गुरुवार, जनवरी 26, 2012

माया और भक्ति दोनों का एक साथ रहना सम्भव नहीं है

74 प्रश्न - महाराज जी ! कभी कभी भजन ध्यान का अभ्यास करते समय सिर और आंखों में दर्द होने लगता है । इसका क्या उपाय करें ?
उत्तर - ऐसे समय में यह अच्छा है कि धीरे धीरे अभ्यास को बढाना चाहिये । ऐसा करने से यदि दर्द सिर में या आंखों में होने लगे । तो कुछ देर के लिये अभ्यास बन्द करके आराम कर ले । घूम टहल ले । कुछ देर के विश्राम के बाद अभ्यास करे । विश्राम कर लेने के बाद पुन: अभ्यास आरम्भ कर देना चाहिये । विश्राम कर लेने पर दर्द शान्त हो जायेगा । यानी दर्द ठीक हो जायेगा । जब अभ्यासी अपनी सुरत को ऊपर की ओर चढाता है । या खींचता है । तो उसमें आंख की पुतली ऊपर की ओर खिंचती है । और उसमें जोर लगता है । इसी से आंख में तथा सिर में दर्द होता है । जो अनावश्यक है । जब तक आदत न पड जाय । तब तक जबरदस्ती नहीं करना चाहिये । जितना जितना सहन होता जावे । उतना ही जोर लगाना चाहिये । उससे अधिक जोर लगाने से रक्त का दबाव ऊपर की तरफ़ आवश्यकता से अधिक होने लगता है । और नाडियों में खून अधिक भर जाने के कारण दर्द होने लगता है । यह एक अनावश्यक कार्य है । भजन । सुमिरन । ध्यान । सुख आसन पर बैठकर आराम पूर्वक सहजता सरलता के साथ आराम और आसानी के साथ करना चाहिये । सहज योग में सहजता के साथ साधना करना चाहिये । जबरदस्ती करनें में हठ योग कहलाने लगता है ।
साधक का भजन । सुमिरन । ध्यान के करने में जितना मन लगेगा । उतना ही आनन्द आएगा । आनन्द मिलने

पर ही उत्साह बढता जाता है । और उसके साथ साथ अभ्यास का समय तथा ध्यान में आनन्द बढता जाता है । कभी कभी तो ऐसा हो जाता है कि भजन, ध्यान में बैठकर समय का पता नहीं लगता कि कितना समय बीत गया । ऐसी दशा में यह आवश्यक है कि भजन, अभ्यास में बैठते समय यह इरादा करके बैठे कि एक घंटा, दो घण्टा या जितनी देर बैठने की मन में इच्छा हो । इरादा करके बैठे कि इतनी देर भजन, सुमिरन व ध्यान के साधना करूंगा । ऐसा करने से सुरत निश्चित समय पर नीचे उतर आवेगी । और आप जितना सोच कर बैठे हैं कि इतना अभ्यास करूंगा । वह भी पूरा हो जायेगा ।
जिसे सन्त सदगुरू के श्री चरणों का भरोसा है । और अपने श्री सदगुरू देव महाराज के श्री चरण कमलों में जिसका चित्त जुडा हुआ है । श्री सदगुरू सदा उनके साथ हैं । और सदा उसके रक्षक तथा उसके सहाई हैं । श्री सदगुरू देव जी महाराज का भजन, ध्यान ही जीव का सच्चा संगी साथी है । यही इस लोक में भी तथा परलोक में भी रक्षक है । यही भजन, ध्यान ही सर्व सुखों की खान है । यदि श्री सदगुरू का भजन, ध्यान नियमित नियमानुसार चलता रहा हो । उस जीव का सदा कल्याण है ।


