शनिवार, अगस्त 13, 2011

जिस मार्ग पर चले जाने के बाद मनुष्य फिर लौटकर नहीं आता - श्रीमदभगवद गीता अध्याय 15

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम । छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित । 15-1
श्रीकृष्ण बोले - अश्वत्थ नाम वृक्ष । जिसे अव्यय बताया जाता है । जिसकी जडें ऊपर हैं । और शाखायें नीचे हैं । वेद । छन्द । जिसके पत्ते हैं । जो उसे जानता है । वह वेदों का ज्ञाता है ।
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।
अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके । 15-2
उस वृक्ष की गुणों और विषयों द्वारा सींची शाखायें । नीचे ऊपर । हर ओर । फैली हुईं हैं । उसकी जडें भी । मनुष्य के कर्मों द्वारा । मनुष्य को । हर ओर से बाँधे । नीचे उपर बढी हुईं हैं ।
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृणेन छित्त्वा । 15-3
न इसका वास्तविक रुप दिखता है । न इसका अन्त । और न ही इसका आदि । और न ही इसका मूल स्थान ( जहां यह स्थापित है ) । इस अश्वथ नामक वृक्ष की बहुत दृण शाखाओं को । असंग रूपी दृण शस्त्र से काटकर ।
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यंयस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्येयतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी । 15-4
उसके बाद । परम पद की खोज करनी चाहिये । जिस मार्ग पर चले जाने के बाद । मनुष्य फिर लौटकर नहीं आता । उसी आदि पुरुष की । शरण में । चले जाना चाहिये । जिनसे यह । पुरातन वृक्ष रूपी । संसार उत्पन्न हुआ है ।
निर्मानमोहा जितसङगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः । द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत । 15-5
मान और मोह से मुक्त । संग रूपी दोष पर । जीत प्राप्त किये । नित्य अध्यात्म में लगे । कामनाओं को शान्त किये । सुख दुख जिसे कहा जाता है । उस द्वन्द्व से मुक्त हुये । ऐसे मूर्खता हीन महात्मा जन । उस परम अव्यय पद को । प्राप्त करते हैं ।
न तद्वभासयते सूर्यो न शशाङको न पावकः । यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम । 15-6
न उस पद को । सूर्य प्रकाशित करता है । न चन्द्र । और न ही अग्नि ( वह पद इस सभी लक्षणों से परे है ) जहां पहुँचने पर । वे पुनः वापिस नहीं आते । वही मेरा । परम धाम ( स्थान ) है ।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति । 15-7
मेरा ही सनातन अंश । इस जीव लोक में । जीव रूप धारण कर । मन सहित 6 इन्द्रियों ( मन और 5 अन्य इन्द्रियों ) को । जो प्रकृति में स्थित हैं । आकर्षित करता है ।
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः। गृहित्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात । 15-8
जैसे वायु । गन्ध को ग्रहण कर । एक स्थान से । दूसरे स्थान पर । ले जाता है । उसी प्रकार आत्मा । इन इन्द्रियों को ग्रहण कर । जिस भी शरीर को । प्राप्त करता है । वहाँ ले जाता है ।
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च । अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते । 15-9
शरीर में स्थित हो वह । सुनने की शक्ति । आँखें । छूना । स्वाद । सूँघने की शक्ति । तथा मन द्वारा । इन सभी के विषयों का । सेवन करता है ।
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम । विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः । 15-10
शरीर को त्यागते हुये । या उसमें स्थित रहते हुये । गुणों को भोगते हुये । जो विमूढ ( मूर्ख ) हैं । वे उसे ( आत्मा ) को नहीं देख पाते । परन्तु जिनके पास ज्ञान चक्षु ( आँखें ) हैं । अर्थात जो ज्ञान युक्त हैं । वे उसे देखते हैं ।
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम । यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः । 15-11
साधना युक्त योगी जन । इसे स्वयं में अवस्थित देखते हैं ( अर्थात अपनी आत्मा का अनुभव करते हैं ) परन्तु साधना करते हुये भी । अकृत जन । जिनका चित अभी । ज्ञान युक्त नहीं है । वे इसे नहीं देख पाते ।
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम । यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम । 15-12
जो तेज सूर्य से आकर । इस संपूर्ण संसार को । प्रकाशित कर देता है । और जो तेज । चन्द्र औऱ अग्नि में है । उन सभी को तुम । मेरा ही जानो ।
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा । पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः । 15-13
मैं ही । सभी प्राणियों में प्रविष्ट होकर । उन्हें धारण करता हूँ ( उनका पालन पोषण करता हूँ ) । मैं ही रसमय चन्द्र बनकर । सभी औषधियाँ ( अनाज आदि ) उत्पन्न करता हूँ ।
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः । प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम । 15-14
मैं ही । प्राणियों की देह में स्थित हो । प्राण और अपान वायुओं द्वारा । चारों प्रकार के खानों को पचाता हूँ ।
सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम । 15-15
मैं सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ । मुझसे ही स्मृति ज्ञान होते है । सभी वेदों द्वारा । मैं ही जानने योग्य हूँ । मैं ही वेदों का सार हुँ । और मैं ही वेदों का ज्ञाता हुँ ।
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते । 15-16
इस संसार में 2 प्रकार की । पुरुष संज्ञायें हैं - 1 क्षर और 2 अक्षऱ ( अर्थात जो नश्वर हैं । और जो शाश्वत हैं )। इन दोनो प्रकारों में सभी जीव ( देहधारी ) क्षर हैं । और उन देहों में विराजमान आत्मा को । अक्षर कहा जाता है ।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः । 15-17
परन्तु इनसे अतिरिक्त । एक अन्य उत्तम पुरुष । और भी हैं । जिन्हें परमात्मा कहकर । पुकारा जाता है । वे विकार हीन । अव्यय । ईश्वर । इन तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर । संपूर्ण संसार का । भरण पोषण करते हैं ।
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः । अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः । 15-18
क्योंकि मैं क्षर ( देहधारी जीव ) से ऊपर हूँ । तथा अक्षर ( आत्मा ) से भी उत्तम हूँ । इसलिये मुझे इस संसार में पुरुषोत्तम के नाम से जाना जाता है ।
यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम । स सर्वविदभजति मां सर्वभावेन भारत । 15-19
जो अन्धकार से परे मनुष्य । मुझे पुरुषोत्तम जानता है । वह ही । सब कुछ जानता है । और संपूर्ण भावना से । हर प्रकार मुझे भजता है । हे भारत !
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ । एतदबुद्धवा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत । 15-20
हे अनघ ! ( पापहीन अर्जुन ) इस प्रकार । मैंने तुम्हें । इस गुह्य शास्त्र को सुनाया । इसे जान लेने पर । मनुष्य बुद्धिमान । और कृतकृत्य हो जाता है । हे भारत !

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