शुक्रवार, फ़रवरी 10, 2012

आकार कल्पित करके देव की मिथ्या कल्पना

वसिष्ठ जी कहते हैं - जिसका अंतःकरण मुक्ति के लिए लालायित हो । सत कर्म करके शुद्ध हो गया हो । तथा ध्यान से एकाग्र हो गया हो । उसे यह उपदेश सुनने मात्र से आत्म साक्षात्कार हो जायेगा । जिन लोगों को इस ग्रंथ में इस ज्ञान में प्रीति नहीं है । वे अपरिपक्व हैं । उनको चाहिए कि वृत । उपवास । तीर्थाटन । दान । यज्ञ । होम । हवन आदि करें । इन्हें करके जब उनका अंतःकरण परिपक्व होगा । तब उनको इसमें रुचि होगी ।
भगवान शंकर वशिष्ठ से बोले - हे ब्राह्मण ! जो उत्तम देवार्चन हैं । और जिसके किये से जीव संसार सागर से तर जाता है । सो सुनो । हे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ! पुण्डरीकाक्ष विष्णु भी देव नहीं । और त्रिलोचन शिव भी देव नहीं । कमल से उपजे बृह्मा भी देव नहीं । सहस्र नेत्र इन्द्र भी देव नहीं । न देव पवन है । न सूर्य । न अग्नि । न चन्द्रमा । न ब्राह्मण । न क्षत्रिय है । न तुम हो । न मैं हूँ । अकृतिम । अनादि । अनन्त और संवित रूप ही देव कहाता है । आकार आदि परिच्छिन्न रूप हैं । वे वास्तव में कुछ नहीं । एक अकृतिम । अनादि चैतन्य स्वरूप देव है । वही देव शब्द का वाचक है । और उसी का पूजन वास्तव में पूजन है । जिससे यह सब हुआ है । और सत्ता - शांत आत्म रूप है । उस देव को सर्वत्र व्याप्त देखना ही उसका पूजन है । जो उस संवित तत्व को नहीं जानते । उनके लिए साकार की अर्चना का विधान है । जैसे जो पुरुष योजन पर्यन्त नहीं चल सकता । उसको 1 कोस 2 कोस चलना भी भला है । जो परिच्छिन्न ( खण्डित ) की उपासना करता है । उसको फल भी परिच्छिन्न ( खण्डित ) प्राप्त होता है । और जो अकृतिम आनन्द स्वरूप

अनन्त देव की उपासना करता है । उसको वही परमात्मा रूपी फल प्राप्त होता है । हे साधो ! अकृतिम फल त्याग कर जो कृतिम को चाहते हैं । वे ऐसे हैं । जैसे कोई मन्दार वृक्ष के वन को त्याग कर । कंटक के वन को प्राप्त हो ।
वह देव कैसा है ? उसकी पूजा क्या है ? और कैसे होती है ? सुनो ।
बोध । साम्य । और शम । ये 3 फूल हैं । बोध - सम्यक ज्ञान का नाम है । अर्थात आत्म तत्व को ज्यों का त्यों जानना । साम्य - सबमें पूर्ण देखने को कहते हैं । और शम का अर्थ है - चित्त को निवृत्त करना । और आत्म तत्व से भिन्न कुछ न देखना । इन्हीं तीनों फूलों से चिन्मात्र शुद्ध देव शिव की पूजा होती है । आकार की अर्चना से अर्चना नहीं होती ।
चिन्मात्र । आत्म संवित का त्याग कर  । अन्य जड़ की । जो अर्चना करते हैं । वे चिरकाल पर्यन्त क्लेश के भागी होते हैं । हे मुनि ! जो ज्ञात ज्ञेय पुरुष हैं । वे आत्मा भगवान एक देव है । वही शिव और परम कल्याण रूप है । सर्वदा ज्ञान अर्चना से उसकी पूजा करो । और कोई पूजा नहीं है । पूज्य । पूजक । और पूजा । इस त्रिपुटी से आत्म देव की पूजा नहीं होती ।
यह सम्पूर्ण विश्व केवल परमात्म रूप है । परमात्म आकाश बृह्म ही 1 देव कहाता है । उसी का पूजन सार है । और उसी से सब फल प्राप्त होते हैं । वह देव सर्वज्ञ हैं । और सब उसमें स्थित हैं । वह अकृत्रिम देव - अज । परमानन्द और अखण्ड रूप है । उसको अवश्य पाना चाहिये । जिससे परम सुख प्राप्त होता है ।
हे मुनीश्वर ! तुम जागे हुए हो । इस कारण मैंने तुमसे इस प्रकार की देव अर्चना कही है । पर जो असम्यक दर्शी बालक हैं । जिनको निश्चयात्मक बुद्धि नहीं प्राप्त हुई है । उनके लिए धूप । दीप । पुष्प । चंदन आदि से अर्चना 