सतगुरू सम हितू कोई नहीं । देखा सब संसार । प्रणत पाल गुरूदेव जी । पल पल करैं संभार ।
सन्त महापुरूषों का कहना है कि संसारी भोग विलास ह्रदय के अन्दर ठौर न पाने पावें । अगर उन्होंने दिल में घर कर लिया । तो अन्दर ह्रदय में श्री सदगुरू भगवान का दर्शन होने में बाधा होगी ।
दिल है तेरा एक । इसमें ऐ हाजी । उलफ़तें दो दो । समा सकतीं नहीं ।
माया और भक्ति दोनों का एक साथ रहना सम्भव नहीं है । यह दिल मालिक का मन्दिर है । श्री सदगुरू देव जी महाराज की उपासना का स्थान है । मायावी विषय विकारों के लिये इसे मुसाफ़िर खाना नहीं बनाना चाहिये । इसे विषय वासना का घर बनाकर नहीं रखना चाहिये । यह एक देवालय है । यह पूजा का सर्वश्रेष्ठ यानी पवित्र मन्दिर है । इसे साफ़ सुथरा एवं शुद्ध तथा पवित्र बनाये रखना चाहिये । अत: सांसारिक सुख ऐश्वर्यों में मन को नहीं फ़ंसाना चाहिये । सन्तों महापुरूषों का कहना है कि श्री सदगुरू देव जी महाराज के उपदेशानुसार भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान करते हुए सदा धार्मिक रीति से चलते हुए जीवन व्यतीत करना ही साधकों, गुरूमुखों का परम धर्म है । भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । ध्यान । दर्शन । नियमित नियमानुसार सदा सदा करते रहना चाहिये । यही साधक के जीवन की पूंजी है । जिस पर आचरण कर लोक तथा परलोक में सुख की प्राप्ति होती है ।

प्रत्येक साधक व अभ्यासी की मनोदशा अलग अलग होती है । पर यह तीन बातों पर निर्भर है - 1 उसके पिछले तथा वर्तमान जन्मों के कर्मों का प्रभाव । 2 परमार्थ की प्राप्ति की कितनी तडप है । तथा कितनी विरह वेदना उसके मन में पैदा हो चुकी है । 3 सन्त सदगुरू के श्री चरण कमलों में साधक को भजन । सुमिरन । ध्यान में रस मिलता है । तथा उसका मन भजन । सुमिरन । ध्यान में लगता है । अर्थात प्रत्येक अभ्यासी को चाहिये कि बराबर अपनी हालत पर दृष्टि रखता रहे । यानी इस बात की परख करता रहे कि उसकी क्या स्थिति है । जब किसी बात में कमी दिखे । तो सच्चे मन से सुधार करने का प्रयत्न करे । श्री सदगुरू देव जी महाराज की दया के बिना विवेक की उत्तपत्ति नहीं होती । और सदगुरू की कृपा के बिना सहज में ही सत संगति की प्राप्ति नहीं होती । सदगुरू की दया व उनकी संगति आनन्द व कल्याण का मूल है । श्री सदगुरू की संगति की प्राप्ति ही सभी सुखों का फ़ल है । और सभी साधक फ़ूल है । श्री सदगुरू की संगति पाकर दुष्ट भी उसी तरह सुधर जाते हैं । जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावन बन जाता है । अर्थात सोने में परिवर्तित हो जाता है । फ़िर भी प्रभु से क्षमा प्रर्थना करता रहे । दया और कृपा की याचना करता रहे । तथा भविष्य के लिये पूर्णरूप से सतर्क रहे कि जो त्रुटि अब तक हो गई है । दुबारा न हो जाय । इसको पूरी तरह से याद रखो । फ़िर भी सच्चे मन से प्रयत्न करने से प्रभु की कृपा का सहारा मिल जाता है । और भजन । सुमिरन । ध्यान की साधना में मन का ठहराव अधिक होने लगता है । तथा निर्मल रस व आनन्द मिलने लगता है । इसी प्रकार धीरे धीरे अन्दर की सफ़ाई होती रहती है । और साधक को स्वयं अपने आध्यात्मिक उन्नति का आभास होने लगता है ।


