सोमवार, दिसंबर 19, 2011

समरथ है गुरू हमारा



1. प्रश्न - स्वामी जी, दीक्षा लेने की क्या आवश्यकता है। स्वयं अपने बल पर साधना करने से भी तो साधना पूरी हो सकती है?

ऊत्तर - हे प्रिय शिष्य, दीक्षा लिये बिना मन की एकाग्रता नहीं होती। आज शायद तुम्हारे मन में कोई देवी देवता अच्छा लगे। कल कोई सन्त महात्मा अच्छा लगे, और अगले दिन कोई सदगुरू अच्छा लगे। परिणाम स्वरूप किसी में भी एकाग्रता नहीं हो सकती है। यदि मन स्थिर न हो तो भगवान (सदगुरू) का लाभ तो दूर की बात है, मामूली सांसारिक कर्मों में भी गङबङी होने लगती है। भगवान लाभ करने के लिये श्री सदगुरूदेव भगवान की नितान्त आवश्यकता है।

गुरू के बतलाये हुए नाम मात्र का जप व ध्यान करने से और श्री सदगुरूदेव की दया से सब ठीक हो जाता है, या सर्वसमर्थ श्री सदगुरू ठीक कर देते हैं। श्री सदगुरूदेव के वचनों पर विश्वास करके यदि निष्ठापूर्वक तथा श्रद्धा सहित भजन, सुमिरन, सेवा, पूजा, दर्शन, ध्यान न करोगे तो किसी भी हालत में कुछ की भी प्राप्ति नहीं हो सकती है। धर्म का मार्ग अति कठिन है। श्री सदगुरू का आश्रय मिले बिना चाहे जितना भी बुद्धिमान क्यों न हो। कोटिश: प्रयत्न क्यों न करे, ठोकर खाकर गिर ही पङेगा।

साधारण सी बात है कि चाहे जो भी कला सीखना चाहो। उस कला को प्राप्त करने के लिये उस कला के गुरू को मानना ही पङेगा, और उसी के निर्देशानुसार सीखना पङेगा तब वह विद्या या कला सीख पाओगे। तब फ़िर इतनी श्रेष्ठ ब्रह्मविद्या का लाभ प्राप्त करने के लिये गुरू की आवश्यकता क्यों नहीं पङेगी? गुरू की आवश्यकता अवश्य पङेगी और सदा पङेगी।

यदि भगवान लाभ चाहते हो तो धैर्य धारण कर भजन, सुमिरन, सेवा, पूजा, दर्शन, ध्यान करते जाओ, समय आने पर सब होगा। वे खुद जानते हैं कि वे कब दर्शन देंगे। बिना श्रद्धा के दौङ धूप करने से कोई फ़ायदा नहीं होगा।

श्री स्वामी जी महाराज सतसंग के दौरान कहा करते थे कि समय से पहले पक्षी अपना अण्डा तक नहीं फ़ोङता है। ऐसे अवसर पर मन की अवस्था बहुत ही कष्टदायक होती है। एक बार आशा फ़िर निराशा, कभी हंसना, कभी रोना, वस्तु लाभ न होने पर दिन इसी तरह कट जाते हैं। परन्तु उत्तम गुरू पा जाने से वे मन को इस अवस्था से भी झट से ऊपर उठा सकते हैं।

किन्तु यदि बिना ठीक समय के आये इस प्रकार मन को ऊपर उठा दिया जाय तो उसका वेग सम्हाला नहीं जा सकता। उल्टे शरीर और मन का अनिष्ट होता है। ऐसी अवस्था में बङी सावधानी से रहना पङता है। श्री सदगुरू के आश्रम में रहकर उनके उपदेश अनुसार सात्त्विक आहार, पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन इत्यादि नियमों का सुचारू रूप से पालन करना पङता है। यदि ऐसा न किया जाय तो सिर का गरम होना, सिर चकराना इत्यादि रोगों का सामना करना पङता है।

प्रश्न - सदगुरू देव जी महाराज, मुझे भजन, सुमिरन, ध्यान एक साथ करने का आदेश मिला है। परन्तु ध्यान तो बिलकुल नहीं होता है। इसलिये मन बीच-बीच में बहुत खराब हो जाता है।