कही है । और आकार कल्पित करके देव की मिथ्या कल्पना की है । अपने संकल्प से जो देव बनाते हैं । और उसको पुष्प । धूप । दीप आदि से पूजते हैं । सो भावना मात्र है । उससे उनको संकल्प रचित फल की प्राप्ति होती है । यह बालक बुद्धि की अर्चना है ।
हे मुनीश्वर ! हमारे मत में तो देव और कोई नहीं । एक परमात्म देव ही तीनों भुवनों में है । वही देव शिव और सर्व पद से अतीत है । वह सब संकल्पों से अतीत है । जो चैतन्य तत्व अरुन्धती का है । और जो चैतन्य तत्व तुम निष्पाप मुनि का । और पार्वती का है । वही चैतन्य तत्व मेरा है । वही चैतन्य तत्व त्रिलोकी मात्र का है । वही देव है । और कोई देव नहीं । हाथ पाँव से युक्त जिस देव की कल्पना करते हैं । वह चिन्मात्र सार नहीं है । चिन्मात्र ही सब जगत का सार भूत है । और वही अर्चना करने योग्य है । यह देव कहीं दूर नहीं । और किसी प्रकार । किसी को प्राप्त होना भी कठिन नहीं । जो सबकी देह में स्थित । और सबका आत्मा है । वह दूर कैसे हो । और कठिनता से कैसे प्राप्त हो ? सब क्रिया वही करता है । भोजन । भरण । और पोषण । वही करता है । वही स्वांस लेता है । सबका ज्ञाता भी वही है । मन सहित षट इन्द्रियों की चेष्टा निमित्त तत्व वेत्ताओं ने देव कल्पित की है । एक देव । चिन्मात्र । सूक्ष्म । सर्व व्यापी । निरंजन । आत्मा । बृह्म इत्यादि नाम ज्ञान वानों ने उपदेश रूप व्यवहार के निमित्त रखे हैं । वह आत्म देव नित्य । शुद्ध और अद्वैत रूप है । और सब जगत में अनुस्यूत है । वही चैतन्य तत्व चतुर्भुज होकर दैत्यों का नाश करता है । वही चैतन्य तत्व त्रिनेत्र । मस्तक पर चन्द्र धारण किये । वृषभ पर आरूढ़ । पार्वती रूप कमलिनी के मुख का भँवरा बनकर । रूद्र होकर स्थित होता है । वही चेतना विष्णु रूप सत्ता है । जिसके नाभि कमल से बृह्मा उपजे हैं । वह चैतन्य मस्तक पर चूड़ामणि धारने वाला त्रिलोक पति रूद्र है । देवता रूप होकर वही स्थित हुआ है । और दैत्य रूप होकर भी वही स्थित है । हे मुनीश्वर ! वही चेतन शिव रूप होकर उपदेश दे रहा है । और वही चेतन वशिष्ठ होकर सुन रहा है । उस परम चैतन्य देव को जानना ही सच्ची अर्चना है ।

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भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।