
संभव है तथा शरीर में स्वांस के आने तथा जाने पर अक्षर प्रकट हो गयें हैं जिससे शरीर की सारी क्रियायें हो रही हैं . इस स्पंदन से ही वायु गति को धारण किये हुये है . स्पंदन में ही सुरति को प्रवेश किया जाय तो जिससे यह स्पंदन हो रहा है उसका कारण पारब्रह्म ही है .
उसका साक्षात्कार हो जाता है .यही स्पंदन पारब्रह्म के साक्षात्कार करने का माध्यम रूप है . जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में वह कंपन करता है . यानी स्पंदनमय है . इसके भय से ही सूर्य तप रहा है . प्राण गति कर रहा है . जिससे देवता दैत्य पशु पक्षी तथा कीट सभी लोकों में कंपन हो रहा है .
जो जीव भाव भाव को छोङकर शुद्ध चेतन अवस्था को पा जाता है जो जाग्रत सुषुप्त स्वप्न इन तीनों अवस्थाओं के परे तुरीय अवस्था में स्थित रहता है तथा भय निद्रा मैथुन आहार आदि में लिप्त नहीं रहता है . एवं जो अपने स्वरूप को पहचान लेता है . वह सीधा ब्रह्मरन्ध्र मार्ग से होता हुआ दसवें द्वार से निकलकर ब्रह्मालोक में जाता है .तथा जाने के पहले संकल्प के आधार पर स्थित हुआ पुनः उसी शरीर में आ जाता है ऐसा पुरुष जीवन मुक्त होकर जनम मरण से मुक्त शरीर में ही हो जाता है . विधाओं में परा विधा ही स्वरूप है जो मेरे में संगति करती है यह विधा सब विधाओ की माँ है क्योंकि यहाँ से ही तीनों प्रकार की वाणियाँ मध्यमा पश्यन्ति बैखरी प्रकट हुयी है . परा वाणी का एक सिरा शब्दों
को प्रकट करने वाला एवं एक सिरा बिन्दु पर रखा हुआ है . जब साधक इस परा विधा के अभ्यास के द्वारा शब्द में लीन हो जाता है तब वह परमात्मा के शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार कर लेता है . जब परमात्मा एक है तो उसका नाम भी एक होना चाहिये वास्तव में उस परमात्मा का नाम व स्वरूप एक ही है . जीव एक शरीर छोङने से पहले दूसरे शरीर की रूपरेखा में स्पर्श करता है . जब जीव देहाभिमान से रहित हो जाता है तब वह अपने अन्तर में पूरी तरह प्रवेश कर जाता है . ओंकार से शरीर की रचना हुयी है . ऊँ - यह ऊँ पाँच मात्राओं वाला है जिसमें तीन वर्णात्मक तथा चौथी सत्य एवं पाँचवीं मात्रा ध्वनात्मक रूप में है . जैसे अ उ म (ँ ) (ं ) आदि पाँच मात्राओं से मिलकर ऊँ की रचना हुयी है . अ से ईश्वर भाव उ से जीव भाव म से प्रकृति भाव अर्धचन्द्र से सत्य भाव नित्यता को दर्शाने वाला बिन्दु रूप व्यापक सर्वत्र परब्रह्म का विभुवत स्वरूप हैसाधक ऊँ को इस रूप में समझकर लम्बे स्वर से उच्चारण कर परमात्मा में निष्ठा रखता है तो मुझ परमात्मा को सर्वग्य को जान लेता है .
जव जीव अपनेपन के भाव को छोङकर शरीर से निकलने एवं प्रविष्ट होने की विधा में पारंगत हो जाता है तब उसे अलग होने में पल का समय नहीं लगता वह जनम मरण और मृत्यु को लाँघकर मुक्त रूप का साक्षात्कार कर लेता है उसकी इन्द्रियां अपने आप उससे संगति करती है . मुक्त पुरुष सम्पूर्ण ब्रह्माणड में अपनी अखण्ड शक्ति के साथ
विचरने लगता है . जनम मरण से रहित मुक्त आत्माएं संसार में निवास करती हैं
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