उत्तर - प्रिय भक्त, निराशा उत्पन्न होना स्वाभाविक है। एक दिन एक भक्त को आश्रम में ऐसा हुआ था। उस समय उसकी उम्र बहुत कम थी। भजन, सुमिरन, ध्यान करने की जो विधि बतलाई गयी थी, उसको रोज करता था। क्योंकि श्री स्वामी जी महाराज का सबको भजन, सेवा, ध्यान करने का कङा निर्देश था। उम्र कम और करने का शौक तो था ही लेकिन मन चंचल बहुत था।

जब भजन, सुमिरन, ध्यान करता तो कभी ध्यान होता, कभी नहीं होता था तो मन में बङी घबराहट व बङी ग्लानि भी होती थी। श्री सदगुरूदेव से कहने में बङा डर लगता था। एक दिन मन में आया कि इतने दिन से यहाँ आया हूँ, कुछ भी तो अभी नहीं बना। अर्थात न भजन होता न ध्यान ही आता है फ़िर क्या यहाँ रहूँ। जाय सब चूल्हे में।

श्री स्वामी जी से भी कुछ नहीं बतलाया। मन ही मन सोच रहा था कि यदि इसी तरह दो-चार दिन और चला तो घर वापस चला जाऊँगा। ऐसा सोचता हुआ बाहर आ रहा था कि श्री स्वामी जी महाराज ने उसे देख लिया। वे अन्दर कमरे में चले गये। तब सबका नियम था कि मन्दिर में आरती पूजा के बाद सब लोग श्री स्वामी जी के दर्शन करने के लिये जाते थे। श्री स्वामी जी महाराज का दर्शन करने के बाद सब कोई नीचे प्रसाद लेने जाते थे।

जब दण्डवत प्रणाम कर उठा तो श्री स्वामी जी महाराज बोले - देख, तू जब मन्दिर से आ रहा था तब देखा कि तेरा मन मानो मैल से ढंक गया है।

यह सब सुनकर भक्त ने सोचा - हाय रे, श्री स्वामी जी महाराज तो सब कुछ मेरे अन्दर की बात जान गये।

वह बोला - मेरा मन सचमुच खराब हो गया है आप सब कुछ जान गये हैं।

तब उन्होंने उसका मुँह खुलवा कर जीभ पर कुछ लिख दिया। तुरन्त ही पहले का सारा कष्ट भूल गया और आनन्द में विभोर हो गया। जब भी उनके पास जाता या रहता था। हमेशा आनन्द से भरपूर रहता था। इसीलिये तो सिद्ध एवं शक्तिशाली गुरू की आवश्यकता होती है।

प्रश्न - आजकल बहुत से लोग दीक्षा लेकर भजन, सुमिरन, ध्यान तो करते ही नहीं बल्कि बङी बङी डींगे मारते रहते हैं।

उत्तर - बहुत धैर्य चाहिए। धैर्य धारण कर भजन, सुमिरन, ध्यान की साधना करते जाओ। जब तक तत्त्व लाभ न हो, तब तक खूब मेहनत करो, यानी खूब मेहनत, लगन, और श्रद्धा से भजन, सुमिरन, ध्यान की साधना नियमित नियमानुसार सदा करते रहो। पहले पहल साधना बेगारी करने के समान नीरस मालूम पङती है, जैसे अ आ का सीखना।

परन्तु धैर्यपूर्वक लगे रहने पर यानी भजन, सुमिरन, ध्यान करते रहने पर धीरे धीरे भजन, ध्यान होने लग जाता है, और मन को शान्ति भी मिलने लग जाती है। दीक्षा लेने के बाद जो सिर्फ़ शिकायत करते हैं और कहते हैं कि महाराज जी, कुछ तो नहीं हो रहा है। उनकी बात दो-तीन साल तक बिलकुल नहीं सुना। बल्कि उन्हें समझा बुझाकर तसल्ली देकर छोङ देता था।

इसके बाद वे लोग खुद ही आकर कहते थे कि - हाँ महाराज जी, अब कुछ कुछ हो रहा है। यह जल्दबाजी की चीज नहीं है। दो-तीन साल का खूब भजन, सुमिरन, ध्यान की साधना करो। फ़िर आनन्द मिलने लगेगा। तुम्हारी बात सुनकर बडा आनन्द आया। आजकल अनेक लोग कामचोरी करते हुए छल से अपना काम बना लेना चाहते हैं। पर यह आध्यात्मिकता की बात है और सच्चे दरबार में झूठ और चापलूसी ज्यादा दिन नहीं चलती। अन्त में भाण्डा फ़ूट जाता है।

प्रश्न - स्वामी जी, ईश्वर है, या नहीं। इसका क्या प्रमाण है?

