सोमवार, जनवरी 02, 2012

गुरू मोक्ष का द्वार हैं




सुरति की अन्तर्यात्रा की मंजिलें - जिज्ञासुओं की सुरति को साधना और अभ्यास में जिन आन्तरिक मंजिलों में से होकर गुजरना पङता है। उनका विशद वर्णन स्वामी जी महाराज सुचारू रूप से किया करते थे। भजन, सुमिरन, सेवा, पूजा, दर्शन, ध्यान की प्रक्रिया अर्थात अजपा जप और सहज समाधि यानी ध्यान के विषय में साधक के साधना मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का समाधान भी आप ऐसे सरल भाव व सरल तरीके से करते थे कि शिष्य बङी आसानी से समझ जाता था।

पिण्डदेश में चक्रवेधन कैसे किया जाय, और ब्रह्माण्ड में साधक की सुरति किस प्रकार ऊपर के मण्डलों में जाती है। इसके विषय में आप कहते थे कि स्थूल शरीर में अहंकार, मन, बुद्धि और चित्त ये अन्त:करण है। पांच-तत्वों से बनी यह देह है। प्रथम सुरति की धार पिण्डदेश से चलती है। फ़िर कई कठिनाईयों को पार करती हुई ब्रह्माण्ड देश में पहुंचती है।

ख्याल रखने की बात है कि मूलाधार से इन्द्रिय चक्र, इन्द्रिय चक्र से नाभि चक्र, नाभिचक्र से ह्रदय चक्र, ह्रदय चक्र से कण्ठ चक्र, कण्ठ चक्र से ललाट में भ्रूमध्य तक तो अविद्या माया का पसारा है। इससे आगे भृकुटी के थोङा ऊपर जो लोक है उसे सहसदल कमल कहते हैं। यहीं से ब्रह्माण्ड की मंजिल शुरू होती है। जिसे महापुरूषों की शरण ग्रहण कर उनकी कृपा से पार किया जा सकता है।

मूलाधार चक्र - मूलाधार चक्र के देवता गणेश हैं। मूलाधार चक्र में चार दलों वाला लाल रंग का कमल है। यह चक्र पृथ्वी तत्त्व का केन्द्र है। इस चक्र का बीज मन्त्र क्लीं है। सन्त महापुरूष गुरू की बताई हुई जिस नामभक्ति की उपासना करते हैं। वह मूलाधार चक्र में सोई हुई सुरति को भजन,  सुमिरन, दर्शन, ध्यान के माध्यम से जगाकर निजधाम में पहुंचाने का सुगम उपाय है। साधक अपने ऊर्ध्वमुखी यात्रा भ्रूमध्य में स्थित आज्ञाचक्र में अपनी सुरति को केन्द्रित करके सहसदल कमल से प्रारम्भ करते हैं। इससे नीचे के चक्रों से ऊपर की ओर उठती हुई सुरति माथे में स्थित निजधाम की ओर गमन करती है।

स्वाधिष्ठान चक्र - इस चक्र को स्वाद चक्र भी कहते हैं इसी चक्र से स्वाद की उत्पत्ति होती है। इस चक्र में पीले रंग का छह पंखुङियों वाला एक कमल है। इस चक्र का तत्त्व जल है। यहाँ के देवता ब्रह्मा और सावित्री हैं। स्वाधिष्ठान चक्र का बीज मन्त्र ॐ है। श्री सदगुरू महाराज के बतलाये हुए मूलमंत्र का जप कर करके साधक सुरतिरूपी नागिन के सिर पर बार बार भजन सुमिरन से संयुक्त श्वास का अघात करते हैं। तब सुरतिरूपी नागिन फ़ुफ़कार कर सुषम्ना नाङी के द्वारा ऊपर की ओर मुँह करके चल पङती है। इसी को कुण्डलिनी का जागरण कहते हैं। स्वाधिष्ठान चक्र से ही पैदाइश का काम होता है। इसलिये इस चक्र को इन्द्रिय चक्र भी कहते हैं।

मणिपूर चक्र - इसे मणिपूर इसलिये कहते हैं क्योंकि यह चक्र अग्नि का तेज तत्त्व का अधिष्ठान होने से मणि के समान कान्ति वाला होता है। इस केन्द्र में जो कमल है उसका रंग सफ़ेद होता है। यह आठ पंखुङियों वाला कमल है। इस चक्र का बीज मंत्र ह्रीं है। सफ़ेद रंग के सिंहासन पर विष्णु विराजमान हैं। जो इस चक्र तथा अग्नि तत्त्व के देवता या मालिक हैं। यह प्रसिद्ध है कि विष्णु सृष्टि के पालनकर्ता हैं, और मनुष्य शरीर में इसी स्थान से शरीर का पालन पोषण होता है।

