शनिवार, अगस्त 13, 2011

वे काम उपभोग को ही परम मानते हैं - श्रीमदभगवद गीता अध्याय 16

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः । दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम । 16-1
श्रीकृष्ण बोले - अभय । सत्त्व संशुद्धि । ज्ञान । और कर्म योग में स्थिरता । दान । इन्द्रियों का दमन । यज्ञ ( जैसे प्राणायाम । जप यज्ञ । दृव्य यज्ञ आदि )  स्वध्याय । तपस्या । सरलता ।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम । दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम । 16-2
अहिंसा ( किसी भी प्राणी की हिंसा न करना ) सत्य । क्रोध न करना । त्याग । मन में शान्ति होना ( द्वेष आदि न रखना ) सभी जीवों पर दया । सांसारिक विषयों की तरफ उदासीनता । अन्तकरण में कोमलता । अकर्तव्य करने में लज्जा ।
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता । भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत । 16-3
तेज । क्षमा । धृति ( स्थिरता ) शौच ( सफाई और शुद्धता ) अद्रोह ( द्रोह - वैर की भावना न रखना )  मान की इच्छा न रखना । हे भारत ! यह दैवी प्रकृति में उत्पन्न मनुष्य के लक्षण होते हैं ।
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च । अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम । 16-4
दम्भ ( क्रोध अभिमान ) दर्प ( घमन्ड )  क्रोध । कठोरता और अपने बल का दिखावा करना । तथा अज्ञान । यह असुर प्रकृति को प्राप्त मनुष्य के लक्षण होते हैं ।
दैवी संपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता । मा शुचः संपदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव । 16-5
दैवी प्रकृति । विमोक्ष में सहायक बनती है । परन्तु आसुरी बुद्धि । और ज्यादा बन्धन का कारण बनती है । तुम दुखी मत हो । क्योंकि तुम दैवी संपदा को प्राप्त हो । हे अर्जुन !
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च । दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु । 16-6
इस संसार में 2 प्रकार के जीव हैं । दैवी प्रकृति वाले । और आसुरी प्रकृति वाले । दैवी स्वभाव के बारे में अब तक विस्तार से बताया है । अब आसुरी बुद्धि के विषय में सुनो । हे पार्थ !
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः । न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते । 16-7
असुर बुद्धि वाले मनुष्य । प्रवृत्ति और निवृत्ति को । नहीं जानते ( अर्थात किस चीज में प्रवृत्त होना चाहिये । किससे निवृत्त होना चाहिये । उन्हें इसका आभास नहीं ) । न उनमें शौच ( शुद्धता ) होता है । न ही सही आचरण । और न ही सत्य ।
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम । अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम । 16-8
उनके अनुसार । यह संसार असत्य और प्रतिष्ठा हीन है ( अर्थात इस संसार में कोई दिखाई देने वाले से बढकर सत्य नहीं है । और न ही इसका कोई मूल स्थान है )  न ही उनके अनुसार । इस संसार में कोई ईश्वर हैं । केवल परस्पर ( स्त्री पुरुष के ) संयोग से ही । यह संसार उत्पन्न हुआ है । केवल काम भाव ही इस संसार का कारण है ।
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः। प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः । 16-9
इस दृष्टि से इस संसार को देखते । ऐसे अल्प बुद्धि मनुष्य । अपना नाश कर बैठते हैं । और उग्र कर्मों में प्रवृत्त होकर । इस संसार के अहित के लिये ही प्रयत्न करते हैं ।
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः । मोहादगृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः । 16-10
दुर्लभ ( असंभव ) इच्छाओं का आश्रय लिये । दम्भ ( घमन्ड ) मान और अपने ही मद में चूर हुये । मोहवश ( अज्ञान वश ) असद आग्रहों को पकड कर अपवित्र ( अशुचि ) वृतों में जुटते हैं ।
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः । कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः । 16-11
मृत्यु तक समाप्त न होने वाली । अपार चिन्ताओं से घिरे । वे काम उपभोग को ही परम मानते हैं ।
