़ बढ्ना या चढाई करना । तो सीधी सी बात है कि भक्ति की शुरूआत ही है । भगवान के बारे में जानते हुये क्रमशः लक्ष्य की तरफ़ बङना । आराधना यानी आ.. राधन..यानी चढना..मतलव..थ्योरी तो पढ ली । अब प्रक्टीकल किया जाय । तो देखा आपने पूजा शब्द से हमें कितना विकट नुकसान हुआ है । ये साजिश जिन अलौकिक शक्तियों की है । उनके बारे में बता दूँ तो आपके छक्के छूट जायेंगे और आप लुटा हुआ महसूस करेंगे । दरअसल कुछ बङी और मध्यम शक्तियाँ नहीं चाहती कि मनुष्य सत्य को जाने ।
मेरा चौथा शब्द " उपासना " है । उपासना एक बङी और उच्च स्थिति वाला शब्द है । और साधारण शब्द ग्यान वाला भी आसानी से इस उच्च प्रभाव रखने वाले शब्द का अर्थ समझ सकता है । उपासना यानी उप ( ऊपर ) आसन ( बैठना ) यानी ऐसा साधक जो आराधना से ऊपर उठ चुका है । और जीव भाव से ऊपर किसी स्थिति को प्राप्त कर चुका है । और उपासन होकर बैठता है । इसका अर्थ बेहद सरल है और इसमें कोई कठिनाई नहीं है ।
ज्योति शब्द का सामान्य अर्थ है । दीपक की लौ जैसा आकार । या स्थिति के अनुसार प्रकाश । ज्योति शब्द या ज्योति का भक्ति साधनों में काफ़ी इस्तेमाल होता है । और अपनी स्थिति के अनुसार ये रियक्ट करता है । पर मूल ज्योति वह है । जिस पर विभिन्न योनियों के सभी जीव शरीर धारण करते हैं । ज्योति पर ही जीव वासना पतंगे की तरह जल रही है और हम समझते हैं कि बङी मौज बनायी गयी है हमारे लिये । तरह तरह के सुन्दर द्रष्य । खाने पीने की ढेरों प्रकार की सामग्री । कामवासना आदि के लिये सुन्दर सजीले स्त्री पुरुष ...सुन्दर बच्चे..परिवार.आदि.अंग्रेजी के एक शब्द में कहें तो everything..मुझे आशा है । आप इसको समझ गये होंगे । मुक्ति..कामना..स्तुति..आदि भी अधिक कठिन शब्द नहीं हैं । स्वाहा या स्वाह शब्द का भी बङा गूढ अर्थ है जिस पर फ़िर कभी चर्चा करूँगा लेकिन फ़िलहाल आप ये सोचें कि जिस तरह आप इन शब्दों का अर्थ किसी हद तक तो समझ ही गये होंगे ..पर क्या अपनी पूजा को इस तरह जानते हैं ?

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Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।