अनाहत चक्र - इस चक्र में जो कमल है उसमें बारह पंखुङियां हैं। सुरति का यह मण्डल प्राणों का भण्डार है। इस चक्र के मालिक शिवजी हैं। यहाँ का तत्त्व वायु है। चेतना के इस मण्डल से त्वक अर्थात त्वचा नामक स्पर्श की ज्ञानेन्द्रिय और उपस्थ नामक कर्मेन्द्रिय की सम्हाल होती है। कुशल साधक इस केन्द्र में प्राणों के अनाहत ध्वनि रूपी स्पन्दन को अपनी आन्तरिकता में सुनते हैं।

विशुद्ध चक्र - विशुद्ध चक्र की स्थिति कण्ठ में होने के कारण इसे कण्ठ चक्र भी कहते हैं। इस चक्र के कमल की सोलह पंखुङियां है जिनका रंग धूमिल बैंगनी होता है। विशुद्ध चक्र में आकाश तत्त्व की स्थिति है। सन्तों की दृष्टि में विशुद्ध चक्र का शक्ति या भवानी नामक अधिष्ठातृ देवता अविद्या माया के अन्तर्गत है।

आज्ञाचक्र - आज्ञाचक्र मन और प्रकृति के सूक्ष्म तत्त्वों का केन्द्र है। इस चक्र को आज्ञाचक्र कहने का कारण यह है कि किस चक्र से ऊपर के निर्मल चैतन्य देश में रमण करने वाले परमात्मा स्वरूप श्री सदगुरूदेव की आज्ञा अन्तर्जगत में इसी चक्र में प्राप्त होती है। यहाँ पर दोनों भौंहों के मध्य में श्वेत रंग का दो दलों वाला एक कमल है। मूलाधार चक्र से लेकर आज्ञाचक्र तक के प्रत्येक कमल के दलों का योग पचास दलों का होता है। आज्ञाचक्र से नीचे का देश सन्तों के अनुसार पिण्डदेश (स्थूलता प्रधान देश) कहलाता है जो अविद्या माया का देश है।

पिण्डदेश अथवा स्थूलता प्रधान देश का विस्तार मूलाधार चक्र से आज्ञाचक्र तक रहता है। मूलाधार चक्र अविद्या के देश का प्रारम्भ है, और आज्ञाचक्र उस देश का अन्तिम छोर है। सन्तजन अपनी साधना आज्ञाचक्र में परानाम के सुमिरन और श्री सदगुरू मूर्ति के ध्यान के सहारे अपनी सुरति को केन्द्रित करके उसके ऊपर सहसदल कमल से प्रारम्भ करते हैं।

ब्रह्माण्ड के देशों का संक्षिप्त परिचय - सहसदल कमल, बंकनाल, त्रिकुटी, सुन्न यानी दशम द्वार, महासुन्न, भंवरगुफ़ा, सत्यलोक, अनामी पद (गुप्त) अलख लोक, अगम लोक, अकह लोक क्रम से ये मण्डल आज्ञाचक्र अर्थात छठें चक्र के ऊपर के सत्यराज्य के लोक हैं।

इस सत्यराज के दो विभाग हैं - एक ब्रह्माण्ड, और दूसरा निर्मल चैतन्य देश।

ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत - सहसदल कमल, बंकनाल, त्रिकुटी, और सुन्न या दशम द्वार मण्डल आते हैं। इन लोकों में योगमाया या विद्यामाया का प्रभुत्व रहता है।

सुन्न या दशम द्वार के बाद भंवरगुफ़ा से अकहलोक तक के लोक निर्मल चैतन्य के देश अथवा दयाल देश कहलाते हैं। इस स्थान को ही सुरति का निजधाम कहते हैं। सदगुरूदेव की उपासना, उनकी अनन्य भक्ति को छोङकर यहाँ पहुँचने का दूसरा कोई उपाय या साधन नहीं है।

