शनिवार, अगस्त 13, 2011

मेरा भक्त इनको समझ जाने पर मेरे स्वरुप को प्राप्त होता है - श्रीमदभगवद गीता अध्याय 13

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते । एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः । 13-1
श्रीकृष्ण बोले - इस शरीर को । हे कौन्तेय ! क्षेत्र कहा जाता है । और ज्ञानी लोग । इस क्षेत्र को । जो जानता है । उसे क्षेत्रज्ञ कहते हैं ।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत । क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम । 13-2
सभी क्षेत्रों में । तुम मुझे ही । क्षेत्रज्ञ जानो । हे भारत ! ( सभी शरीरों में मैं क्षेत्रज्ञ हूँ ) । इस क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान ( समझ ) ही वास्तव में ज्ञान है । मेरे मत से ।
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत । स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु । 13-3
वह क्षेत्र जो है । और जैसा है । और उसके जो विकार ( बदलाव ) हैं । और जिससे । वो उत्पन्न हुआ है । और वह । क्षेत्रज्ञ जो है । और जो । इसका प्रभाव है । वह तुम । मुझसे संक्षेप में सुनो ।
 ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक । बृह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमदिभर्विनिश्चितैः । 13-4
ऋषियों ने बहुत से गीतों में । और विविध छन्दों में । पृथक पृथक रुप से । इनका वर्णन किया है । तथा सोच समझ कर । संपूर्ण तरह निश्चित करके । बृह्म सूत्र के पदों में भी । इसे बताया गया है ।
 महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च । इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः । 13-5
महाभूत ( मूल प्रकृति ) अहंकार ( मैं का अहसास )  बुद्धि । अव्यक्त प्रकृति ( गुण )  10 इन्द्रियाँ ( 5 इन्द्रियां । और मन । और कर्म अंग )  और पाँचों इन्द्रियों के विषय ।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः । एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम । 13-6
इच्छा । द्वेष । सुख । दुख । संघ ( देह समूह )  चेतना । धृति ( स्थिरता )  यह संक्षेप में । क्षेत्र और उसके विकार । बताये गये हैं ।
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम । आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः । 13-7
अभिमान न होना ( स्वयं के मान की इच्छा न रखना ) झुठी दिखावट न करना । अहिंसा ( जीवों की हिंसा न करना )  शान्ति । सरलता । आचार्य की उपासना करना ।  शुद्धता ( शौच )  स्थिरता और आत्म संयम ।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च । जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम । 13-8
इन्द्रियों के विषयों के प्रति वैराग्य ( इच्छा शून्यता ) अहंकार का अभाव । जन्म । मृत्यु । जरा ( बुढापे ) और बीमारी ( व्याधि ) के रुप में जो दुख दोष है । उसे ध्यान में रखना ( अर्थात इनसे मुक्त होने का प्रयत्न करना )।
असक्तिरनभिष्वङगः पुत्रदारगृहादिषु । नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु । 13-9
आसक्ति से मुक्त रहना ( संग रहित रहना ) पुत्र । पत्नी । और गृह आदि को । स्वयं से जुड़ा न देखना ( एकात्मता का भाव न होना )  इष्ट ( प्रिय ) और अनिष्ट ( अप्रिय ) का प्राप्ति में चित्त का सदा एक सा रहना ।
 मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी । विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि । 13-10
मुझमें अनन्य अव्यभिचारिणी ( स्थिर ) भक्ति होना । एकान्त स्थान पर रहने का स्वभाव होना । और लोगों से घिरे होने को पसंद न करना ।
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा । 13-11
सदा अध्यात्म ज्ञान में लगे रहना । तत्त्व ( सार ) का ज्ञान होना । और अपनी भलाई ( अर्थ अर्थात भगवत प्राप्ति जिसे परमार्थ - परम अर्थ कहा जाता है ) को देखना । इस सबको ज्ञान कहा गया है । और बाकी सब अज्ञान है ।
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते । अनादि मत्परं बृह्म न सत्तन्नासदुच्यते । 13-12
