सोमवार, दिसंबर 12, 2011

जे. कृष्णमूर्ति



जे. कृष्णमूर्ति का जन्म 11 मई 1895 को आन्ध्रप्रदेश के एक छोटे से कस्बे मदनापल्ली में एक धर्म परायण परिवार में हुआ था। उनका पूरा नाम जिड्डू या जिद्दू कृष्णमूर्ति है।

विभिन्न धर्मग्रंथों में वर्णित इस मान्यता के अनुसार कि मानवता के उद्धार के लिए समय समय पर परमचेतना मनुष्य रूप में अवतरित होती है। थियोसोफिकल सोसायटी के सदस्य पहले ही किसी विश्वगुरू के आगमन की भविष्यवाणी कर चुके थे। श्रीमती बेसेंट और थियोसोफ़िकल सोसायटी के प्रमुखों को जे. कृष्णमूर्ति में वह विशिष्ट लक्षण दिखे जो कि एक विश्वगुरू में होते हैं, तो श्रीमती बेसेंट द्वारा किशोरवय में ही जे. कृष्णमूर्ति को गोद लेकर उनकी परवरिश पूर्णतया धर्म और आध्यात्म से ओतप्रोत परिवेश में की गई। उनकी संपूर्ण शिक्षा इंगलैण्ड में हुई।

जे कृष्णमूर्ति ने किसी जाति राष्ट्रीयता अथवा धर्म में अपनी निष्ठा व्यक्त नहीं की, ना ही वे किसी परंपरा से आबद्ध रहे। सन 1922 में कृष्णमूर्ति किन्हीं गहरी आध्यात्मिक अनुभूतियों से होकर गुजरे, और उन्हें उस करूणा का स्पर्श हुआ।

जिसके बारे में उन्होंने स्वयं कहा - वो करूणा सारे दुख कष्टों को हर लेती है।

उन्होंने सत्य के मित्र और प्रेमी की भूमिका निभायी। लेकिन स्वयं को कभी भी गुरू के रूप में नहीं रखा। उन्होंने जो भी कहा वह उनकी अंतरदृष्टि का संप्रेषण था। उन्होंने दर्शन शास्त्र की किसी नई पद्धति या प्रणाली की व्याख्या नहीं की बल्कि मनुष्य की रोज़मर्रा की जिन्दगी से ही भ्रष्ट और हिंसापूर्ण समाज की चुनौतियों, मनुष्य की सुरक्षा, और सुख की खोज, भय, दुख, क्रोध जैसे विषयों पर कहा। बारीकी से मानव मन की गुत्थियों को सुलझा कर लोगों के सामने रखा। दैनिक जीवन में ध्यान के यथार्थ स्वरूप, धार्मिकता की महत्ता के बारे में बताया। उन्होंने विश्व के प्रत्येक मानव के जीवन में उस आमूलचूल परिवर्तन की बात कही। जिससे मानवता की वास्तविक प्रगति की ओर उन्मुख हुआ जा सके।

उन्होंने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि मनुष्य की वैयक्तिक और सामाजिक चेतना दो भिन्न चीजें नहीं हैं। पिण्ड में ही ब्रह्माण्ड है, इसको समझाया। उन्होंने बताया कि वास्तव में हमारी भीतर ही पूरी मानवजाति पूरा विश्व प्रतिबिम्बित है। प्रकृति और परिवेश से मनुष्य के गहरे रिश्ते और प्रकृति और परिवेश से अखण्डता की बात की। उनकी दृष्टि मानव निर्मित सारे बंटवारों, दीवारों, विश्वासों, दृष्टिकोणों से परे जाकर सनातन विचार के तल पर क्षण मात्र में जीने का बोध देती है।

बुद्धत्व उपरांत पैंसठ वर्षों तक वे अनथक सारी दुनियां में भ्रमण करते हुए निज अंतरदृष्टि से उदभूत सार्वजनिक वार्ताओं, साक्षात्कार, निजी विवेचनाओं, संवाद, लेखन और व्याख्यानों के माध्यम से सत्य के विभिन्न पहलुओं से लोगों को परिचित कराते रहे।

उन्होंने बताया कि किसी भी गुरू, संगठित धर्म, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक उपाय से मनुष्य में भलाई, प्रेम और करूणा नहीं पैदा की जा सकती। उन्होंने कहा कि मनुष्य को स्वबोध के जरिये अपने आपसे परिचय करते हुए स्वयं को भय पूर्व संस्कारों सत्ता प्रामाण्य और रूढ़िबद्धता से मुक्त करना होगा। यही मनुष्य में व्यवस्था और आमूलचूल मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों का आधार हो सकता है। हर तरह की आध्यात्मिक तथा मनोवैज्ञानिक दावेदारी को नकारना, और उन्हें भी कोई गुरू या अथॉरिटी ना बना डाले, इससे आगाह करना उनके चेतावनी वाक्य थे।

अपने कार्य के बारे में उन्होंने कहा - यहाँ किसी विश्वास की कोई मांग या अपेक्षा नहीं है। यहाँ अनुयायी नहीं है, पंथ संप्रदाय नहीं है। व किसी भी दिशा में उन्मुख करने के लिए किसी तरह का फुसलाना प्रेरित करना नहीं है। और इसलिए हम एक ही तल पर, एक ही आधार पर, और एक ही स्तर पर मिल पाते हैं। क्योंकि तभी हम सब एक साथ मिलकर मानव जीवन के अदभुत घटनाक्रम का अवलोकन कर सकते हैं।

जे कृष्णमूर्ति ने स्वयं तथा उनकी शिक्षाओं को महिमामंडित होने से बचाने और उनकी शिक्षाओं की व्याख्या की जाकर विकृत होने से बचाने के लिए लिए अमरीका, भारत, इंगलैण्ड, कनाडा, और स्पेन में फाउण्डेशन स्थापित किये।

भारत इंगलैण्ड और अमरीका में विद्यालय भी स्थापित किये। जिनके बारे में उनका दृष्टिबोध था कि शिक्षा में केवल शास्त्रीय बौद्धिक कौशल ही नहीं वरन मन मस्तिष्क को समझने पर भी जोर दिया जाना चाहिये। जीवनयापन और तकनीकी कुशलता के अतिरिक्त जीने की कला कुशलता भी सिखाई जानी चाहिए।

17 फ़रवरी 1986 को जे कृष्‍णमूर्ति‍  का देहावसान हुआ। जे कृष्णमूर्ति के मौलिक दर्शन ने पारंपरिक, गैर परंपरावादी विचारकों दार्शनिकों शीर्ष शासन संस्था प्रमुखों भौतिक और मनोवैज्ञानियों और सभी धर्म सत्य और यथार्थपरक जीवन में प्रवृत्त सुधिजनों को आकर्षित किया, और उनकी स्पष्ट दृष्टि से सभी आलोकित हुए हैं।

उनके साहित्य में सार्वजनिक वार्तायें, प्रश्न उत्तर, परिचर्चाएं, साक्षात्कार, परस्पर संवाद, डायरी और उनका खुद का लेखन शामिल है। जो कि अब तक पचहत्तर से अधिक पुस्तकों और सात सौ से अधिक ऑडियो और बारह सौ से अधिक वीडियो कैसेटस सीडी के रूप में उपलब्ध है। उनका मूल साहित्य अंग्रेजी भाषा में है। जिसका कई मुख्य प्रचलित भाषाओं में अनुवाद किया गया है। वार्तायें, प्रश्न उत्तर, परिचर्चायें, साक्षात्कार, परस्पर संवाद, प्रवचनों के ऑडियो और वीडियो टेप भी उपलब्ध हैं।

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Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।