सहसदल कमल - सहसदल कमल को सन्तजन त्रिलोकीनाथ या निरंजन का देश कहते हैं। यहाँ तक पहुँचे हुए साधक साधना की दृष्टि से ऊँचाई पर पहुँचे हुए साधक होते हैं। इनका सदगुरू में अगाध प्रेम होता है, और जिनको श्री सदगुरू के चरणों की प्यास बराबर बनी रहती है। उनको श्री सदगुरूदेव महाराज ऊपर के मण्डलों में पहुँचा देते हैं। श्री सदगुरू महाराज के जो शिष्य़ हैं वे श्री सदगुरू के नाम भजन और ध्यान के सहारे यहाँ पहुंचते हैं। श्री सदगुरू भगवान को अपने संग साथ रखने वाले शिष्य को वे कृपालु माया के प्रलोभनों में नहीं फ़ंसने देते हैं।

त्रिकुटी - श्री सदगुरू महाराज ने अपने शिष्यों को जो परानाम का उपदेश दिया है । वह बहुत बङी अमूल्य निधि है। उस अमूल्य निधि का सदा सदा भजन, सुमिरन, ध्यान हर स्थिति में करते रहना चाहिये। ऐसे शिष्य को सदगुरूदेव बंकनाल नामक सूक्ष्म मार्ग में प्रवेश दिलाकर इसके ऊपर के त्रिकुटी नामक देश में पहुंचा देते हैं।

इस त्रिकुटी नामक देश का वर्णन करते हुए सन्त दरिया साहब कहते हैं।

त्रिकुटी माहीं सुख घना, नाहीं दुख का लेस।
जन दरिया सुख दुख नहीं, वह कोई अनुभवै देश।

सन्त महापुरूषों ने अपने वचनों में कहा है कि त्रिकुटी नामक यह मण्डल ब्रह्म का देश है। जैसे सहसदल कमल में अमृत बरसता रहता है। ठीक उसी प्रकार त्रिकुटी में भी अमृत बरसता रहता है। यहाँ पहुँचे हुये साधक की त्रिकुटी का अमृतपान करने व उसमें स्नान करने से आशा व तृष्णा की प्यास शान्त हो जाती है। यह त्रिकुटी नामक महल सम्पूर्ण विद्याओं का भण्डार है।

मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार की गति त्रिकुटी पहुँचने तक ही रहती है। इसके आगे त्रिकुटी महल है । जहाँ श्री सदगुरू पूर्णब्रह्म का निवास होता है। जब साधक श्री सदगुरू की दया से ब्रह्मसरोवर में जाकर स्नान पान करने लग जाता है तो वह शरीर रहते हुए भी मन, वाणी और शरीर से परे हो जाता है। ये तीनों उसे प्रभावित नहीं कर पाते हैं। जब त्रिकुटी की सन्धि में स्थिरता पूर्वक श्री सदगुरू के नाम का भजन, सुमिरन, ध्यान होने लगता है तो प्राण इङा पिंगला नाङियों को छोङकर अवश्य ही सुषुम्ना नाङी में प्रवाहित होने लगता है, और तब अपने श्री सदगुरूदेव के प्रति श्रद्धा और निष्ठा की अटूटधारा बहने लगती है।

श्री सदगुरूदेव महाराज ने इस प्रकार त्रिकुटी नामक मण्डल का पूर्ण रहस्य बतलाया। जिसे केवल समय के सन्त महापुरूषों की चरण शरण में जाने से ही जाना जा सकता है। केवल वाणी विलास या पुस्तकीय ज्ञान से भक्ति की आध्यात्मिक मंजिलों (आन्तरिक मंजिलों) को पार करना असम्भव है।

इसी आन्तरिक मार्ग को पार करने के लिये परम सन्त कबीर साहब उपदेश देते हैं।

त्रिकुटी में गुरूदेव का, करै जो गुरूमुख ध्यान।
यम किंकर का भय मिटे, पावे पद निर्वान।

सुन्न या दशम द्वार - जब शिष्य की सुरति श्री सदगुरूदेव महाराज के भजन, सुमिरन, सेवा, पूजा, दर्शन, ध्यान के दृढ़ अभ्यास से इस त्रिकुटी नामक मण्डल में पहुंचती है। तब उसको सतशिष्य का दर्जा प्राप्त हो जाता है। फ़िर वह दशम द्वार में प्रवेश करना चाहता है। इस दशम द्वार में जिस गुरूभक्त की सुरति सदगुरू की कृपा से पहुंच जाती है। वही गुरूभक्त सच्चे अर्थों में सतशिष्य कहलाता है, साधु कहलाता है।

