सोमवार, जनवरी 02, 2012

नररूपी श्रीगुरू



पांचरात्र में रात्र शब्द का अर्थ है - ज्ञान। और ज्ञान पाँच प्रकार का है। ब्रह्मा और नारद के बीच चल रहे संवाद में ब्रह्मा ने नारद से कहा कि - जिज्ञास्य तत्व श्रीसदगुरू से ही मिल सकता है।

गुरूरेव परंब्रह्म कर्णधार स्वरूपक:

श्री सदगुरूदेव ही परब्रह्म हैं। वही शिष्य की नौका पार लगाने वाले कर्णधार हैं। इसमें भक्ति का सतपात्र वही होता है जो श्री सदगुरू का भक्त हो। नारद पांचरात्र में कहा है कि बुद्धिमान भक्त को निष्कपट और श्रद्धावान एवं शुद्ध मन से श्री सदगुरू की अध्यात्मिक उपासना व साधना करनी चाहिये। शिष्य को चाहिये कि अपने गुरू की पूरी निष्ठा व श्रद्धा के साथ सेवा, पूजा तथा उनकी आज्ञा का पालन करते हुए कुछ काल तक उनकी शरण में रहकर निस्वार्थ सेवा करते करते गुरू को प्रसन्न कर उनकी दया का अधिकारी बन जाय। यानी उनकी दीक्षा प्राप्त कर भजन भक्ति में रत रहकर ही तो गुरू की कृपादृष्टि प्राप्त होती है। इसीलिये जैसे हरि में वैसे ही श्री सदगुरू में भी भक्ति भावना रखने में चारों फलों अर्थात अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति के लिए शिष्य अधिकृत होता है।

हे भाई, सभी मनुष्यों के मस्तिष्क  में श्री सदगुरू का सूक्ष्मरूप से निवास होता है। वही गुरूतत्व प्रतिबिम्ब रूप में नररूपी श्रीगुरू के रूप में प्रतिष्ठित है। शिष्यों की कामना से स्वयं वह गुरूतत्त्व श्रीगुरू रूप में उतर जाता है।

सदगुरू साक्षात ब्रह्म होते हैं। वे आनन्द, ज्ञान तथा करूणा का सागर होते हैं। श्री सदगुरू अपने शिष्यों के समस्त कष्टों, क्लेशों, विषादों तथा बाधाओं को दूर करने वाले हैं। वे अपने भक्तों को सम्यक दिव्य पथ दर्शाते हुए आपके अज्ञान आचरण को विदीर्ण करते हैं। आपको अमर तथा दिव्य बनाते हैं, और आपकी निम्न आसुरी प्रवृत्ति को रूपान्तरित करते हैं। वे आपको ज्ञानरज्जु देते हैं और इस संसार सागर में डूबते समय आपका हाथ पकङ कर बाहर यानी अपनी ओर खींच लेते हैं। वे गुरू रूप में भगवन्त हैं आपके कर्णधार हैं। आपको पूरी श्रद्धा व निष्ठा के साथ उनके बताये हुए नाम मंत्र का भजन, सुमिरन, सेवा, पूजा, दर्शन, ध्यान नियमित नियमानुसार करते रहना चाहिए और श्रद्धा के साथ साथ दण्डवत प्रणाम करते रहना चाहिये।

स्वरूपे स्थिरता लभ्या सदगुरो: भजनाद् यत:
अत: साष्टान्ग नत्याहं स्तुवत्रित्यं गुरूं भजे।

श्री सदगुरू के स्वरूप में साधक की भावना भजन, पूजन, दर्शन करने से ही स्थिर हो सकती है। यह बात मेरी समझ में आ गई तो अब मैं नित्य श्री सदगुरूदेव महाराज को साष्टांग प्रणाम करता रहूंगा और उनकी स्तुति सदा सदा करता रहूंगा, और सदा सदा सेवा करता रहूंगा।

गुरू भगवान है उनकी वाणी भगवद वाणी हैं। उन्हें उपदेश देने की आवश्यकता नहीं है। उनका सानिध्य तथा उनकी संगति भी अत्रयनकारी प्रेरणादायी तथा भावोत्तेजक है। उनका संग ही आत्मप्रबोधक है। उनके सानिध्य में रहने से आध्यात्मिक शिक्षा का विकास होना ही है। सभी शिष्यों को श्री सदगुरू की अमृतवाणी को सुनने से, अध्ययन करने से, सन्तवाणी का अध्ययन करने से, आश्रम के सतसाहित्य का अध्ययन करने से गुरू की महत्ता अन्तर-जगत में प्रगट हो जायेगी।

