सोमवार, दिसंबर 19, 2011

गुरू अतिरिक्त और नहीं ध्यावे



प्रश्न - महाराज जी, गुरू भाइयों से बातचीत के दौरान मालूम होता है और मेरे साथ भी ऐसा होता है कि कभी कभी भजन, सुमिरन, सेवा, पूजा, दर्शन, ध्यान में खूब मन लगता है, और उसमें आनन्द आता है, और कभी भजन, सुमिरन व ध्यान के अभ्यास में कमी आ जाती है। मन ठीक से नहीं लगता है। मन में तरह तरह की हिलोरें उठती रहती हैं और तरह तरह की विघ्न बाधायें आती रहती हैं। यह हालत एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी यानी एक के बाद एक लगातार आती ही रहती हैं। भजन ध्यान का साधन बनता बिगङता रहता है।

उत्तर - जब तक श्री सदगुरूदेव महाराज की कृपा नहीं होगी। तब तक भजन, सुमिरन, ध्यान में रस या आनन्द नहीं आयेगा। साधक के मन में भजन, ध्यान के लिये बेकली व तङप आवश्यक है। जिससे रस और आनन्द के लिए भूख पैदा हो। भजन और ध्यान के लिए भूख पैदा होना ही आगे का रास्ता चलना है। यदि उतने से आनन्द में तृप्ति हो जाती है तो फ़िर उसके लिये आगे का रास्ता रुक जाता है। अत: ऐसी दशा में जब विघ्न उत्पन्न हो तो उसके लिये विरह तथा तङप उत्पन्न होती है। ऐसी दशा में अभ्यासी को घबराना नहीं चाहिये और न ही निराश होना चाहिये। इस दशा में श्री सदगुरूदेव महाराज के दया की आशा रखकर खूब लगन से भजन, सुमिरन, सेवा, पूजा, दर्शन, ध्यान नियमित नियमानुसार करते रहना चाहिये। इससे मालिक की दया व कृपा अवश्य ही होती है।

महापुरूषों ने बताया है कि साधक जितना रास्ता चलता है, और परमार्थ पथ पर अग्रसर होता जाता है, उतनी ही अधिक विघ्न बाधायें सामने आती हैं। नित्य नयी तरंगें लेकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, माया तथा अहंकार के रूप में विघ्न आते हैं। अत: इनसे बचने के लिये केवल एकमात्र सहारा श्री सदगुरू भगवान का ही रह जाता है। अर्थात श्री सदगुरूदेव जी महाराज की दया का सहारा लेकर इन विघ्नबाधाओं को काटते रहना चाहिये। श्री सदगुरूदेव जी महाराज की दया से साहस और पुरूषार्थ के साथ चलकर श्री सदगुरूदेव महाराज की कृपा से धीरे धीरे माया मोह के प्रभाव पर विजय पाना चाहिये। साधक एक न एक दिन सफ़लता प्राप्त कर ही लेगा।

ऐसी धुन गुरू में लगे, जैसे तन में प्रान।
एक पलक बिसरूं नहीं, हे परिपूरण काम।

बिना श्री सदगुरूदेव की कृपा व दया के काम, क्रोध, लोभ, मोह, माया, अहंकार से लङना सम्भव नहीं है। श्री सदगुरूदेव जी महाराज की दया या सम्बल लिये बिना साधक आगे नहीं बढ़ सकता है। ऐसा होने से साधक के मन में मालिक के प्रति प्रेम, दीनता और आश्रय बढ़ते जाते हैं और जब श्री सदगुरू की दया से विघ्न कटने लग जाते हैं तो प्रभु प्रेम विशेष रूप से उभरने लगता है। जिसके फ़लस्वरूप साधक तीव्रता से परमार्थ पथ पर बढ़ने लगता है। उसका मन मानस स्वच्छ होने लगता है और उसकी बढ़त इस ढंग से होने लगती है। जिससे वह इस मायादेश से ऊपर उठकर ऊँचे देश यानी दयाल देश का वासी बन जाता है। यह सब कुछ हमारे श्री सदगुरूदेव की कृपा व दया की बख्शीश या देन है।

नियम निभाये दास ये, प्रभु दीजो यही आशीष।
मेरे दामन में भरो, प्रभु दया की बख्शीश।

जो साधक श्री सदगुरू के स्वरूप को अगुआ करके चलेगा यानी श्री सदगुरूदेव जी महाराज का आश्रय लेकर कोई भी कार्य करेगा। उसे प्रभु की कृपा से विघ्नबाधायें बहुत ही कम असर करेंगी। यदि माया अपने दल-बल का थोङा बहुत वेग दिखायेगी तो भी श्री सदगुरूदेव अपनी दया से अपने शिष्य के ऊपर आई विघ्नबाधाओं का शीघ्र निवारण कर देंगे। इस प्रकार साधक अपने श्री सदगुरूदेव महाराज पर आश्रित रहकर भजन, सुमिरन, ध्यान तथा भक्ति की साधन करता है तथा सदा अपने मन को उनके श्रीचरण कमलों में लवलीन रखता है उससे माया भी डरती है। क्योंकि वह जानती है कि यहाँ मेरा वश नहीं चलेगा। इसलिये सभी साधकों को सीख दी जाती है कि कोई भी कार्य, चाहे सामाजिक कार्य हो या आध्यात्मिक कार्य सदा सर्वदा श्री सदगुरूदेव महाराज को आगे रखकर ही करोगे तो सदा सफ़लता प्राप्त करते रहोगे।