श्री सदगुरूदेव महाराज के नाम के भजन, सुमिरन और उनकी सेवा, पूजा, दर्शन, ध्यान की प्रगाढ़ता के भावदशा में साधक की सुरति त्रिकुटी मण्डल से चलकर जब दशम द्वार में प्रवेश कर श्री सदगुरूदेव महाराज का श्रद्धा, प्रेम, प्यार के साथ इतना स्पष्ट दर्शन करती है। जितना स्पष्ट स्वच्छ दर्पण में अपना चेहरा दिखलाई देता है। तब साधक की सुरति शून्यमण्डल या दशम द्वार में प्रवेश कर श्री सदगुरूदेव महाराज की कृपा प्राप्त कर अपने को धन्य धन्य मानने लग जाती है।

इस प्रकार साधक की सुरति को दशम द्वार में पहुँचने से उसमें शुद्ध परमार्थ का उदय हो जाता है। अपने श्री सदगुरूदेव महाराज के स्वरूप में स्फ़टिक के समान अत्यन्त उज्ज्वल सफ़ेद प्रकाश विद्यमान रहता है। सन्त महापुरूषों का कहना है कि शून्यमण्डल या दशम द्वार में अक्षय पुरूष के आसन के नीचे अमृत का एक कुण्ड है। जिसको मानसरोवर कहते है। उसमें साधक के स्नान, पान, ध्यान करने से उसकी सुरति विशेष निर्मल हो जाती है। इसीलिये यहाँ पहुँची हुई सुरत की हंसगति हो जाती है।

महासुन्न - इसके बाद श्री सदगुरूदेव महाराज अपने ही प्रकाश के द्वारा सुरति को महासुन्न के घोर अन्धकार के मैदान से पार करके ऊपर के मण्डलों में ले जाते हैं। साधक जब श्री सदगुरूदेव महाराज का साथ हर वक्त पकङे रहता है। तभी घोर अन्धकार युक्त इस विषम घाटी को पार कर पाता है। अर्थात श्री सदगुरूदेव महाराज की चरण धूलि में स्नान करते हुए साधक घोर अन्धकारयुक्त महासुन्न की विषम घाटी को पार करने में समर्थ हो जाता है।

जिन आत्माओं को श्री सदगुरूदेव महाराज भजन, सुमिरन, ध्यान का अभ्यास करवा करवा कर अपने साथ आगे ले जाते हैं। उन आत्माओं से महाशून्य में फ़ंसी हुई आत्मायें प्रार्थना करती है कि अपने श्री सदगुरूदेव महाराज के सम्मुख सिफ़ारिश करो कि हमें भी ऊपर ले चलें। यदि उन सन्तों की मौज हो जाती है तो वे महाशून्य की इन आत्माओं को अपने साथ आगे ले जाते हैं।

भंवरगुफ़ा - पूरे गुरू की कृपा से जब साधक महाशून्य से आगे की यात्रा करता है तो सत्यराज्य के भंवरगुफ़ा नामक स्थान में पहुँचता है। जैसे सहसदल कमल नामक मण्डल ब्रह्माण्ड देश का पहला लोक है। उसी तरह शून्य या दशम द्वार निर्मल चैतन्य देश अथवा दयाल देश का द्वार है, और भंवरगुफ़ा नामक लोक श्री सदगुरूदेव महाराज के दयाल देश नामक निजधाम का पहला लोक है।

महाशून्य से ऊपर की ओर सूरति या चितशक्ति की एक गुफ़ा है जिसे भंवरगुफ़ा कहते हैं। यहाँ पहुँची हुई निर्मल चैतन्य सुरतें निरन्तर भिन्न-भिन्न प्रकार के उत्सव मनाती रहती हैं। यहाँ की सुरते हंस कहलाती हैं। अपने श्री सदगुरूरूपी क्षीरसागर में सदा मुरली की मधुर धुन बजती रहती है। इसी मुरली की गूंज के मध्य ‘सोऽहं’ की झंकार होती रहती है। यह ऐसा ही है जैसे बूंद समुद्र को देखकर कहे कि मैं तुम्हारा ही अंश हूँ। मालिक महासागर है, और जीव बूंद है। इसी तरह आत्मा सतपुरूष को देखकर कहती है कि मैं श्री सदगुरूदेव जी महाराज का एक अंश हूँ।