उत्तर - सन्त महापुरूषों का कहना है कि ईश्वर है, और हम लोगों ने उन्हें पाया है। तुम लोग खूब भजन, सुमिरन, ध्यान, नियमित नियमानुसार करोगे तो तुम लोग भी पाओगे। सन्तों का कहता है कि भांग भांग कहने से नशा नहीं चढ़ता। भांग लाओ, पी लो, तब कुछ नशा चढ़ेगा। केवल भगवान या ईश्वर ईश्वर कहने से नहीं होगा। भजन, सुमिरन, ध्यान की साधना करो। फ़िर उनकी कृपा की अपेक्षा करो। समय पर उनकी कृपा तथा उनक दर्शन अवश्य पाओगे।

प्रश्न - स्वामी जी महाराज, जप करते करते कभी कभी मन शून्य हो जाता है, यह क्यों?

उत्तर - पतंजलि ने कहा है यह शून्यपन विघ्न है। श्री सदगुरू महाराज के बतलाये हुए नाम का भजन, सुमिरन, ध्यान निरन्तर करते रहने से ध्यान में प्रगाढ़ता आती है। प्रगाढ़ता आने से प्रत्यक्ष अनुभूति हो जाती है, और अनुभूति हो जाने से समाधि हो जाती है। समाधि के बाद आनन्द का प्रभाव बहुत समय तक बना रहता है। श्री स्वामी जी महाराज कहा करते थे कि यह भक्ति भजन का आनन्द जीवन भर बना रहता है कभी भी समाप्त नहीं होता।

श्री स्वामी जी महाराज एक शिष्य को समझा रहे थे। परन्तु बालक जानकर थोडा सा एवायड कर रहे थे। फ़िर भी मालिक तो भक्ति की खान होते हैं। जब भक्ति की खान से फ़व्वारा निकला तो अपने शिष्य को भक्ति का खान बना दिया, और फ़िर शिष्य के कानों में श्री सदगुरू का नाम पडते ही उस शिष्य के भीतर से मानो प्रेम का फ़ुहारा उठने लगा। साधु ही साधु को पहचान सकता है। साधना करके उच्च अवस्थ प्राप्त किये बिना उस अवस्था के व्यक्ति को पहचाना नहीं जा सकता। हीरे का मूल्य क्या सब्जी बेचने वाला लगा सकता है।

प्रश्न - स्वामी जी, कुछ महात्माओं और भक्तों का कहना है कि निर्जन स्थान में गुप्तरूप से रोते रोते मालिक को पुकारना चाहिये। चाहे एक वर्ष तक हो, या तीन माह हो, या तीन दिन हो। साधु संग हो, निर्जन स्थान हो, जैसे नदी का किनारा, धार्मिक स्थान, बाग बगीचा, उसमें बैठकर भजन ध्यान करना चाहिये। इन दोनों में किस पर अधिक जोर देना हमें उचित है।

उत्तर - भजन, ध्यान दोनों एक साथ करना होगा। एकान्त में बैठ कर भजन, ध्यान करने से मन सहज ही अन्तर्मुखी हो जाता है। व्यर्थ की चिन्तायें कम हो जाती है। थोङी उन्नति हुए बिना पूर्ण निर्जन स्थान का प्रयोग नहीं किया जा सकता। बहुत लोग एकदम नि:संग होने की कोशिश करने से पागल हो जाते हैं। कोई अनिष्ट हो जाता है। भजन, सुमिरन, ध्यान करते करते कुछ अभ्यास होने पर ही एकान्तवास करें। भजन, ध्यान करते करते समाधिस्थ हुए बिना श्री सदगुरू को अन्दर बसाये बिना या सदगुरू के चिन्तन में लीन हुए बिना मन ठीक तरह से नि:संग नहीं होगा। साधु सन्तों की संगति की भी सदैव आवश्यकता पङती है।

एक दिन एक व्यक्ति श्री स्वामी जी महाराज के पास आया। उन्हें देखा, वे चुपचाप अपने में अन्दर लीन हैं। उन्हें देखकर वह सोचने लगा - ये बात नहीं करते, इनके पास आने से क्या लाभ?