बहुधा ऐसा होता है कि किसी किसी अभ्यासी को भजन, ध्यान करते समय अन्दर में गुरू के स्वरूप के दर्शन कभी होते हैं । कभी नहीं होते हैं । तो न होने की दशा में निराश नहीं होना चाहिये । और यह सोच कर हताश नहीं होना चाहिये कि मेरे अभ्यास में बहुत बडी कमी है । साधक को चाहिये कि जिस आन्तरिक केन्द्र पर श्री सदगुरू ने उसे अभ्यास करने को बताया है । उसी स्थान पर सुरत या मन को जमाकर सहसदल कमल पर ठहरने लगेंगे । और भजन, सुमिरन, ध्यान में मन लगने लगेगा । यदि मन नहीं ठहरता । तो इसका एकमात्र कारण यही है कि भजन, सुमिरन, ध्यान नियमित नियमानुसार नहीं हो रहा है । और अन्दर में या बाहर में सदगुरू के प्रति प्रेम में कमी पड रही है । यदि श्री सदगुरू के प्रति प्यार होगा । तो अवश्य ही उस प्यार की डोर के द्वारा या सहारे मन व सुरत की धार ऊपर की ओर चढेगी । और जब ऊपर चढेगी । तो भजन, सुमिरन, ध्यान का आनन्द अवश्य प्राप्त होगा । इसमें कोई संशय नहीं है । इसलिये साधक के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि प्रेम तथा श्रद्धा के साथ अभ्यास करता रहे । यदि प्रेम में कोई कसर है । और चाव भी कम है । तो ख्याली तौर पर साधक को चाहिये कि श्री सदगुरू देव जी महाराज के श्री चरणों में माथा रखकर दीन भाव से, आर्तभाव से प्रेम की भीख मांगे । इसी प्रकार बारबार दीन भाव से प्रार्थना करने से अवश्य ही प्रेम व दया की बख्शीश होती है । प्रेम की प्राप्ति होने पर उस प्रेम रूपी पौधे को 


श्रद्धा के जल से निरन्तर सींचता रहे । बार बार या जब जब याद आ जाय । तब तब ख्याली तौर पर श्री सदगुरू भगवान के श्री चरणों में सिर झुकाकर बारम्बार दण्डवत प्रणाम करते रहना चाहिये । इस प्रकार करते करते भजन, सुमिरन, ध्यान के करने में रस मिलने लग जायेगा । और सदगुरू का दर्शन अन्दर में होता रहेगा । इस प्रकार के दर्शन को सन्त सदगुरू की असली दया और कृपा का सूचक समझना चाहिये । जब कभी इस प्रकार के दर्शन मिल जाते हैं । तो साधक की प्रीति और प्रतीति बढ जाती है ।
साधक को चाहिये कि सत्यराज्य के प्रत्येक चक्र पर या मण्डल पर अपने श्री सदगुरू द्वारा बताया हुआ भजन, सुमिरन, ध्यान का अभ्यास बढाता जाय । किसी किसी सन्त ने तो ऐसा कहा है कि एक चक्र पर या मण्डल पर कम से कम दो वर्ष अभ्यास करें । किन्तु यह कोई आवश्यक नहीं है । यह तो साधना पर व प्रेम व निष्ठा पर निर्भर करता है । उसके पुरूषार्थ पर निर्भर करता है । प्रत्येक साधक की अलग अलग स्थिति होती है । उसी के अनुसार उसकी सुरत की चाल होती है । और फ़िर इस सिलसिले में सदगुरू कृपा पर बहुत कुछ निर्भर करता है । प्रत्येक साधक की अलग अलग स्थिति होती है । उसी के अनुसार उसकी सुरत की चाल होती है । और फ़िर इस सिलसिले में सदगुरू कृपा पर बहुत कुछ निर्भर करता है । जितना जिसका सदगुरू के प्रति समर्पण होगा । 


जितना कोई अपने आपको श्री सदगुरू में लय कर चुका होगा । जितना जिसका गुरू के प्रति और गुरू समाज के प्रति आचरण उज्जवल हो चुका होगा । उसी के अनुसार उसकी प्रगति होगी । दशम 10 द्वार या सतलोक तक । या अलख । अगम लोक तथा अनामी पद तक अपनी सुरत को पहुंचाकर वहां ठहर जायं । इसमें एक जन्म भी लग सकता है । और कई जन्म भी । पर बिना श्री सदगुरू देव जी महाराज की असीम कृपा व दया के यह किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है ।
श्री सदगुरू देव जी महाराज की दया रूपी शरण संगति में साधक को धर्म । अर्थ । काम । मोक्ष चारों फ़ल प्राप्त होते हैं । तथा उनकी संगति से साधक के मन के सारे विकार दूर हो जाते हैं । जिस प्रकार पारस के स्पर्श से लोहा सुन्दर कंचन बन जाता है । उसी प्रकार श्री सदगुरू देव जी महाराज की पावन संगति से साधक का मन भी उज्जवल एवं निर्मल बन जाता है । यह पूर्ण सत्य है । श्री सदगुरू की ही शरण संगति में तो साधक के मलिन मन की पूरी तरह साफ़ सफ़ाई होती है ।
गुरू नाम सुमिरण किये । तन मन निर्मल होय । तिस सौभागी जीव का । पला न पकडे कोय ।
रूहानी शब्द - आपको हर पल याद करूं । हिरदय में ए सदगुरू । सदा आप ही का ध्यान धरूं ।
भूलीं न इक पल भी । सुमिरन भजन सदा करूं । हो आपका ही दर्शन ।
यही कामना है मेरी । मेरे रोम रोम सदगुरू । छवि प्यारी बसी हो आपकी ।
जग की न चाह रहे । बस आप ही आप सदगुरू । हिरदय में बसें मेरे ।