सतलोक - भंवरगुफ़ा के बाद माथे में ऊपर की ओर निर्मल चैतन्य देश का सतलोक नामक मण्डल है। अपने श्री सदगुरूदेव महाराज के श्री चरणों में निरन्तर रमे हुए दास को सदगुरूदेव महाराज भंवरगुफ़ा नामक मण्डल से सतलोक नामक लोक में ले जाते हैं। इस देश के मालिक का नाम सतपुरूष है। सतलोक वह स्थान है, जहाँ से सम्पूर्ण रचना का प्रकाश होता है। साधक सतलोक में पहुंचकर श्री सदगुरूदेव महाराज में लीन रहता है। इस तरह के बूंद यहाँ पहुँच कर समुद्र में मिलकर समुद्र हो जाती है।

सन्त कहते हैं कि सतलोक सर्वश्रेष्ठ सुन्दरता का लोक है। यहाँ सभी तरफ़ उच्चकोटि की सुगन्ध फ़ैली हुई है। जो साधक अपने श्री सदगुरूदेव के श्री चरणों की कृपा से सतलोक में पहुँचा है। वह सोलह सूर्यों के प्रकाश जैसा तेजपुंज और उज्जवल हो जाता है।

सतलोक में पहुँच कर साधक काल की सीमा से बाहर हो जाता है। श्री सदगुरूदेव महाराज का भजन, सुमिरन, सेवा, पूजा, ध्यान करने वाले अभ्यासी सतलोक पहुँचते हैं। सतलोक पहुंचने पर ही जीव को मुक्ति लाभ होता है।

जब सतलोक राह चढ़ि जाई।
तब यह जीव मुक्ति को पाई।

परन्तु धन्य है श्री सदगुरूदेव महाराज का यह कृपालु स्वभाव जिससे प्रेरित होकर वे उस जीव को अपने पास न रखकर उसे निर्मल चैतन्य देश के सतलोक के ऊपर के मण्डलों पर भेज देते हैं। सतलोक तक पहुंचने में श्री सदगुरूदेव महाराज की कृपा के साथ साथ शिष्य के स्वयं के अभ्यास की भी अपेक्षा रहती है। परन्तु सतलोक तक पहुँच जाने के बाद शिष्य के प्रयास की दौङ धूप समाप्त हो जाती है। यहाँ से ऊपर के मण्डलों में एकमात्र श्री सदगुरूदेव महाराज की कृपा ही अपने शिष्य को अपने प्रताप से आगे भेजती है।

अनामीलोक - सतलोक के बाद और अलख लोक के बीच में अनामी पद नामक निर्मल चैतन्य देश है। इस स्थान की निर्मल सुरति को अनामी सम्भवत: इसलिये कहा जाता है कि सत्यलोक में अलख पुरूष सत्यनाम के रूप में प्रकाशित हो जाता है। अनामी पद सत्यलोक के स्वामी सत्यनाम का पूर्ण रूप है। जिसे सन्तों ने गुप्तभेद भी कहा है।

अलखलोक - श्री सदगुरूदेव महाराज का विज्ञानमय स्वरूप शिष्य की आत्मा को ऊपर के अलख, अगम, और अकह लोकों में पहुंचा देता है। यहाँ के मालिक का नाम अलख पुरूष है। अलख पुरूष के एक एक रोम में अनेकों सूर्य का प्रकाश विराजमान रहता है। अलख लोक के ऊपर अगम लोक नामक महाचैतन्य का लोक है। इसकी महिमा अधिक से अधिक है। इस लोक के मालिक का नाम अगम पुरूष है। अगम पुरूष के एक एक रोम में अनेकों सूर्य का प्रकाश है। महापुरूषों ने बताया है कि यह देश परम सन्तों का देश है।

अकहलोक - इस अगम लोक के ऊपर जो अकहलोक है। उसका वर्णन करने में सन्त भी मौन हो गये। क्योंकि यहाँ का प्रकाश और यहाँ की निर्मलता बेअन्त है। इसका वर्णन किसी भी प्रकार नहीं किया जा सकता है। जैसे गूंगे आदमी को मिठाई खिला दी जाय और वह उस मिठाई के स्वाद का वर्णन न कर सके। उसी प्रकार इस लोक का वर्णन नहीं किय जा सकता है क्योंकि यह लोक अवर्णनीय है। इसीलिये इसे अकहलोक कहते है। गुरू की कृपा से जो यहाँ पहुँचे हैं वही इसका अनुभव कर पाते हैं।