यह सोचकर वह उस दिन वापस चला गया और एक दिन आकर उनके पास कुछ देर बैठा रहा। उस दिन उसने देखा कि स्वामी जी अन्दर यानी अपने मन ही मन किसी से बातें कर रहे हैं। कभी रो
रहे हैं, तो कभी हंस रहे हैं।

उनका यह भाव देखकर उस व्यक्ति ने उस दिन कहा - जो आज सीखा है, वह हजारों पुस्तकें पढ़कर भी नहीं सीखा जा सकता है। श्री सदगुरू भगवान में जब ऐसी व्याकुलता आयेगी तभी उनके दर्शन होंगे और तभी भजन, सुमिरन, पूजा, दर्शन, ध्यान की साधना का आनन्द आएगा।

प्रश्न - स्वामीजी, ध्यान में बैठने से कभी कभी मन खूब स्थिर होता है, और कभी कभी हजार चेष्टा करने पर भी स्थिर नहीं हो पाता है। सिर्फ़ इधर उधर दौङता रहता है।

उत्तर - हाँ, ऐसा होता है। किन्तु यह पहले पहल ही होता है। समुद्र में ज्वार भाटा होता है। ठीक उसी प्रकार सभी चीजों का ज्वार भाटा होता है। साधना भजन में भी ज्वार भाटा है। इसके लिये कुछ सोचना मत, कमर कस कर नियम से लगे रहना चाहिये। श्री सदगुरू महाराज के प्रति एकनिष्ठ भक्ति भाव से साधना, भजन, सुमिरन, सेवा, पूजा, दर्शन, ध्यान कुछ समय तक नियमित रूप से किया जाए तो ज्वार भाटा फ़िर नहीं उठेगा। मन स्थिर होने लगेगा। तब ध्यान की धारा अविरल प्रवाहित होने लगेगी।

आसन पर बैठते ही एकदम जप ध्यान आरम्भ करना ठीक नहीं है। पहले विचार पूर्वक श्रद्धा भाव से मन को बाहर की दुनियां से समेटना चाहिये। फ़िर अपने श्री सदगुरूदेव महाराज को आप जहाँ बैठे हैं वहीं से मन ही मन साष्टांग दण्डवत प्रणाम करना चाहिये। श्री स्वामी जी महाराज से हाथ जोङकर प्रार्थना करना चाहिये कि हे मेरे दयासागर, परमदयालु, श्री स्वामी जी, मेरे मालिक मेरा मन ध्यान की तरफ़ अग्रसर कीजिये। मन की भटकन को छुङाइये प्रभु। फ़िर उसके बाद मालिक के स्वरूप का ध्यान, भजन प्रारम्भ करना चाहिये। कुछ दिन ऐसा करने पर मन धीरे धीरे स्थिर हो जायेगा।

जब देखो कि मन थोङा स्थिर हो रहा है तो उस समय काम कोई भी करो। सेवा करते रहो लेकिन मन मालिक की तरफ़ लगाये रखो। जहाँ जरा भी सेवा से अवकाश मिले तुरन्त भजन, सुमिरन, ध्यान करना चाहिये। जब अच्छा न लगे मन स्थिर न हो उस समय मालिक की श्रीमुख वाणी का स्मरण करते रहना चाहिये। मालिक को याद करते रहना चाहिये और उनका भजन गाना चाहिये। भजनादि गुनगुनाने से भी मन लगता है। नियमित नियमानुसार चिन्तन, मनन और मालिक का दर्शन, आरती, पूजा, भजन, त्यौहार आदि की अदभुत छवि के ख्याल की सहायता से मन को स्थिर करने की चेष्टा करे। मन तुरन्त स्थिर होने लगेगा। प्रतिक्षण संघर्ष करना होगा। मन कहो, बुद्धि कहो, चाहे इन्द्रिय कहो। संघर्ष करने से सभी वश में आ जाते हैं।

श्री स्वामी जी महाराज ने कहा है - संघर्ष ही है जीवन।
श्री गुरूदेव ने कहा है - कांटों का गम नहीं है, समरथ है गुरू हमारा।

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Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।