जो ज्ञेय है ( जिसका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये )  मैं उसका वर्णन करता हूँ । जिसे जानकर मनुष्य अमरता को प्राप्त होता है । वह ( ज्ञेय ) अनादि है ( उसका कोई जन्म नहीं है ) परम बृह्म है । न उसे सत कहा जाता है । न असत कहा जाता है ( वह इन संज्ञाओं से परे है ) ।
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम । सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति । 13-13
हर ओर हर जगह । उसके हाथ और पैर हैं । हर ओर हर जगह । उसके आँखें और सिर तथा मुख हैं । हर जगह । उसके कान हैं । वह इस संपूर्ण संसार को ढक कर ( हर जगह व्याप्त हो ) विराजमान है ।
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम । असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च । 13-14
वह सभी इन्द्रियों से । वर्जित होते हुये । सभी इन्द्रियों और गुणों को । आभास करता है । वह असक्त होते हुये भी । सभी का भरण पोषण करता है । निर्गुण होते हुये भी । सभी गुणों को भोक्ता है ।
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च । सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत । 13-15
वह सभी । चर और अचर । प्राणियों के बाहर भी है । और अन्दर भी । सूक्ष्म होने के कारण । उसे देखा नहीं जा सकता । वह दूर भी स्थित है । और पास भी ।
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम । भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च । 13-16
सभी भूतों ( प्राणियों ) में । एक ही होते हुये भी ( अविभक्त होते हुये भी ) विभक्त सा स्थित है । वहीं सभी प्राणियों का । पालन पोषण करने वाला है । वही ज्ञेय ( जिसे जाना जाना चाहिये ) है । ग्रसिष्णु है । प्रभविष्णु है ।
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते । ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम । 13-17
सभी ज्योतियों की । वही ज्योति है । उसे तमसः ( अन्धकार ) से परे ( परम ) कहा जाता है । वही ज्ञान है । वहीं ज्ञेय है । ज्ञान द्वारा । उसे प्राप्त किया जाता है । वही । सबके हृदयों में । विराजमान है ।
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः । मदभक्त एतद्विज्ञाय मदभावायोपपद्यते । 13-18
इस प्रकार तुम्हें संक्षेप में क्षेत्र ( यह शरीर आदि ) ज्ञान । और ज्ञेय ( भगवान ) का वर्णन किया है । मेरा भक्त इनको समझ जाने पर । मेरे स्वरुप को प्राप्त होता है ।
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि । विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान । 13-19
तुम प्रकृति और पुरुष दोनों को ही । अनादि ( जन्म रहित ) जानो । और विकारों और गुणों को । तुम प्रकृति से उत्पन्न हुआ जानो ।
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते । पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते । 13-20
कार्य के साधन । और कर्ता होने की भावना में । प्रकृति को कारण बताया जाता है । और सुख दुख के भोक्ता होने में । पुरुष को उसका कारण कहा जाता है ।
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङक्ते प्रकृतिजान्गुणान । कारणं गुणसङगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु । 13-21
यह पुरुष ( आत्मा ) प्रकृति में स्थित होकर । प्रकृति से ही उत्पन्न हुये गुणों का भोक्ता है । इन गुणों से संग ( जुडा होना ) ही पुरुष का । सद और असद योनियों में जन्म का कारण है ।
उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः । परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः । 13-22
यह पुरुष ( जीव आत्मा ) इस देह में स्थित होकर । देह के साथ संग करता है । इसलिये इसे उपदृष्टा कहा जाता है । अनुमति देता है । इसलिये इसे अनुमन्ता कहा जा सकता है । स्वयं को देह का पालन पोषण करने वाला समझने के कारण । इसे भर्ता कहा जा सकता है । और देह को भोगने के कारण । भोक्ता कहा जा सकता है । स्वयं को देह का स्वामी समझने के कारण । महेश्वर कहा जा सकता है । लेकिन स्वरूप से यह परमात्म तत्व ही है । अर्थात इसका देह से कोई संबंध नहीं ।