गुरू मोक्ष का द्वार है। वह इन्द्रियातीत सत-चित का द्वार है। किन्तु इस द्वार में साधक को ही प्रवेश करना है। गुरू सहायक है। वही इस द्वार में प्रवेश करने का उपाय बतायेगा। किन्तु व्यावहारिक साधना का वास्तविक कार्य भार तो साधक के सिर पर ही है।

जीव जो भी ज्ञान सीख सकता है, वह केवल मनुष्य शरीर से ही सीख सकता है। अत: श्री सदगुरू भगवान भी केवल मानव शरीर के द्वारा ही शिक्षा दे सकते हैं। आप अपने श्री सदगुरू में स्वकल्पित पूर्णता के मानवीय आदर्श को साकार होता हुआ पाते हैं। श्री सदगुरू वह आदर्श हैं जिसके अनुरूप आप अपना निर्माण करना चाहते हैं। आपका मन सहज ही यह स्वीकार कर लेगा कि ऐसी महान आत्मा आदर करने तथा श्रद्धा करने योग्य है।

भगवान भक्त लकि लीजै, ताको यह गुरू महिमा दीजै।
परम रहस्य गूढ येहि जानी, कहे न सबहिं प्रसिद्ध बखानी।

भक्ति के साधन दिये, सदगुरू करूणागर।
श्रद्धा से सेवन करे, निश्चय हो निस्तार।

सन्त महापुरूषों की पावन संगति से शुभ विचार मिलते हैं। शुभ विचारों से शुभ संस्कार बनते हैं। शुभ संस्कारों से मन शुद्ध होकर आत्मानन्द को प्राप्त करने में समर्थ होता है। अत: सन्त महापुरूषों की संगति साधक के शुभ संस्कारों को बनाने के लिये अति आवश्यक है।

सच्चे शिष्य के लक्षण - साधक एवं शिष्य को गुरू के अनुकूल सदा बने रहना चाहिये। गुरू जो कुछ कहें उनके वचनानुसार चले। उनकी किसी भी बात में अपनी बुद्धि या चतुराई नहीं दिखाना चाहिये। उनकी मौज में सदा प्रसन्न रहें। जब मन और मुर्शिद यानी गुरू दोनों खडे हों तो उस समय मन को छोडकर गुरू की आज्ञा को मान लेना चाहिये।

जब ऐसी अवस्था आ जाय तो वास्तविक अर्थों में शिष्य गुरू के अनुकूल और उनके सम्मुख होता है। अपने पूर्ण सदगुरू की संगति तथा उनकी चरण शरण ग्रहण कर अपना सर्वस्व उनके श्री चरण कमलों में समर्पित कर देने से ही भक्त में दीनता तथा समर्पण की भावना आती है।

श्री सदगुरू की दया का, ऐसा है परताप।
श्रद्धा से मस्तक धरे, होयं पूरण सब काज।

हमारे परमपूज्य श्री सदगुरू महाराज के अमृत वचन है कि दीनता और नम्रता से ही भक्ति व मुक्ति मिलती है। इसलिये शिष्य बनने के लिये नम्रता का गुण होना अति आवश्यक है। इसीलिये तो गुरूभक्त में गुरूभक्ति करने गुरूपूजा, सेवा, आज्ञा का पालन व गुरू के सामने दीनता का होना अति आवश्यक है। यही गुरू की भक्ति की श्रेष्ठता है।

क्योंकि अन्य साधना जैसे जप, तप, सयंम, व्रत, तीर्थ सेवन आदि मनमति अनुसार करने से स्वाभाविक ही अहंकार आ जाता है, और अहंकार के आने से किये गये जप, तप आदि का फ़ल नष्ट हो जाता है, या नष्ट होने लग जाता है। इसीलिये गुरू भक्ति में साधक को चाहिये कि गुरू के आगे दीनभाव के साथ मन को वश में रखे और मनमति का त्याग करे। तभी पूर्ण शिष्य अथवा मुरीद कहला सकता है।

यह तभी हो सकता है जब श्रीसदगुरू के प्रति श्रद्धा, भाव, निष्ठा के साथ उनकी संगति में रहकर उनके दरबार की सेवा निष्काम भाव से करता रहे। किसी भी कार्य मे अपने मन की मनमति को मिटाकर गुरूमति के अनुसार कार्य करने से गुरू प्रसन्न होकर भक्ति मुक्ति का अधिकारी अपने आप बना देते हैं। ऐसा शिष्य ही सही अर्थों में सच्चा शिष्य है।

निष्काम भव से जो करे, सेवा गुरू दरबार।
तन मन पावन होत हैं, हिये होत उजियार।

कोई टिप्पणी नहीं:

Welcome

मेरी फ़ोटो
Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।