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः । ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान । 16-12
सैंकडों आशाओं के जाल में बंधे । इच्छाओं और क्रोध में डूबे । वे अपनी इच्छाओं और भोगों के लिये अन्याय से कमाये धन के संचय में लगते हैं ।
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम । इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम । 16-13
इसे तो हमने आज प्राप्त कर लिया है । अन्य मनोरथ को भी हम प्राप्त कर लेंगें । इतना हमारे पास है । वह धन भी भविष्य में हमारा हो जायेगा ।
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि । ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी । 16-14
ये शत्रु तो हमारे द्वारा मर चुका है । दूसरों को भी हम मार डालेंगे । मैं ईश्वर हूँ ( मालिक हूँ ) मैं सुख समृद्धि का भोगी हूँ । सिद्ध हूँ । बलवान हूँ । सुखी हूँ  ।
आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया । यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः । 16-15
मेरे समान दूसरा कौन है । हम यज्ञ करेंगे । दान देंगे । और मजा उठायेंगे । इस प्रकार वे अज्ञान से विमोहित होते हैं ।
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः । प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ । 16-16
उनका चित्त । अनेकों दिशाओं में दौडता हुआ । अज्ञान के जाल से । ढका रहता है । इच्छाओं और भोगों से आसक्त चित्त । वे अपवित्र । नरक में गिरते जाते हैं ।
आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः । यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम । 16-17
अपने ही घमण्ड में डूबे । स्वयँ से सुध बुध खोये । धन और मान से चिपके । वे केवल ऊपर ऊपर से ही ( नाम के लिये ही ) दम्भ और घमन्ड में डूबे अविधि पूर्ण ढंग से यज्ञ करते हैं ।
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः । मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः । 16-18
अहंकार । बल । घमन्ड । काम । और क्रोध में डूबे । वे स्वयँ की आत्मा । और अन्य जीवों में विराजमान मुझसे । द्वेष करते हैं । और मुझमें दोष ढूँढते हैं ।
तानहं द्विषतः क्रुरान्संसारेषु नराधमान । क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु  । 16-19
उन द्वेष करने वाले क्रूर । इस संसार में सबसे नीच मनुष्यों को । मैं पुनः पुनः आसुरी योनियों में ही फेंकता हूँ ।
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि । मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम । 16-20
उन आसुरी योनियों को प्राप्त कर । जन्मों ही जन्मों तक । वे मूर्ख मुझे प्राप्त न कर । हे कौन्तेय ! फिर और नीच गतियों को ( योनियों अथवा नरकों ) को प्राप्त करते हैं ।
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत । 16-21
नरक के 3 द्वार हैं । जो आत्मा का नाश करते हैं । 1 काम ( इच्छा ) 2 क्रोध  तथा  3 लोभ । इसलिये इन तीनों का ही । त्याग कर देना चाहिये ।
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः । आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम । 16-22
इन तीनों । अज्ञान के द्वारों से । विमुक्त होकर । मनुष्य अपने श्रेय ( भले ) के लिये । आचरण करता है । और फिर । परम गति को । प्राप्त होता है ।
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः । न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम । 16-23
जो शास्त्र में बताये मार्ग को छोडकर । अपनी इच्छा अनुसार । आचरण करता है । न वह सिद्धि प्राप्त करता है । न सुख । और न ही । परम गति ।
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ । ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि । 16-24
इसलिये तुम्हारे लिये । शास्त्र प्रमाण रूप है ( शास्त्र को प्रमाण मानकर ) जिससे तुम जान सकते हो कि क्या करने योग्य है ? और क्या नहीं । करने योग्य है । शास्त्र द्वारा । मार्ग को जानकर ही । तुम्हें उसके अनुसार । कर्म करना चाहिये ।

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