तभी तो सन्त भीखा साहब कहते हैं कि इसकी गति अगम्य है।

भीखा बात अगम्य की, कहन सुनन में नाहिं।
जो जाने सो कहे ना, कहे सो जाने नाहिं।

कहने का तात्पर्य है कि जो साधक अपने श्री सदगुरूदेव महाराज के बताये हुए नाम का भजन, सुमिरन तथा उनकी सेवा, पूजा, दर्शन, ध्यान पूर्ण श्रद्धा के साथ करता जाता है। वह सदा अपनी एक के बाद दूसरी आध्यात्मिक मंजिल पर चढ़ता चला जाता है।

पल पल सुमिरन जो करे, हिरदय श्रद्धा धार।
आधि व्याधि नाशे सकल, चढ़ जावै धुर धाम।

साधक यदि नियमपूर्वक प्रतिदिन भजन, सुमिरन, ध्यान यानी सुरति शब्द योग का अभ्यास करते हैं तो उनको आन्तरिक आनन्द का अनुभव होने लगता है और उनका चित्त प्रसन्न रहने लग जाता है। यह श्री सदगुरूदेव महाराज की प्रत्यक्ष दया और उनकी कृपा है। जो शिष्य को गुरू की भक्ति की दिशा में ले जाती है। गुरू की भक्ति की दिशा में ले जाने का तात्पर्य है कि साधक की चेतना के ज्ञानात्मक और क्रियात्मक और भावात्मक पक्ष सदगुरूदेव महाराज पर श्रद्धा और विश्वास के रंग में ऐसे रंग जाते हैं कि सदगुरूदेव की कृपा से शिष्य का ज्ञान और उसके सम्पूर्ण कर्म गुरूभक्ति के रस से सराबोर हो जाते हैं।

इस भक्ति की साधना में परानाम का सुमिरन और ध्यान अर्थात गुरूस्वरूप का अपने अन्तर्चक्षुओं से दर्शन करना और उनकी मानसिक सेवा, पूजा करने का प्रधान स्थान है। इसमें अपने श्रद्धा भाव द्वारा ही सदगुरूदेव के भाव स्वरूप का भजन ध्यान किया जाता है। इस प्रकार की उपासना से गुरूभक्ति के साधक अपने सदगुरू की कृपा से माथे में भावराज्य के द्वार को खोलकर अन्दर प्रवेश कर जाते हैं और सदगुरूदेव महाराज के असीम दया से निकली हुई चेतना की निर्मल किरणों की सहायता से उनकी महिमा का रसास्वादन करते हुए उनके परमधाम की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करते हैं।

प्रभु को प्राप्त करने के जो अभिलाषी भक्ति की साधना के द्वारा मन को इष्ट के साथ जोङ लेते हैं वही मालिक को प्राप्त कर सकते हैं। सदा सदा ही मालिक के भजन, भक्ति, सेवा, पूजा, दर्शन, ध्यान में रत रहने वाले प्रभु को प्राप्त करने के अभिलाषी शिष्य में स्वभावत: गुरू के स्वरूप उभर आते हैं।

सदगुरू की प्राप्ति को ईश्वर का साक्षात अनुग्रह समझना चाहिये। गुरू का दर्शन उनमें पूर्ण भक्तिभाव उनकी प्रसन्नता प्राप्ति और परिणाम स्वरूप अन्त:दर्शन की व्याकुलता, ये सभी ईश्वर के सार्थक अनुग्रह बताये गये हैं। ईश्वर के अनुग्रहकारी स्वरूप को गुरूतत्त्व कहते हैं।

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Agra, uttar pradesh, India
भारत के राज्य उत्तर प्रदेश के फ़िरोजाबाद जिले में जसराना तहसील के एक गांव नगला भादौं में श्री शिवानन्द जी महाराज परमहँस का ‘चिन्ताहरण मुक्तमंडल आश्रम’ के नाम से आश्रम है। जहाँ लगभग गत दस वर्षों से सहज योग का शीघ्र प्रभावी और अनुभूतिदायक ‘सुरति शब्द योग’ हँसदीक्षा के उपरान्त कराया, सिखाया जाता है। परिपक्व साधकों को सारशब्द और निःअक्षर ज्ञान का भी अभ्यास कराया जाता है, और विधिवत दीक्षा दी जाती है। यदि कोई साधक इस क्षेत्र में उन्नति का इच्छुक है, तो वह आश्रम पर सम्पर्क कर सकता है।