गुरू अतिरिक्त और नहीं ध्यावे।
गुरू सेवा रत शिष्य कहावे।

इस तरह से अपने इष्टदेव पर न्यौछावर हों तब वे कृपालु, दयालु अपने वह प्रेमाभक्ति देते हैं, जो सारे सुखों का मूल है। जब हम उन पर अपने आपको कुर्बान कर देते हैं। हम पर उन्हें पूर्ण विश्वास हो जाता है कि यह हमारी हर आज्ञा का पालन करेगा तब वे अपने सेवा का अवसर प्रदान करते हैं। अत: हमें पूर्णरूपेण श्री सदगुरूदेव भगवान की श्री चरण शरण में अर्पित होना चाहिये।

तभी तो लोग कहते हैं कि
न हमने हंस के पाया है, न हमने रो के पाया है।
जो कुछ भी हमने पाया है, श्री सदगुरू का हो के पाया है।

बिना श्री सदगुरूदेव की कृपा के साधक के अन्दर भजन, सुमिरन, ध्यान व भक्ति की प्रक्रिया यानी आध्यात्मिक प्रगति नहीं हो पाती। जिन साधक जिज्ञासु पर श्री सदगुरूदेव की महती कृपा होती है। उनको गुरू के प्रेम की अमूल्य निधि प्राप्त हो जाती है। उन्हें उसको बनाये रखने के लिये भजन, सुमिरन, ध्यान का नियमित अभ्यास नियमानुसार करते रहना चाहिये। साधक को इसे बनाये रखने के लिये नियमित अभ्यास करना अति आवश्यक है। जब कभी भजन, सुमिरन, ध्यान करते समय ध्यान में रूकावट पङे तो घबराना नहीं चाहिये। मालिक की दया का सहारा लेकर बार बार कोशिश पर कोशिश जारी रखे रहना चाहिए। ऐसा करने से मालिक की दया से भजन, सुमिरन व ध्यान होने लग जायेगा, और रस व आनन्द भी मिलने लगेगा। यही तो श्री सदगुरू की दया का प्रताप है।

श्री सदगुरू ने अति दया कर, दिया नाम का दान।
जपे जो श्रद्धा भाव से, पूरण होवें सब काम।

भजन में जब सांसारिक विचार आवे तो भरसक उन्हें हटाकर अपने मन को भजन, सुमिरन, ध्यान में लगाना चाहिये। यदि सांसारिक विचार न हटें तो मालिक के भजन, सुमिरन, सेवा, पूजा, दर्शन, ध्यान में मन को घुमा फ़िरा कर लगाते रहना चाहिये। यदि इतना करने पर भी मन न लगे तो मालिक से दीनभाव से प्रार्थना करें कि हे मालिक, मेरा तन, मन, धन सब आपका है। हे मालिक, मेरे मन को अपने चरणों की प्रीति की डोर मे बांध कर अपने साथ हमेशा जोङे रहिये, और मेरा मन भजन, सुमिरन, ध्यान के रस में हमेशा हमेशा सराबोर किये रहिये। इससे मेरे मन में शान्ति व आनन्द प्राप्त हो जायेगा।

माया और भक्ति दोनों इकट्ठी नहीं रह सकतीं। यह मेरा दिल मालिक का मन्दिर है। इष्टदेव का उपासना स्थल है। इसी उपासना स्थल में मालिक के नाम का भजन, मालिक के स्वरूप का ध्यान करें, और इसी भजन और ध्यान के रस में सदा डूबे रहें। यह श्री सदगुरू महाराज की महती दया है और सभी साधकों को इसे बनाये रखने के लिये भजन भक्ति का अभ्यास करना अति आवश्यक है। ऐसा करने से शान्ति का अनुभव होता है। ऐसी दशा में जितनी देर तबियत चाहे उतनी देर भजन ध्यान करता रहे और मन में शान्ति की भावना लेकर उठे।

सन्त सदगुरू जीवों के परम हितैषी होते हैं। वे संसार में आकर सदा परमार्थ एवं परोपकार में संलग्न रहते हैं और अपने भक्तों को भक्ति की सच्ची दात प्रदान कर उनके दुख, कष्ट को हरते हैं। उनकी आत्मा का कल्याण करते हैं। उन्हें चौरासी के चक्कर से मुक्ति दिलाते हैं। अपने सुकोमल तन पर अनेकों कष्ट सहन करके भी वे सदा भक्तों की भलाई करने में सदा लगे रहते हैं।

जीवों के कल्याण हित, निरत रहे दिन रैन।
पावन तन पर कष्ट सहें, देवें सुख और चैन।

सन्तों महापुरूषों का कहना है -

परमारथ के कारने, सन्त लिया औतार।
सन्त लिया औतार, जगत को राह चलावैं।
भक्ति करैं उपदेश, ज्ञान दे नाम सुनावैं।
प्रीत बढ़ावैं जगत में, धरनी पर डोलौं।
कितनौ कहे कठोर वचन, वे अमृत बोलौं।
उनको क्या है चाह, सहत हैं दुख घनेरे।
जीव तारन के हेतु, मुलुक फ़िरते बहुतेरे।
पलटू सदगुरू पायके, दास भया निरवार।

परमारथ के कारने, सन्त लिया औतार।

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Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।