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह । सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते । 13-23
जो इस प्रकार । पुरुष और प्रकृति । तथा प्रकृति में स्थित गुणों के । भेद को जानता है । वह मनुष्य सदा वरतता हुआ भी । दोबारा फिर मोहित नहीं होता ।
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना । अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे । 13-24
कोई ध्यान द्वारा । अपने ही आत्मन से । अपनी आत्मा को देखते हैं । अन्य सांख्य ज्ञान द्वारा । अपनी आत्मा का । ज्ञान प्राप्त करते हैं । तथा अन्य कई । कर्म योग द्वारा ।
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते । तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः । 13-25
लेकिन दूसरे कई । इसे न जानते हुये भी । जैसा सुना है । उस पर विश्वास कर । बताये हुये की उपासना करते हैं । वे श्रुति परायण ( सुने हुये पर विश्वास करते । और उसका सहारा लेते ) लोग भी इस मृत्यु संसार को पार कर जाते हैं ।
यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम । क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ । 13-26
हे भरतर्षभ ! जो भी स्थावर । या चलने फिरने वाले । जीव उत्पन्न होते हैं । तुम उन्हें इस क्षेत्र ( शरीर तथा उसके विकार आदि ) और क्षेत्रज्ञ ( आत्मा ) के संयोग से ही उत्पन्न हुआ समझो ।
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम । विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति । 13-27
परमात्मा । सभी जीवों में । एक से स्थित हैं । विनाश को । प्राप्त होते इन जीवों में । जो अविनाशी । उन परमात्मा को देखता है । वही वास्तव में देखता है ।
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम । न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम । 13-28
हर जगह ईश्वर को । 1 सा अवस्थित । देखता हुआ । जो मनुष्य । सर्वत्र समता से देखता है । वह अपने ही आत्मन द्वारा । अपनी हिंसा नहीं करता । इसलिये वह । परम गति को प्राप्त करता है ।
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः । यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति । 13-29
जो प्रकृति को ही । हर प्रकार से । सभी कर्म करते हुये देखता है । और स्वयं को अकर्ता ( कर्म न करने वाला ) जानता है । वही वास्तव में सत्य देखता है ।
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति । तत एव च विस्तारं बृह्म संपद्यते तदा । 13-30
जब वह । इन सभी जीवों के । विविध भावों को । 1 ही जगह स्थित देखता है ( प्रकृति में ) और उसी 1 कारण से यह सारा विस्तार देखता है । तब वह बृह्म को प्राप्त हो जाता है ।
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः । शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते । 13-31
हे कौन्तेय ! जीवात्मा । अनादि और निर्गुण । होने के कारण । विकारहीन ( अव्यय ) परमात्मा तत्व ही है । यह शरीर में स्थित होते हुये भी । न कुछ करती है । और न ही लिपती है ।
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते । सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते । 13-32
जैसे । हर जगह । फैला आकाश । सूक्ष्म होने के कारण । लिपता नहीं है । उसी प्रकार । हर जगह । अवस्थित आत्मा भी । देह से लिपती नहीं है ।
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः । क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत । 13-33
जैसे । 1 ही सूर्य । इस संपूर्ण संसार को । प्रकाशित कर देता है । उसी प्रकार । हे भारत ! क्षेत्री ( आत्मा ) भी । क्षेत्र को । प्रकाशित कर देती है ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा । भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम । 13-34
इस प्रकार जो । क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के । बीच में । ज्ञान दृष्टि से । भेद देखते हैं । और उनको । अलग अलग जानते हैं । वे इस प्रकृति से । विमुक्त हो । परम गति को । प्राप्त करते हैं ।

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