युग युग तू ही तू । बनूं दास आपका । आपकी सेवा पूजा ही । सदगुरू हो धर्म मेरा ।
सन्त महापुरूषों का कहना है कि साधक के लिये सदगुरू की भक्ति करना ही मुख्य आधार है । श्री सदगुरू देव जी महाराज के कमलवत श्री चरणों को पकड लें । और अपने आपको उनको पूरी तरह से समर्पण कर दें । यदि साधक अपने को पूरी तरह से श्री सदगुरू देव में विलीन कर दे । अपना आपा भाव खत्म हो जाय । तो श्री सदगुरू देव जी महाराज की भक्ति आसानी से प्राप्त हो जाती है ।
सदगुरू शिष की आतमा । शिष सतगुरू की देह । लखा जो चाहे अलख को । इनहीं में लख लेय ।
यह बहुत कठिन कार्य है । कोई विरला साधक, जिज्ञासु ही यहां तक पहुंच सकता है । पर जिसके पूर्व जन्म के संस्कार अच्छे हों । केवल थोडी कसर रह गई हो । उस साधक को उत्साह के साथ सोचना तथा करना भी चाहिये कि मेरे पूर्व जन्म के संस्कार अच्छे रहे हैं । और अच्छे हैं भी । तथा आगे भी मालिक की दया से अच्छे रहेंगे । शेष सभी अपनी अपनी योग्यता तथा संस्कार के अनुसार पाते हैं ।
रास्ता चलता जाय । निराश नहीं होना चाहिये । यदि रास्ते पर बराबर चलता रहे । तो एक न एक दिन मंजिल पर पहुंच ही जायेगा । किन्तु मनुष्य जन्म अनमोल है । यह जन्म बार बार नहीं मिलता । इसे अमूल्य मानकर इसी जन्म में अपने लक्ष्य तक पहुंचाने का प्रयास करना चाहिये ।
इसलिये हर समय श्री सदगुरू देव जी महाराज के भजन, सुमिरन, ध्यान और सेवा पूजा को तरजीह देने चाहिये । ताकि भक्ति की ताकत पैदा हो । क्योंकि इसी एक बात के अन्दर बन्धन और मोक्ष का भेद छिपा हुआ है । जिस 


सेवक के दिल में मालिक के प्रति श्रद्धा और प्रेम दोनों बने रहते हैं । उसका एक न एक दिन अवश्य उद्धार होगा । क्योंकि मालिक का प्रेम तथ नाम का भजन और भक्ति संसार के मोह पाश को तोडेगा । मालिक की भक्ति की शक्ति जिसमें उत्पन्न हो गयी । उसी भक्त पर मालिक की खास दया समझनी चाहिये । क्योंकि श्री सदगुरू देव जी महाराज के श्री चरणों की भक्ति ऐसी है । जो मालिक और भक्त के बीच जितने पर्दे हैं । उन सबको साफ़ करके जीव को मोक्ष की प्राप्ति करा देती है ।
दासनदास ने भी गहा । सदगुरू चरण तुम्हार । अवगुण हार चरणन पडा । कर दो अब उद्धार ।
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- ये शिष्य जिज्ञासा से सम्बन्धित प्रश्नोत्तरी श्री राजू मल्होत्रा द्वारा भेजी गयी है । आपका बहुत बहुत आभार ।

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Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।